आज भी हमें पूर्वोत्तर के चेहरे अपने चेहरे नहीं लगते। यही कारण है कि आज भी उनको ‘चिंकी‘ कहकर अपमानित किया जाता है। कुछ दिनों पूर्व आसाम दंगों के दौरान देश में जगह-जगह योजनाबद्ध तरीके से उन्हें निशाना बनाया गया। जिस तरह दिल्ली में पूर्वोत्तर के एक छात्र को बेरहमी से मारा गया उसमें नस्लवाद की श्रेष्ठता और हीनता की बजबजाती मानसिकता ही थी। आज भी अधिकांश लोग नहीं जानते पूर्वोत्तर के जन-जीवन को जहाँ हजारों साल बाद भी तथा ब्रिटिश कालखण्ड में ईसायइत के तमाम हथकण्डों के झेलने के बाद भी बड़े गर्व के साथ वहाँ के लोग रामायण और महाभारत से अपने रिश्ते जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि उनके ही पूर्वज थे रामायण और महाभारत के लोग जिनकी परम्परायें वे आज भी जीवित किये हुए हैं। सूर्यदेव को सबसे पहले प्रणाम करने वाली अरुणाचल प्रदेश की 54 जनजातियों में से मीजो मिश्मी जनजाति खुद को भगवान कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का वंशज मानती है। रुक्मिणी आज के अरुणाचल के भीष्मकनगर की राजकुमारी थी। उनके पिता का नाम भीष्मक और भाई रुकमन्द था। इस जनजाति के सिर के बाल आधुनिक हेयर कट जैसा सदियों से चले आये हैं। वे कारण बताते हैं कि भगवान कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से यह आधा बाल रुक्मन्द के साथ युद्ध में मुण्डन कर दिया था।
12 लाख की आबादी वाली मेघालय की खासी जातियाँ अपनी तीरन्दाज सेना को लेकर आज भी अलग पहचान रखती हैं। आज भी इस जनजाति के लोग तीरन्दाजी में अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। उनको नहीं मालूम एकलव्य कौन थे। सिर्फ इतना मालूम है कि उनके किसी पुरखे ने अपना अंगूठा गुरुदेव को दान किया था, इसलिये हम अंगूठे का प्रयोग करना पाप मानते हैं। नागालैण्ड का दीमापुर कभी हिडिम्बापुर नाम से जाना जाता था। यहाँ आज भी दीमाशा जनजाति है जो भीम की पत्नी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को अपना पूर्वज मानती है। असम के बोडो खुद को ब्रह्मा के पुत्र मानते हैं तो असम के ही कार्बी-आबलांग जनजाति के लोग रामायण के सुग्रीव को अपना पूर्वज मानते हैं। म्यांमार अर्थात् बर्मा से जुड़ने वाले जनपद उखरुल का पहले का नाम उलूपी रहा जो अर्जुन की पत्नी हुआ करती थी। यहाँ पर ताखुंल जनजाति है जो उलूपी को ही अपना पूर्वज मानती है। यह जनजाति मार्शल आर्ट में सिद्ध हस्त है और अलगाववादी गुट एनएससीएन में इसके कुछ युवक भी शामिल हैं। अर्जुन की दूसरी पत्नी चित्रांगदा मणिपुर के मैतेई समाज की थी। यही कारण है कि आज भी पूर्वोत्तर में अधिकांश जनजातियाँ मातृसत्तात्मक समाज को मानती हैं। मुगल और ब्रिटिश कालखण्ड की काली परछाई आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही, नहीं तो क्यों होता जानलेवा हमला दिल्ली में? (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार) - मार्कण्डेय पाण्डेय (दिव्ययुग- जनवरी 2015)
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