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संस्कृति है तो स्वतन्त्रता है

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indian culture

हाल ही में बैंकॉक में आयोजित 16 वें विश्‍व संस्कृत सम्मेलन में भारत की विदेशमन्त्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने कहा था कि संस्कृत स्वयं पवित्र है और जो उसके सम्पर्क में आता है उसको भी पवित्र बनाती है। लोगों के मस्तिष्क के शुद्धिकरण के लिए संस्कृत को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सुषमा ने इस अवसर पर कहा कि विदेश मन्त्रालय में भी संयुक्त सचिव (संस्कृत) का पद तैयार किया गया है। निश्‍चित ही विदेश मन्त्रालय का यह प्रयास सराहनीय है। क्योंकि दुनिया के कई देशों में संस्कृत को सीखने और समझने की कोशिश की जा रही है। सुनने में तो ये भी आ रहा है कि हॉलीवुड अभिनेता भी अपना उच्चारण सुधारने के लिए संस्कृत सीख रहे हैं। दूसरी ओर देवभाषा संस्कृत भारत में ही उपेक्षित है। हालांकि सरकार बदलने के साथ ही इस दिशा में परिवर्तन की उम्मीदें भी जगी हैं और विदेश मन्त्रालय की इस कोशिश को भी इसी से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

संस्कृत मात्र भाषा ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति का आधार भी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीय संस्कृति विश्‍व की सर्वोत्कृष्ट संस्कृति है। ऐसा कौन सा देश अथवा संस्कृति है जहाँ सर्वे भवन्तु सुखिन: की कामना की जाती है या फिर जहाँ पूरी पृथ्वी को एक कुटुम्ब की तरह समझा जाता है। आज इण्टरनेट के युग में दुनिया को ग्लोबल विलेज की संज्ञा दी जाती है। मगर हम भारतीय तो सहस्राब्दियों से ऐसा सोच भी रहे हैं और कर भी रहे हैं। उदारता, परोपकार, सहिष्णुता, स्वच्छता, शुचिता, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण आदि गुण हमारी उत्कृष्ट संस्कृति की ही ओर तो संकेत करते हैं।

हालांकि यह भी उतना ही सत्य है कि पाश्‍चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। आयातित दुर्गुण समाज में तेजी से पैठ बना रहे हैं। परस्पर प्रेम के स्थान पर द्वेष और स्वार्थ जैसे अवगुण पनप रहे हैं। वह सांस्कृतिक पतन ही तो था, जिसके कारण विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत में अपने पांव जमाए और लालच तथा तुच्छ स्वार्थों के कारण हमारे ही लोगों ने उनका सहयोग किया और मुट्ठी भर लोगों ने सदियों तक इस विशाल देश पर शासन किया।

खैर! स्वतन्त्रता सेनानियों का अथक संघर्ष और शहीदों का लहू रंग लाया। अन्तत: भारत 15 अगस्त 1947 को पराधीनता की बेड़ियों से आजाद हुआ। परतन्त्रता की काली रात समाप्त हुई और स्वतन्त्रता का नवप्रभात उदय हुआ। आज हम स्वतन्त्र हैं और अपनी सरकार स्वयं चुनते हैं। मगर क्या हम स्वतन्त्रता सेनानियों के उन सपनों को पूर्ण कर पाए हैं, जिनके लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। सम्भवत: नहीं क्योंकि आज भी देश का एक वर्ग ऐसा है, जिसे दो वक्त की रोटी उपलब्ध नहीं है। यह सिर्फ सरकार का काम है, ऐसा भी नहीं है। हमें एक बार फिर अपनी परोपकारी संस्कृति की ओर लौटना होगा, जहाँ प्राणिमात्र के कल्याण की, भोजन की चिन्ता की जाती है। यदि हम आज भी ऐसा करेंगे तो किसी का भी स्वजन अथवा पड़ोसी भूखा नहीं सोएगा।

अगस्त माह में हम स्वतन्त्रता दिवस के साथ रक्षाबन्धन का पर्व भी मनाएंगे। तो आइए! संकल्प लें कि भारतीय संस्कृति के सूत्र को और सुदृढ़ बनाएंगे। इससे न सिर्फ सामाजिक समरसता भी बढ़ेगी बल्कि हमारा राष्ट्र भी मजबूत होगा। स्वतन्त्रता दिवस के उपल्क्ष्य में बिस्मिल जी की पंक्तियाँ भी हमारा सदैव मार्गदर्शन करेंगी-
ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो, प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शान्ति-कान्तिमय हो।
अज्ञान की निशा में, दुःख से भरी दिशा में, संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो॥
तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो, तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो।
वह भक्ति दे कि ’बिस्मिल’ सुख में तुझे न भूले, वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो॥

अन्त में ‘दिव्ययुग’ के सभी सुधी पाठकों और सहयोगियों को स्वतन्त्रता दिवस एवं रक्षाबन्धन की बहुत-बहुत बधाई।• - वृजेन्द्रसिंह झाला (दिव्ययुग- अगस्त 2015)

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