दीपावली ज्योति पर्व है। यह अन्धेरे से प्रकाश की ओर चलने का पवित्र संकल्प है। बुराइयों की कालिमा को चीरकर अच्छाइयों का उजास फैलाने का प्रतीक है। काल के भाल पर जीवन ज्योति जलाने का शाश्वत अनुष्ठान है। निर्धनता और दरिद्रता के कोहरे को छांट कर श्री समृद्धि का वरण है और है निराशा व नाउम्मीदी के घटाटोप में आशा एवं चारों से ओर विश्वास की किरण। सचमुच दीपावली की छटा अनूठी और निराली है। यों तो हर पर्व व्यक्ति और समाज को नई ऊर्जा से भरता है, लेकिन दीपावली की बात ही कुछ और है। इसके आंचल में तो हर ओर सल्मा-सितारे जड़े हैं । इसकी चमक-दमक के आगे सब फीके पड़ जाते हैं। होली और दिवाली भारत के दो ऐसे पर्व हैं जिनकी तुलना दुनिया के किसी भी महान उत्सव से नहीं की जा सकती है। यदि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर श्रेष्ठ पर्वों की कोई सूची बनाई जाए तो दिवाली और होली का नाम नि:सन्देह काफी ऊपर होगा। इसलिए अपने देश की इस अनमोल धरोहर को उसके सही परिप्रेक्ष्य में समझें और उसकी न सिर्फ रक्षा करें बल्कि उसमें नए सन्दर्भ, नए अर्थ, नए मूल्य और नए लक्ष्य भी भरें।
सबसे पहले दीपावली के पौराणिक और ऐतिहासिक स्वरूप पर नजर डालें। कहते हैं भगवान श्रीराम ने अपने चौदह वर्ष के वनवास के दौरान विजयादशमी के दिन अन्याय और अनाचार के दानव रावण का वध किया। फिर लंका विभीषण को सौंप कर वे अनुज लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता सहित अयोध्या को वापस लौटे। इस खुशी के मौके पर अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाकर अपने राजा राम का स्वागत किया। तभी से परम्परा चली आ रही है। अमावस की स्याह रात में पूरे उत्साह और आवेग से धरती सितारों से सज जाती है। हर ओर चिराग ही चिराग, हर ओर रोशनी ही रोशनी, हर तरफ नूर ही नूर। ऐतिहासिक सन्दर्भ यही है कि दीपावली मनाने का औचित्य तभी है जब अन्याय, अनर्थ, दुराचार और दमन का प्रतिकार करते हुए उस पर विजय प्राप्त कर लें। राम ने वनवास लिया ही इसलिए था कि रावण का अन्त किया जा सके। इसलिए दीपावली हमें इस बात की याद दिलाती चलती है कि अपने समय के रावण का हम पहले अन्त करें।
आज के युग के रावण कौन हैं? आज सबसे प्रबल राक्षसी प्रवृत्तियाँ क्या हैं? राष्ट्रीय जीवन पर नजर डालें तो भ्रष्टाचार सबसे बड़ा दानव बनकर सामने आता है। आज इस बात की जरूरत है कि आम जनता इस राक्षसी प्रवृत्ति के खिलाफ शंखनाद करे और उसे जड़-मूल से उखाड़ फेंके। यानि भ्रष्टाचार की कब्र पर जब हम सदाचार के दीप जलाएंगे, तभी दीपावली सही मायनों में राष्ट्रीय पर्व होगा। इसी तरह सामाजिक स्तर पर गौर करें तो साम्प्रदायिकता, जातिवाद, दहेज-हत्या और बलात्कार जैसी घोर दानवी प्रवृत्ति के नमूने के रूप में नजर आते हैं। घर-घर में दीप तभी जलेगा जब इन घोर दानवीय प्रवृत्तियों की आग से घर बचे रहें। इस आग में जलकर हम अपने वतन को टुकड़ों में बांट चुके हैं। अब इस दानव को फिर से सिर न उठाने देने का संकल्प लें, तभी सामाजिक जीवन में सहयोग और भाई-चारे का दीप जलेगा। इसी तरह जिस दीप को जलाकर हम ज्योति, अग्नि और रोशनी को नमन करते हैं, क्या उसकी आग में बहुओं को होम कर देना दीपावली का अपमान नहीं है? इसकी कालिमा से अपने समाज को बचाएं। बलात्कार तो और भी बड़ा दानव है। भगवान श्रीराम ने उस रावण का अन्त किया जिसने पवित्रता की मूर्ति सीता का अपहरण कर लिया था और उसका सती धर्म भंग करना चाहता था। आज हमारे समाज में सीताओं का अपहरण और बलात्कार करने वालों की तादाद बड़ी तेजी से बढ रही है। तो आइए ! इन रावणों के अन्त का भी हम संकल्प लें।
ऐतिहासिक रूप से दीपावली बिछुड़े हुए अपनों के पुनर्मिलन का सुखद उच्छवास है। वनवास की अवधि पूरी हुई तो कौशल्या को राम मिले, सुमित्रा को लक्ष्मण मिले, विरहणी पत्नी उर्मिला को पति मिले, अयोध्यावासियों को राजा राम मिले और भरत को अपने आराध्य राम मिले।
यह इस बात का प्रतीक है कि हम पूरी लगन और पूरे धैर्य से कर्त्तव्य पथ पर डटे रहें और उम्मीद की डोर पकड़े रहें तो हर्षोल्लास का दीप जलाने का सुनहरा मौका आता ही है। आज के जीवन में विभिन्न कारणों से पति-पत्नी में विच्छेद, पिता-पुत्र में वैमनस्य, भाई-भाई में विरोध, मां-बेटे में विच्छेद बढता ही जा रहा है। हजारों बच्चे व हजारों नर-नारी अपने घरों को छोड़े जा रहे हैं, कहीं वनवास काट रहे हैं। पुनर्मिलन का यह पर्व दीपावली हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम गिले-शिकवों को भूलकर, दूर कर फिर से अपने नीड़ में लौट जाएं। अपनों के गले से लिपट जाएं। यह एक सामाजिक मुहिम होगी। स्वार्थ को अपनाकर अपनों को बिछुड़ने न दें, बल्कि बिछुड़े हुए अपनों का स्वागत करें, जीवन-दीप में स्नेह का तेल भरें।
अब देखें कि हम सब आज दीपावली किस तरह मनाते हैं। मौटे तौर पर यह रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियाँ सजा लेने, कानफाडू पटाखे छोड़ लेने, एक-दूसरे के घर मिठाइयों और उपहारों की खेप पहुंचा देने और जुआ खेल लेने का पर्व बन कर रह गया है। पारम्परिक रूप से दीपावली के साथ स्वच्छता, सफाई, सौभ्यता और आस्था का जो भाव होता था, वह आज तिरोहित हो गया है। गांवों में अब भी दीपावली का पारम्परिक स्वरूप काफी हद तक बरकरार है। विजयादशमी से लेकर दीपावली तक पूरे गांव की सफाई का अभियान सा चलता है। घर-घर, गली-गली गन्दगी दूर करने की मुहिम चलती है। लक्ष्मी के स्वागत का पवित्र भाव होता है। आज शहरों में देखें तो हमें गन्दगी के साम्राज्य के बीच कभी मलेरिया का भय और कभी डेंगू के भूत मण्डराते नजर आते हैं। दीवाली तो पर्व ही इस बात का है कि अपने घर-नगर, वातावरण पर्यावरण को साफ-सुथरा रखें। तो दीपावली का यह महान सन्देश है कि हम सफाई और स्वच्छता को एक राष्ट्रीय और सामाजिक अभियान बनाएं। इसी तरह देखें कि दीपावली किस तरह बल्वावली और पटाखावली में बदल गई है। दिवाली में पारम्परिक रूप से घी और तेल के दीये जलाए जाते थे। गांवों में दिवाली का अब भी यही ढंग प्रचलित है। तेल और घी के जलने से जो एक पवित्र खुशबू फैलती है उसमें आस्था और धार्मिकता के भाव सहज ही प्रस्फुरित होते हैं। गांवों में दिवाली पर दीये की कतारों को देखें तो उसकी महीन रोशनी में एक अलग ही रहस्यात्मक, आशावादी अनुभूति होती है। यह बात चकाचौंध करने वाली लाइट में नहीं होती। फिर एक रात में जिस तरह से लाखों करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ दिए जाते हैं और जिनकी धमक से सारा क्षेत्र दहलता रहता है, वह एक विकृति से ज्यादा कुछ नहीं।
हर साल अग्नि-शमन कर्मचारी दिवाली को रात भर आग बुझाने और जान-माल बचाने में लगे रहते हैं। कितने ही घर उस दिन जल जाते हें, कितने ही लोगों की जानें चली जाती हैं, कितनी ही आंखों की ज्योति चली जाती है और कितने ही हृदय-रोगी मौत के मुंह में चले जाते हैं। आखिर दिवाली मनाने का यह ताण्डव स्वरूप क्यों हो गया है? सरकार चाहे तो इस पटाखा उद्योग को काफी हद तक नियन्त्रित कर सकती है। घातक और बमनुमा पटाखों को बनाने की इजाजत ही न मिले। ऐसे पटाखे बनाने और बेचने वालों पर पाबन्दी लगे और उल्लघंन करने वालों को सजा मिले। दीपावली में एक खास किस्म की सौम्यता और मधुरता होनी चाहिए। उसे इस तेज धूम-धड़ाके और शोर में डुबो देने से भला क्या लाभ? इसी तरह दीपावली के साथ जुआ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो कभी जुआ नहीं खेलता वह भी दिवाली की रात अपने हाथ आजमा लेता है। कुछ लोगों के लिए तो दीपावली का मतलब ही सिर्फ जुआ है। दिवाली के कोई महीना भर पहले से ही कौड़ियों और ताश के पत्ते के जरिए नुक्कड़ों, घरों और क्लबों में जुए का दौर शुरू हो जाता है। एक अन्ध विश्वास है कि दिवाली की रात जुए में जो जीत गया, वह सालों भर मालोमाल रहेगा। जुए के खेल में कितने घर तबाह हो जाते हैं, इसका अन्दाजा लगाना बड़ा मुश्किल है। इसी जुए के आधुनिक रूप विभिन्न व्यावसायिक लाटरियों और शेयर्स के रूप में चल रहे हैं। - आचार्य डॉ.संजय देव (दिव्ययुग-अक्टूबर 2014)
From Darkness, Lead Me to Light | Deepawali | Holy Resolve | Eternal Ritual | Poverty and Meanness | Ray of Confidence | Great Celebration | Mythological and Historical | Injustice and Incest | Support in Life | Kidnapping and Rape | Good Faith and Faith | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Mohgaon - Kachnal Gosain - Jandiala | दिव्ययुग | दिव्य युग |