इन दिनों भारत में तीर्थयात्राओं का जोर है। उत्तराञ्चल में चारों धाम (बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमनोत्री) के कपाट खुले हैं। गुरु गोविन्द सिंह जी की पूर्वजन्म की तपस्थली हेमकुण्ड साहब भी गुलजार है। अमरनाथ यात्रा भी अपने पूरे यौवन पर है। वैष्णोदेवी में तो अब बारहों मास धर्मप्रेमियों की बहार रहती है। हरिद्वार से गंगा जल लेकर पुरा महादेव (मेरठ) में अभिषेक करनेवाले काँवड़ियों का प्रवाह गंगा से भी तेज गति से बह रहा है। हरिद्वार से मेरठ तक की सड़कें
‘बोल बम‘ के गौरव निनाद से गूँज रही हैं।
जहाँ एक ओर तीर्थों में श्रद्धालुओं की बढती संख्या देखकर मन उत्साह से भर जाता है, वहीं कुछ लोगों का व्यवहार और पर्यावरण पर बढते दबाव को देखकर मन भावी की आशंका से भयभीत हो उठता है। इसके लिए आवश्यक है कि तीर्थयात्रा को धर्मभावना से पूरा किया जाये, पर्यटन के लिए नहीं।
तीर्थयात्रा और पर्यटन का उद्देश्य भिन्न है। पर्यटन में भोग-भाव प्रमुख रहता है। इसलिए पर्यटन स्थलों पर लोग होटल, जुआघर, नाचघर, सिनेमा हॉल, पार्क आदि की माँग करते हैं। अनेक पर्यटन स्थल हिमालय की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित हैं। अब प्रयासपूर्वक नये पर्यटन स्थल भी बनाये जा रहे हैं। यहाँ करोड़ों रूपये खर्च कर नकली झरने, पहाड़ियाँ, बर्फ आदि के दृश्य बनाये जाते हैं। लोग मनोरञ्जन के लिए यहाँ आते हैं। अतः उन्हें सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए।
पर दूसरी ओर तीर्थों का वातावरण एकदम अलग होना चाहिए। तीर्थ में लोग पुण्यलाभ के लिए आते हैं। अतः यहाँ धर्मशाला, मन्दिर, सत्संग भवन, सामान्य भोजन व आवास की व्यवस्था, स्नान-ध्यान का उचित प्रबन्ध आदि होना चाहिए। यदि कोई दान देना चाहे, तो उसका पैसा ठीक हाथों में जाए। तीर्थयात्रा में कष्ट होने पर लोग बुरा नहीं मानते, पर उनके साथ दुर्व्यवहार न हो, यह भी आवश्यक है । पर इन दिनों तीर्थयात्रा और पर्यटन में घालमेल होने के कारण तीर्थों का वातावरण बदल रहा है। इसके लिए शासन-प्रशासन के साथ-साथ हिन्दू समाज भी कम दोषी नहीं है।
आज से 25-30 साल पहले तक दुर्गम तीर्थों पर जाने के लिए सड़के नहीं थीं। लोग पैदल ही यात्रा करते थे। आज भी अनेक लोग उन पथों पर ही चलकर यात्रा करते हैं। वहाँ के ग्रामीण तीर्थयात्रियों का अपने घरों में रुकने और भोजन का प्रबन्ध करते थे। रात में बैठकर सब लोग अपने अनुभव बाँटते थे। इससे तीर्थयात्रियों को उस क्षेत्र की भाषा-बोली, खानपान, रीति-रिवाज आदि की जानकारी होती थी। गाँव वालों को भी देश में यत्र-तत्र हो रही हलचलों का पता लगता था। इसीलिए यात्रा के अनुभव को जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव माना जाता था। यात्री आगे बढते समय कुछ पैसा वहाँ देकर ही जाता था। इस प्रकार तीर्थयात्रियों के माध्यम से छोटे-छोटे गाँवों की अर्थव्यवस्था भी सँभली रहती थी।
पर अब सब ओर सड़कों का जाल बिछ गया है। मारुति कल्चर ने यात्रा को सुगम बना दिया है। इससे यात्रियों की संख्या बहुत बढी है, पर इसके साथ जो प्रदूषण वहाँ पहुँच रहा है, वह कम चिन्ताजनक नहीं है। आज से 15-20 साल पहले तक कुछ हजार तीर्थयात्री ही गोमुख जाते थे, पर इन दिनों काँवड़ यात्रा का प्रचलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत तेजी से बढा है। पहले तो लोग हरिद्वार से ही जल लाते थे, पर अब गंगोत्री और गोमुख से जल लाने की होड़ लगी है।
इस कारण आषाढ और श्रावण मास में गोमुख जानेवालों की संख्या एक लाख तक पहुँचने लगी है। इन दिनों गोमुख के सँकरे मार्ग पर मेला-सा लग जाता है। इस संख्या का दबाव वह क्षेत्र झेल नहीं पा रहा है। भोजवासा के जंगल से भूर्जपत्र (भोज) के वृक्ष गायब हो गये हैं। सब ओर बोतलें, पान मसाले के पाउच और न जाने क्या-क्या बिखरा रहता है। यात्री तो जल लेकर चले जाते हैं, पर कूड़ा वहीं रह जाता है। सर्दी के कारण वह नष्ट भी नहीं होता। फलतः इस कूड़े ने स्थानीय लोगों का जीना दूभर कर दिया है।
समाचार पत्रों के अनुसार धर्मप्रेमी संस्थाएँ गोमुख, तपोवन, नन्दनवन, चौखम्बा और वासुकिताल के ग्लेशियरों पर शिबिर लगा लेती हैं, जिनमें दिन-रात विद्युत जनित्र चलते हैं। इससे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। जो लोग उस क्षेत्र के निवासी हैं या सर्वेक्षण के लिए प्रायः जाते रहते हैं, उनका कहना है कि ऐसे तो कुछ साल बाद गंगा में पानी ही रुक जायेगा। फिर टिहरी बाँध में बिजली कैसे बनेगी और हर की पैड़ी पर लोग स्नान कैसे करेंगे? इस चिन्ता को केवल शासन-प्रशासन पर छोड़ने से काम नहीं चलेगा। इस पर सभी धार्मिक और सामाजिक संगठनों को भी विचार करना होगा।
अमरनाथ की यात्रा पहले आषाढ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा तक चलती थी, पर पर्यटनवादियों ने इसकी अवधि पहले डेढ और फिर दो मास कर दी। इसका परिणाम क्या हुआ? कुछ समय पूर्व शिवलिंग के साथ छेड़छाड़ के समाचार मिले थे और एक बार तो अधिकृत रुप ये यात्रा प्रारम्भ होने से पहले ही भोले बाबा पिघल गये। तीर्थयात्रियों (या पर्यटकों) के लिए जब मैदान जैसी पञ्चतारा सुविधाएँ वहाँ जुटायी जायेंगी, तो यह सब होना ही है।
कुछ वर्ष पूर्व अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के एक कथावाचक ने 600 शिष्यों के साथ सात दिन पूर्व वहाँ पहुँचकर कथा सुनायी। उनके अधिकांश शिष्य अति सम्पन्न हैं। वे उड़नखटोले से वहाँ गये। उनके लिए भारी विद्युत जनित्रों की सहायता से सुविधापूर्ण कुटिया, पण्डाल और भोजनालय बनाये गये। इन्हें कितना पुण्य मिला यह कहना तो कठिन है, पर इन्होंने पर्यावरण की कितनी हानि की, इसे खुली आँखों से देखा जा सकता है।
यात्रा-मार्ग पर लोग धर्म भावना से प्रेरित होकर भण्डारे और सेवाकेन्द्र चलाते हैं। उनकी भावना सराहनीय है, पर इसके हानि-लाभ पर खुले मन से विचार आवश्यक है। अब उत्तराञ्चल के तीर्थ भी सारे साल या फिर कुछ अधिक समय तक खुले रहें, यह प्रयास हो रहा है। कोई भी निर्णय लेने से पूर्व इस पर निष्पक्ष भाव से धार्मिक नेता, वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों को विचार करना चाहिए।
इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दुर्गम तीर्थ और धामों तक सड़कें न पहुँचें। सड़कों के कारण हजारों ऐसे लोग भी यात्रा कर लेते हैं, जो आयु की अधिकता या अस्वस्थता के कारण पैदल नहीं चल पाते। फिर भी पैदल या कष्ट उठाकर तीर्थयात्रा करने का महत्त्व अधिक है। अतः शासन को चाहिए कि वह सड़कों की तरह पैदल पथों का भी विकास करे और लोगों को पैदल यात्रा करने के लिए प्रेरित करे। युवा एवं सक्षम लोग बस, कार या उड़नखटोले की बजाय पैदल ही जायें। भले ही जीवन में किसी तीर्थ पर एक बार जायें, पर जायें पूरी श्रद्धा के साथ। उसे एक दिवसीय फटाफट क्रिकेट न समझें।
पर अभी का परिदृश्य तो दूसरा ही है। उत्तराखण्ड के तीर्थस्थानों में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता के व्यापारी करोड़ों रुपये खर्च करके होटल बना रहे हैं। इनमें कोक, पैप्सी, पिज्जा और बर्गर तो मिलते हैं, पर पहाड़ में बहुतायत से पैदा होने वाले मक्का, मडुए, कोदों आदि मोटे और गरम अन्न की रोटी या गहत और राजमा की दाल नहीं मिलती। इसीलिए इनमें वही सम्पन्न लोग रुकते हैं, जो तीर्थयात्रा की बजाय पर्यटन के लिए आते हैं।
इस बारे में भारत में विदेशों की सोच भिन्न है। पश्चिमी देशों में देवी-देवता और अवतारों की कल्पना नहीं है। वहाँ का इतिहास भी दो-तीन हजार साल से पुराना नहीं है। लोग ईसा मसीह को मानते हैं या पैगम्बर मोहम्मद को। इनसे सम्बन्धित स्थान चार-छह ही हैं। पर भारत में लाखों सालों का इतिहास उपलब्ध है। हिन्दू धर्म के अन्तर्गत सैकड़ों पन्थ और सम्प्रदाय हैं। सबके अलग तीर्थ और धाम हैं। सामान्य हिन्दू सबके प्रति श्रद्धा रखता है। भारत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जहाँ किसी सन्त या महापुरुष ने धर्म प्रचार न किया हो। इसलिए पूरी भारत भूमि ही पवित्र और पूज्य है।
पहले भारत में लोग गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर प्रायः समूह में तीर्थयात्रा पर जाते थे और लौटकर पूरे गाँव को भोज देकर खुशी मनाते थे। तभी सबको पता लगता था कि जितने लोग गये थे, उनमें से कुछ राह में ही भगवान को प्यारे हो गये। इस प्रकार तीर्थाटन मानव जीवन का उत्सव बन जाता था।
कुछ लोग बड़े गर्व से बताते हैं कि वे 50 बार वैष्णोदेवी हो आये हैं या वे हर साल अमरनाथ जाते हैं। क्या ही अच्छा हो कि ये लोग भारत के अन्य तीर्थों पर भी जायें। देश में चार धाम, 12 ज्योतिर्लिंग, 52 शक्तिपीठ और उनकी सैकड़ों उपपीठ हैं। सिख गुरुओं के सान्निध्य से पवित्र हुए सैकड़ों गुरुद्वारे हैं। देश-धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व होम करनेवाले शिवाजी, प्रताप, छत्रसाल से लेकर हरिहर और बुक्का जैसे वीरों के जन्मस्थान हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले नाना साहब और लक्ष्मीबाई से लेकर भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रान्तिवीरों के जन्म और बलिदानस्थल भी किसी तीर्थ से कम नहीं हैं। सपरिवार वहाँ जाने से नयी पीढी में देशप्रेम जाग्रत होगा। क्या ही अच्छा हो यदि सामर्थ्यवान लोग हर बार किसी एक प्रदेश का विस्तृत भ्रमण करें। इससे पुण्य के साथ ही इतिहासबोध और देशदर्शन जैसे लाभ भी मिलेंगे।
यदि लोग तीर्थयात्रा का मर्म समझें तो वे स्वयं इस दौरान शराब, मांसाहार आदि से दूर रहेंगे। मन में दुर्भावना नहीं होगी तो मार्ग में झगड़ा-झञ्झट या चोरी का भय भी नहीं रहेगा। यदि कुछ कष्ट हुआ तो उसे प्रभु का प्रसाद मान कर स्वीकार करेंगे। इससे यात्रा में खर्च भी कम होगा और उसका लाभ स्थानीय ग्रामीणों को मिलेगा।
व्यक्ति के जीवन में तीर्थयात्रा भी आवश्यक है और पर्यटन भी। पर दोनों के महत्त्व की ठीक कल्पना रहने से हमारे मन के साथ-साथ तीर्थस्थान भी सुरक्षित और साफ-सुथरे रह सकेंगे। - प्रस्तुति : नितिन लकड़े (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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