प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु।
उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथासथ॥ (ऋग्वेद 10.102.13)
हे वीर मनुष्यो! आगे बढ़ो, विजय प्राप्त करो। ईश्वर तुम्हें सुख दे। तुम्हारी भुजाओं में बल हो जिससे कि तुम कभी पराजित न हो सको।
अवीरामिव मामयं शरारूरभिमन्यते।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥ (ऋग्वेद 10.86.9)
अरे दुष्ट घातक! तू मुझे अबला समझे बैठा है, परन्तु मैं अबला नहीं वीरांगना हूँ, वीर की पत्नी हूँ। मौत से न डरने वाले मेरे सखा हैं। मेरा पति संसार में अपनी समता नहीं रखता यानी मेरा समस्त परिवार वीरत्व से ओतप्रोत है।
मम पुत्राः शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट्।
उताहमस्मि सञ्जया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः॥ (ऋग्वेद 10.159.3)
मेरे पुत्र शत्रु के छक्के छुड़ा देने वाले हैं, मेरी पुत्री अद्वितीय तेजस्विनी है। मेरे पति उत्तम कीर्त्तिवान् हैं और मैं क्या बताऊँ! मैं भी उत्तम विजयिनी हूँ। कोई मेरी तरफ आँख उठाकर तो देखे!
सहे पिशाचान्त्सहसा ऐषां द्रविणं ददे।
सर्वान् दुरस्यतो हन्मि सं म आकूर्ऋध्यताम्॥ (अथर्व. 4.36.4)
मैं अपने बल और पराक्रम से पिशाचों एवं दुष्टों को पूरी शक्ति से दबा दूंगा। इनकी धन सम्पत्ति को छीन लूंगा। सब दुष्टाचारियों को मार डालूंगा। यह मेरा संकल्प है जिसे मैं पूरा करूँगा।
तपनो अस्मि पिशाचानां व्याघ्रो गोमितामिव।
श्वानः सिंहमिव दृष्ट्वा ते न विन्दन्ते न्यञ्चनम्॥ (अथर्व. 4.36.6)
मैं पिशाचों और दुष्टों के बीच में आतंक मचा देने वाला हूँ, जैसे बाघ ग्वालों के बीच मचा देता है। जैसे शेर को देखकर कुत्ते भयभीत हो जाते हैं वैसे ही मुझे सामने देखकर पिशाचादि दुष्ट सब चौकड़ी भूल जाते हैं।
न पिशाचैः संशक्नोमि न स्तनैर्न वनर्गुभिः।
पिशाचस्तस्मान्नश्यन्ति यमहं ग्राममाविशे॥ (अथर्ववेद 4.36.7)
मैं चोरों, लुटेरों, डाकुओं और दुष्ट पिशाचों के साथ कभी समझौता नहीं करता। जिस स्थान, नगर आदि में मैं पहुँच जाता हूँ, दुष्ट पिशाच भाग खड़े होते हैं। अर्थात् मनुष्यों को दुष्टों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए।
परेणैतु पथा वृकः परमेणोत तस्करः।
परेण दत्वती रज्जुः परेणाघायुरर्षतु॥ (अथर्व. 4.3.2)
ओ भेड़िए! मुझसे दूर रहना। ओ चोर! मुझसे दूर रहना। ओ सांप! मुझसे दूर रहना। ओ पापी! मुझसे दूर रहना। सावधान ! क्यों मेरे पास आकर प्राण खोना चाहते हो?
अक्ष्यौ च ते मुखं च ते व्याघ्र जम्भयामसि।
आत् सर्वान् विंशति नखान्। (अथर्व. 4.3.3)
ओ बाघ! आ तो सही। मैं तेरी दोनों आंखों, तेरे मुंह और बीसों नाखूनों को कुचल डालूंगा।
व्याघ्रं दत्वतां वयं प्रथमं जम्भयामसि।
आदुष्टेनमथो अहिं यातुधानमथो वृकम्॥ (अथर्व. 4.3.4)
नुकीले दांतों वाले बाघ को हम जान से मार डालेंगे तथा चोर को, सांप को, दूसरों को सताने वाले दुष्टों और भेड़िए को हम मार डालेंगे।
पदापणीं रराधसो निबाधस्व महां असि।
न हित्वा कश्चन प्रति॥ (अथर्व. 8.64.2)
हे वीर! विनाशकारी लुटेरों को तू पाद प्रहार से नीचे गिरा दे। तू महान है। कोई तेरी बराबरी नहीं कर सकता।
हन्ताहं पृथिवीमिमां नि दधानीहवेह वा।
कुवित् सोमस्यापामिति॥ (ऋग्वेद 10.119.19)
मैं पृथिवी का दग्ध करने वाले इस विशाल सूर्य तक को छोटी सी फुटबाल की तरह ठोकर से जहाँ कहो, वहीं पहुंचा दूं। मैंने वीरता के रस का पान कर लिया है, बहुत-बहुत पान कर लिया है।
अहमस्मि महामहोऽभिनभ्य मुदीषितः।
कुवित् सोमस्यापामिति॥ (ऋग्वेद 10.119.12)
अरे, मैं तो आकाश में उगा हुए साक्षात् महा तेजस्वी सूर्य हो गया हूँ। मैंने वीरता के रस का पान कर लिया है, बहुत-बहुत पान कर लिया है। अर्थात् जब मनुष्य में सचमुच वीरत्व के भाव आते हैं तो उसे शत्रु की बड़ी से बड़ी शक्ति भी तुच्छ दिखाई देती है। वह स्वयं महान् शक्ति पुञ्ज बन जाता है और स्वयं को अजेय व अपराजेय अनुभव करता है।
ये युध्यन्ते प्रधनेषु शूरासो ये तनूत्यजः।
ये वा सहस्रदक्षिणाः तांश्चिदेवापि गच्छतात्॥ (ऋग्वेद 10.154.3)
हे वीरो! तुम उनके पास जाओ जो शूरवीर संग्रामों में युद्ध करते हैं, जो युद्धों में अपने प्राण देते हैं अथवा जो यज्ञों में हजारों का दान करते हैं।
नहि मे अक्षिपच्चनाऽच्छान्तसुः पञ्च कृष्टयः।
कुवित् सोमस्यापामिति॥ (ऋग्वेद 10.119.6)
मैंने सोमरस का, वीरता के अमृतरस का पान कर लिया है। बहुत-बहुत पान कर लिया है। मुझमें वह शक्ति आ गई है कि संसार का कोई मनुष्य मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकताहै।
नहि मे रोदसी उभे अन्यं पक्षं च न प्रति।
कुवित् सोमस्यापामिति॥ (ऋ. 10.119.7)
मैं तो इतना महान् वीर हो गया हूँ कि ये विशाल द्यावा पृथिवी मेरे एक पांसे के बराबर भी नहीं हैं। मैंने वीरता का रसपान कर लिया है। बहुत-बहुत पान कर लिया है।
अभि द्यां महिना भुवमभीमां पृथिवीं महीम्।
कुवित् सोमस्यापामिति॥ (ऋग्वेद 10.119.8)
निःसन्देह यह आकाश बड़ा महिमाशाली है। मगर अपनी महत्ता से मैंने इसे भी पीछे छोड़ दिया है। निःसन्देह यह पृथिवी बड़ी विशाल है। पर अपनी विशालता से मैंने इसे भी परास्त कर दिया है। मैंने वीरता का रस पान कर लिया है, बहुत-बहुत पान कर लिया है।
महाभारत (अनु. अ. 145) के अनुसार योद्धा अनिवार्य स्थिति हो जाने पर युद्ध करें। क्योंकि उत्तम कार्य के लिए युद्ध में प्राण विसर्जन करना वीर योद्धा के लिए धर्म की प्राप्ति कराने वाला है। जो अपने प्राणों की परवाह न करके निर्भय हो हथियार लेकर अग्नि के समान संग्राम में प्रवेश कर जाता है और योद्धा को मिलने वाली निश्चित गति को जानकर जो उत्साहपूर्वक लड़ता है वह स्वर्गलोक में जाता है। निश्चय ही प्राणों का बलिदान करना कठिन काम है। मगर सम्पूर्ण यज्ञों में प्राण यज्ञ सबसे बढ़कर है।’’ “जो वीरोचित शैली में रणभूमि में जाकर वीरशय्या (मृत्यु) को प्राप्त होता है वह पुनर्जन्म में सुख साधन सम्पन्न जन्म में जाता है, उसे अभक्ष लोकों की प्राप्ति होती है’’ (अनु. 7.13) अतः अपने राष्ट्र के लिए बलिदान होना गौरव की बात है। - डॉ. कृष्ण वल्लभ पालीवाल
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