निम्न मन्त्र में सब भूतों में आत्म तत्व को देखने का उल्लेख है-
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति॥163
अर्थात जो सारे चराचर जगत् को अपने में ही देखता है और सारे चराचर में अपने को देखता है, वह ऐसा करने के कारण कभी सन्देह में नहीं पड़ता है।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः। जो सबको अपने समान समझता है, वह वस्तुतः पण्डित या तत्वज्ञानी है।
हृदय में राग-द्वेष की अनुभूति ही सबमें ब्रह्म का दर्शन कराती है। मैं सब जैसा हूँ तथा सब मेरे जैसे हैं, यह तात्विक ज्ञान तत्ववेता या आत्मज्ञानी पुरुषों को ही होता है। यह अनुभूति सामान्य स्तर के मनुष्य को ऊपर उठाते हुए ब्रह्मवेत्ता के पद पर प्रतिष्ठित करती है। इसका फल यह होता है कि वह तत्त्वदर्शी व्यक्ति राग-द्वेष, भय-शोक और सन्देह की स्थिति से ऊपर उठ जाता है। उसे किसी प्रकार का सन्देह, अविश्वास, घृणा या शोक आदि के विचार पीड़ित नहीं करते हैं।
निम्न मन्त्र में विश्वबन्धुत्व की भावना का उल्लेख है-
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥164
अर्थात् जिस अवस्था में ज्ञानवान् व्यक्ति के लिए सारा चराचर जगत् आत्मरूप हो जाता है, उस अवस्था में एकत्व का दर्शन करने वाले व्यक्ति को मोह और शोक कहाँ होता है? अर्थात् नहीं होता है। संसार के सभी मनुष्यों से एकात्मता की अनुभूति करना, उनसे प्रेम रखना, उनके सुख-दुःख में सहभागी बनना- यह विश्वबन्धुत्व है। ऐसे व्यक्तियों का नैतिक स्तर अत्यधिक ऊंचा उठा हुआ होता है। वे किसी को धोखा नहीं दे सकते तथा किसी को पीड़ित नहीं कर सकते।
जहाँ श्रद्धा तथा आस्तिकता है, वहाँ संसार की सभी वस्तुएँ प्राप्य हैं। श्रद्धा से प्रवृत्ति होती है तथा आस्तिकता से उसमें शक्ति आती है। आस्तिकता श्रद्धारूपी वृक्ष को सजीव रखने में खाद या पानी का काम करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में श्रद्धा को काम की माता कहा गया है। श्रद्धा सफलता देती है, कामनाएँ पूर्ण करती है और अभीष्ट वस्तु को प्राप्त कराती है-
श्रद्धा कामस्य मातरं हविषा वर्धयामसि॥165
नैतिक गुण विकसित करने के लिए दुर्गुणों का त्याग तथा सद्गुणों को धारण करना आवश्यक है। निम्न मन्त्रों में सद्गुण धारण तथा दुर्गुण त्याग की कामना की गई है-
ओ3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आसुव॥166
अर्थात् हे संसार के उत्पादक देव ! आप हमारे सब दुर्गुणों तथा दुर्व्यसनों को दूर कीजिए तथा जो कल्याणकारक सद्गुण आदि हैं, वे हमें प्रदान कीजिए अर्थात् उनको हमारे अन्दर प्रेरित कीजिए।
परि माग्ने दुश्चरिताद् बाधस्वा मा सुचरिते भज।
उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृताँ अनु॥167
अर्थात् हे अग्नि रूप परमात्मन् ! मुझे दुर्गुणों से हटाइये तथा सद्गुणों की ओर लगाइये। उत्कृष्ट तथा सुन्दर आयु से मैं अमरत्व की ओर प्रवृत्त होऊं।
अति निहो अति स्त्रिधोऽत्यचित्तिमत्यरातिमग्ने।
विश्वा हि अग्ने दुरिता सहस्वाथास्मभ्यं सहवीरां रयिं दा॥168
अर्थात् सर्व विघ्ननिवारक प्रभो ! असत्य आदि गिरावट के साधनों को दूर कर दो। हमारी चंचल चित्तवृत्तियों तथा कुत्सित आचारों को दूर करो। कंजूसी के
भाव को हमारे जीवन से निकाल दो। हमारी सभी बुराइयों को दूर करो। हमें वीर सन्तान तथा धन सम्पत्ति से युक्त करो।
निम्न मन्त्र में भी अपने दोषों को दूर करने का उपदेश किया गया है-
लोकं पृण छिद्रं पृणाथो सीद ध्रुवा त्वम्॥169
हे मनुष्य ! तू अपने जीवन को पूर्ण कर। तेरे जीवन में जो त्रुटि है अथवा छिद्र है उसे पूर्ण कर और इस शरीर में स्थिरतापूर्वक निवास कर।
निम्न मन्त्र में सन्मार्ग पर चलने की भावना व्यक्त की गई है-
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते मन उक्तिं विधेम॥170
अर्थात् हे अग्नि रूप दिव्य गुणयुक्त परमात्मन्! तुम हमारे सारे कर्मों को जानते हो। हमें ऐश्वर्य के लिए सन्मार्ग से ले चलो। तुम हमारे अन्दर से कुटिल पापों को दूर करो। हम तुम्हें बार-बार प्रणाम करते हैं।
प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसम्।
येन विश्वाः परि द्विषो वृणोक्ति विन्दते वसु॥171
अर्थात् कल्याण के साथ जाने योग्य जहाँ विनाश का भय नहीं है, ऐसे मार्ग को हम प्राप्त होते हैं, जिससे सभी शत्रु दूर होते हैं तथा ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
प्रत्येक मनुष्य की कामना रहती है कि वह जीवन में ऐश्वर्य प्राप्त करे। ऐश्वर्य प्राप्ति के दो साधन हैं- सन्मार्ग और कुमार्ग। निकृष्ट साधनों से भी धन प्राप्ति होती है और अपेक्षाकृत कम समय में। परन्तु वह धन प्राप्ति सुखद और स्थायी नहीं होती है। इसके विपरीत सन्मार्ग तथा उत्तम साधनों से भी ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। परन्तु यह मार्ग कुछ कठिन है तथा समय भी इसमें अधिक लगता है। परन्तु उत्तम साधनों से प्राप्त लक्ष्मी सुखद तथा स्थायी होती है तथा यह निरन्तर बढती जाती है। अतः मनुष्य की पूर्ण श्रीवृद्धि तथा सफलता के लिए आवश्यक है कि वह पापों और कुटिल विचारों से बचे।
सन्मार्ग पर चलने से शत्रुओं का भी नाश होता है। सन्मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति स्वयं किसी से शत्रुता का भाव नहीं रखेगा। अतः उससे शत्रुता या द्वेष रखने वाले व्यक्ति स्वयं कम या समाप्त हो जाएँगे। सन्मार्ग से जीवन में ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। यह ऐश्वर्य दो प्रकार का हो सकता है- कीर्ति के रूप में या धन के रूप में या दोनों रूपों में।
वैदिक संस्कृति में शुद्ध आचरण का अत्यधिक महत्त्व है। वैदिक आचार्य स्वयं आचारवान् होकर अपने शिष्यों को आचार की शिक्षा देते थे। जो स्वयं आचारवान् होता हुआ आचार की शिक्षा दे, उसे ही आचार्य कहा गया है-
आचार्यः कस्मात्? आचार्य आचारं ग्राह्यति॥172
फिर भी मनुष्य के अल्पज्ञ होने से त्रुटियाँ सम्भव हैं। अतः वैदिक आचार्य अपने शिष्यों को सावधान करते हुए कहते हैं-
यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि।
यान्यस्माक सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि।173
अर्थात् जो हमारे अनिन्दित कर्म तथा अच्छे आचरण हैं, उन्हीं का तुम सेवन करो, इससे विपरीत का नहीं।
शिष्य के आचार की शुद्धि के बारे में आचार्य कहता है-
वाचं ते शुन्धामि प्राणं ते शुन्धामि चक्षुस्ते शुन्धामि श्रोत्रं ते शुन्धामि नाभिं ते शुन्धामि मेढ्रं ते शुन्धामि पायुं ते शुन्धामि चरित्रांस्ते शुन्धामि॥174
अर्थात् मैं विविध शिक्षाओं से तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ, तेरे प्राण को शुद्ध करता हूँ, तेरे नेत्र को शुद्ध करता हूँ, तेरे नाभि को पवित्र करता हूँ, तेरे प्रजननांग को शुद्ध करता हूँ, तेरे गुदेन्द्रिय को पवित्र करता हूँ और तेरे चरित्र अर्थात् समस्त व्यवहारों को पवित्र शुद्ध धर्मानुकूल करता हूँ।
मनस्त आ प्यायतां वाक्त आप्यायतां प्राणस्त आ
प्यायतां चक्षुस्त आप्यायता श्रोत्रं त आप्यायताम्।
यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्त आप्यायतां निष्ट्यायतां
तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः॥175
अर्थात् तेरा मन सत्कर्म के अनुष्ठान से बुद्धि को प्राप्त हो, तेरा प्राण बलादि युक्त हो, तेरी दृष्टि निर्मल हो, तेरा कर्ण सद्गुणों से युक्त हो, तेरा क्रूर स्वभाव दूर हो, तेरा निश्चय पूरा हो, तेरा समस्त व्यवहार शुद्ध हो, सब दिनों के लिए तुझे सुख प्राप्त हो। (क्रमशः)
सन्दर्भ सूची
163. ईशोपनिषद - षष्ठ मन्त्र
यजुर्वेद संहिता- 40.6
164. यजुर्वेद संहिता- 40.7
इशोपनिषद्- सप्तम मन्त्र
165. तैत्तिरीय ब्राह्मण- 2.8.8.8
166. यजुर्वेद संहिता- 30.3
167. यजुर्वेद संहिता- 4.28
168. यजुर्वेद संहिता- 27.6
169. यजुर्वेद संहिता- 12.54
170. यजुर्वेद संहिता- 5.36
171. यजुर्वेद संहिता- 4.29
172. निरुक्त- 1.2
173. तैत्तिरीयोपनिषद- 7.11
174. यजुर्वेद संहिता- 6.14
175. यजुर्वेद संहिता- 6.15 - आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत (दिव्ययुग- जनवरी 2016)
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