खाने-पीने की इच्छा स्वाभाविक है, परन्तु यह जरूरी नहीं कि सब कुछ हर समय खाया जाए। अपितु दूरदर्शिता की मांग है कि हित-अहित का ध्यान रखते हुए ऋत-मित भोजन लिया जाए। वैसे तो धन, भोजन, कामभोग की सारी इच्छायें किसी की भी पूरी नहीं हो सकतीं। अत: संयम, व्यवस्था, मर्यादा में ही सुख है।
वस्तुत: सुख-दु:ख प्राप्त करना बहुत कुछ हमारे विवेक पर निर्भर है। हम चाहें तो सुख अर्जित कर सकते हैं या दु:ख। यह सब हमारे विचारों और जीने के ढंग पर अधिक निर्भर है। इसीलिए एक व्यक्ति एक कार्य में सुख अनुभव करता है और दूसरा इसमें दु:ख मानता है।
धर्म और सुख- पूर्व विवेचन से यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि दिनचर्या और जीवनचर्या की व्यवस्था ही सुख का आधार है। इनकी व्यवस्था को व्यस्थित बनाना ही धर्म है। धर्म शब्द धृ धातु से बनता है। अत: उन्हीं बातों का नाम धर्म है, जिनके धारण-पालन से सुख होता है। वैशेषिक दर्शन 1.1.2 एवं महाभारत 12,110,10-11,251, 4.254,9 आदि के वचनों से भी यही प्रमाणित होता है। मनुस्मृति 6.92 के प्रसिद्ध धृति:-क्षमा वाले धर्मलक्षणों में उन्हीं बातों का ही संकेत है, जिनसे दिनचर्या ओर जीवनचर्या व्यवस्थित होती है। यह ठीक है कि शास्त्रों में धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, पर आचार: परमो धर्म: (मनु. 1.108) ही मुख्य है। अत: पारस्परिक व्यवहारों को व्यवस्थित बनाकर जन-जन को सुखी बनाने वाले सत्य, स्नेह, ईमानदारी आदि आचार-व्यवहार ही धर्म है।
सफलता और सुख- प्रत्येक व्यक्ति जैसे अपनी चाहना की पूर्ति पर सुख अनुभव करता है, वैसे ही हर एक की यह कामना होती है कि मेरा यह कार्य सफल हो, क्योंकि तभी वह सुखी हो सकता है। कार्य कामना का मूर्तरूप होता है। कार्य के असफल होने पर व्यक्ति दुखी, निराश, उदास हो जाता है। कई वार तो असफल होने पर हताश होकर व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेता है।
प्रत्येक का यह अनुभव है कि किसी कार्य में सफलता तभी प्राप्त होती है, जब व्यक्ति उस क्षेत्र के अनुसार सही ढंग अपनाता है, अन्यथा सारा किया कराया धन, श्रम, शक्ति का व्यय व्यर्थ होकर रह जाता है। जैसे कि रसोई के ढंग से ही सभी की रसोई तैयार होती है और कृषि के प्रक्रिया को अपनाने से ही सबको अच्छी फसल प्राप्त होती है।
सुख-दु:ख के भेद और उपाय- अनुकूल-प्रतिकूल अनुभूति का नाम ही सुख-दु:ख है और अनुभव का सम्बन्ध शरीर व मन से अलग-अलग तथा इन दोनों से इकट्ठा भी होता है। इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति या वियोग आदि का अनुभव या अनुभव का फल जिस शरीर या मन पर पड़ता है, वह सुख-दु:ख उसी का कहलाता है। हाँ, सुख-दु:ख किसी क्रिया का नाम नहीं हैं, क्योंकि जो क्रिया आज सुख का कारण है, वही कल दु:ख दे सकती है। जैसे कि गर्मी में वस्त्र की न्यूनता या हीनता सुखद होती है, तो वही ठण्ड में दु:खद बन जाती है। अत: सुख-दु:ख अनुभव पर निर्भर है।
दु:खों को दूर करने और सुख प्राप्ति के उपाय पर जब हम विचार करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि दु:ख अनेक प्रकार के हैं। उनमें से कुछ दूर हो सकते हैं और कुछ सुख प्राप्ति के लिए अनिवार्य हैं। जैसे कि भोजन के आनन्द के लिए भूख का दु:ख या भोजन पकाने का कष्ट। हाँ, अनेक दु:ख व्यक्ति के अपने अज्ञान, असंयम, अदूरदर्शिता, स्वार्थपरता आदि के कारण होते हैं। इसीलिए संसार दु:खमय बना हुआ है, इनको हटाना चाहिए और ये काफी मात्रा में हट भी सकते हैं। दु:ख भी एक रोग है, जो कि अज्ञान आदि के कारण होता है। अत: उस-उस कारण को दूर कर देने से वह हट सकता है। (क्रमश:) - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग - सितम्बर 2014)
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