ओ3म् अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्।
जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनि:॥ ऋग्वेद 1.164.30॥
अन्वय- पस्त्यानाम् मध्ये ध्रुवम् जीवम् एजत् तुरगातु अनत् (अहं ईश्वर:) आशये। जीव: मृतस्य स्वधाभि: चरति। अमर्त्य: मर्त्येन सयोनि: भवति।
अर्थ- (पस्त्यानाम् मध्ये) प्रकृति से बने हुए जड़ घरों के मध्य में (ध्रुवम् जीवम्) न बदलनेवाले जीव को (एजत्) चलायमान करता हुआ (तुरगातु अनत्) विना विलम्ब के समय पर सबको अनुप्राणित करता हुआ (आशये) मैं ईश्वर अन्तर्यामी-रूप से सोता अर्थात् ठहरता हूँ। (जीव:) जीव (मृतस्य स्वधाभि:) चेतनारहित जड़जगत् की प्रकृतियों की सहायता से (चरति) गतियुक्त होता है। (अमर्त्य:) न मरनेवाला जीव (मर्त्येन) मरण-धर्मवाले शरीर के साथ (सयोनि:) जन्म लेने-वाला (आ) होता है।
व्याख्या- श्री सायणाचार्य इस मन्त्र के भाष्य के आदि में लिखते हैं- अनेन देहस्य असारता जीवस्य नित्यत्वं च प्रतिपाद्यते। अर्थात् इस मन्त्र में देह की असारता और जीव का नित्यत्व बताया गया है। इससे वैदिक धर्म के इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों नित्य हैं।
‘शये‘ उत्तमपुरुष का एकवचन है-‘‘मैं सोता हूँ, मैं निवास करता हूँ।‘‘ इस मन्त्र द्वारा ईश्वर अपनी व्यापकता दर्शाता है। अत: ‘शये‘ को व्यत्यय करके ‘शयते‘ करना अनावश्यक है। प्रत्येक देह में तीन चीजें पाई जाती हैं। प्रथम भौतिक शरीर जो जड़ होने से स्वयं कुछ नहीं कर सकता, दूसरा चेतन जीव जो शरीर को चलाता है। परन्तु यह जीव भी स्वयमेव प्रत्येक गति पर अधिकार नहीं रखता। अल्प होने के कारण वह एक और महती शक्ति से प्रेरणा चाहता है। वह शक्ति है परमेश्वर, जो कह रहा है कि (शये) मैं निवास करता हूँ। जिस बात को ‘द्वा सुपुर्णा‘ मन्त्र में रूपक के रूप में वर्णित किया है उसी को सीधी भाषा में इस मन्त्र में बताया गया है। मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों के जितने शरीर हैं वे सब ‘पस्त्य‘ घर हैं, अर्थात् चेष्टा, इन्द्रिय और अर्थ का आश्रय हैं। जीव बिना प्राकृतिक शरीरों की सहायता के कुछ नहीं कर सकता। जो गति होती है वह शरीर में या शरीर की सहायता से होती है। जगत् के दो भाग किये गए हैं- स्थावर और जंगम। अर्थात् न चलनेवाला और चलनेवाला, अचर और चर। परन्तु अचर जड़ शरीर चर-जीव से चरत्व को ग्रहण करके स्वयं चर जैसा बन जाता है। मेरे हाथ में जड़ कलम है। इस कलम में चरत्व नहीं, यदि मैं इसे बक्स में बन्द करके अपने कमरे में रख दूँ तो सौ वर्ष पश्चात् भी वह वहीं की वहीं मिलेगी, एक इंच भी आगे न बढेगी, परन्तु जब मैं अपना चरत्व इसे उधार दे देता हूँ तो यही अचर कलम कागज के सफे पर बड़ी तेजी के साथ चलती है। यह न अंग्रेजी पढी है, न हिन्दी, न संस्कृत। परन्तु इसकी जिह्वा से वाक्य-के-वाक्य ऐसे निकलते हैं मानो यह कोई विदुषी है। चर और अचर का परस्पर सहयोग कैसे होता है, इसके लिए सांख्यकारों ने एक दृष्टान्त दिया है। कहते हैं कि एक लंगड़ा है, चल नहीं सकता। दूसरा अन्धा है देख नहीं सकता। दोनों यात्रा करने में असमर्थ हैं। लंगड़ा बोला, ‘‘भाई अन्धे, तेरे पैर हैं, आँखें नहीं। मेरे आँखें हैं, पैर नहीं। तू मुझे कन्धे पर बिठा ले। मैं मार्ग देखता चलूँगा। तू मेरे बताये मार्ग पर पैरों से चलना। हम दोनों मिलकर यात्रा कर सकेंगे।‘‘ जीव के आँखें हैं, पैर नहीं। प्रकृति के पैर हैं, आँखें नहीं। मेरी कलम हिन्दी नहीं जानती। वह कागज पर दौड़ सकती है यदि कोई मार्ग-प्रदर्शक हो। मैंने अपना ज्ञान कलम को दिया। कलम ने अपनी चाल मुझे दी। दोनों ने मिलकर लेख पूरा कर दिया। समस्त चराचर की सम्पूर्ण चेष्टाओं की कहानी लंगड़े-अन्धे के सहयोग जैसी है। इसलिए वेदमन्त्र कहता है कि जीव है तो ध्रुव परन्तु शरीर में आने से वह एजत् अर्थात् गतिवाला हो जाता है। सांख्यदर्शन में कपिल मुनि ने जगत् के विकास का यह क्रम दिया है- स्वधा अर्थात् प्रकृति से जब प्रपंच का आरम्भ होता है, तो प्रकृति अपने को महत्तत्व (महान्) में परिणत करती है अर्थात् प्रकृति का पहला परिणाम प्रकृति और जीव का सम्पर्क है। लंगड़ा अन्धे की ओर और अन्धा लंगड़े की ओर आकर्षित हो रहा है। यह महान् कार्य है अर्थात् जो महती सृष्टि बननेवाली है उसका यह एक महान् आरम्भ है। लंगड़े के अन्धे की गर्दन पर सवार होते ही अन्धे की आँखों में रोशनी सी आने लगती है। इसी प्रकार महत्तत्व का अगला क्रम है अहंकार। प्रकृति जड़ होने से उसमें अहं-भाव का लेशमात्र भी न था। परन्तु जब लंगड़ा अन्धे की गर्दन पर सवार हो गया अर्थात् जीव ने प्राकृतिक शरीर को ‘पस्त्य‘ अर्थात् घर बना लिया तो शरीर के हर एक अवयव में ‘मैं‘ का भाव उत्पन्न हो गया। पैर में काँटा लगा नहीं और पैर चिल्लाया नहीं कि हाय मुझे घायल कर दिया। आँख कहने लगी मैं देखती हूँ। कान कहने लगा मैं सुनता हूँ। हाथ कहने लगा मैं देखता हूँ। जो प्रकृति ‘मैं-भाव‘ से शून्य थी वह ‘मैं‘ ही ‘मैं‘ चिल्लाती है- यह है अहंकार। पंचतन्मात्रा और पंचभूत भी तो इसी सहयोग के परिणाम हैं। आप पंचभूतों का नाम अलग-अलग गिनाते हैं, उनके गुण भी बताते हैं, परन्तु क्या आपने सोचा है कि गुण क्या चीज है? ‘गन्धवती‘ पृथिवी। ‘गन्धवती‘ का क्या अर्थ? क्या विना नासिका के भी गन्ध का कुछ अर्थ होता है? और क्या विना आत्मा के नासिका के सूँघने का कोई अर्थ है? यदि जीवात्मा का उस पाञ्चभौतिक गोलक से सम्पर्क न होता जिसको आप नाक कहते हैं तो गन्ध शब्द निरर्थक होता और ‘गन्ध‘ के निरर्थक होने से ‘गन्धवती‘ शब्द भी निरर्थक ही था। पृथिवी तो थी, परन्तु कैसी थी? उसका लक्षण क्या था या गुण क्या था, इसका बोध तो जीवात्मा के सम्पर्क से ही हुआ। जड़ साइकिल पर जब आप चढते हैं, तो साइकिल दौड़ने लगती है। आप जब इत्र को सूँघते हैं तो इत्र का सुगन्ध उपलब्ध और अवगत हो जाता है। यह सम्पर्क जगत् के विकास की अन्तिम काष्ठाओं तक विद्यमान रहता है। जब वीर्य का जड़ भाग चेतन आत्मा से संयुक्त होता है तो विकास की गति का आरम्भ हो जाता है। वह माता के गर्भ में ही नहीं अपितु जन्म के पश्चात् भी बराबर काम करता रहता है। जो लोग समझते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता वे जीव के महत्व को नहीं समझते। अण्डे में स्थूल शरीर चाहे न हो परन्तु भावी शरीर के समस्त अङ्ग सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहते हैं। अन्धा स्वयं नहीं चल रहा, लंगड़े की आँखों की सहायता से चल रहा है, अत: जीव के लिए ‘एजत्‘-‘चलानेवाला‘ शब्द का प्रयोग हुआ है।
अब एक और प्रश्न उठता है। क्या पुरुष और प्रकृति अर्थात् जीव और शरीर से ही काम चल जाएगा? क्या लंगड़ा और अन्धा मिलकर समस्त सृष्टि के समस्त प्रपंच की व्याख्या कर सकेंगे? ऐसा तो सम्भव प्रतीत नहीं होता। लंगड़े और अन्धे दोनों की शक्तियाँ परिमित हैं। चींटी के शरीर में भी लंगड़े और अन्धे का सहयोग है, हाथी के शरीर में भी, साधारण बच्चे के शरीर में भी और एक ऋषि के शरीर में भी। वे स्वयं भी अल्प हैं और उनकी सामूहिक शक्तियाँ भी अल्प हैं। दोनों को एक तीसरी शक्ति की आकांक्षा है जो उनके संयोग और वियोग को नियमित और शासित कर सके। न तो संयोग ही केवल लंगड़े और अन्धे के अधीन है, न वियोग ही। सहयोग की इच्छा अवश्य है। लंगड़ा अन्धे की गर्दन को छोड़ना नहीं चाहता और अन्धे को भी कुछ मजा आ रहा है, क्योंकि लंगड़े की आँखों का प्रकाश उसको मिल रहा है परन्तु वे स्वाधीन नहीं हैं। वेदमन्त्र में कहा है ‘अनत् शये तुरगातु‘- इस संयोग-वियोग को समुचित और यथेष्ट रूप देने के लिए मैं ईश्वर इन दोनों में व्यापक होकर इन दोनों को अनुप्राणित करता हूँ। साधारण पाठकगण शायद ‘अनत्‘ का अर्थ न समझें। यह शब्द ‘अन् प्राणने‘ धातु से सिद्ध होता है। पाँच प्राण तो सबने सुने हैं। प्राण=प्र+आन्, अपान=अप+आन, समान=सम्+आन,व्यान=वि+आन, उदान=उद्+आन। जिस प्रकार शरीर के संचालक वायु को जीवात्मा प्राण, अपान आदि में विभाजित कर देता है, उसी प्रकार परमात्मा भी मातरिश्वा आदि जगत्व्यापी शक्तियों को अनुप्राणित करता रहता है। इसलिए ईश्वर को देवों-का-देव महादेव कहा है-
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपं बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥ (कठोपनिषद् 2.2.9,10)
इन दोनों श्लोकों का तात्पर्य यह है कि जैसे एक अग्नि या एक वायु भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार जगदीश्वर एक होता हुआ भी भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न जैसा प्रतीत होता है।
इसी को दूसरे श्लोक में और स्पष्ट किया है-
न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ॥ (कठोपनिषद् 2.2.5)
अर्थ- जीव केवल प्राण और अपान के सहारे नहीं जीते। इन दोनों को आश्रय देनेवाली एक और शक्ति है जिसके सहारे प्राणी जीते हैं।
यही शक्ति ईश्वर है जो ‘अनत् शये‘ सबको अनुप्राणित करती हुई स्थित है। ‘तुरगातु‘1 का अर्थ है तुर+गातु2 (जल्दी जाने वाला) अर्थात् ईश्वर की अनुप्राणित करनेवाली शक्ति के संचार में कोई बाधा नहीं पड़ती। वह शीघ्र ही हर स्थान पर कार्य करती है, क्योंकि वह सर्वत्र शयन करती है, सर्वव्यापक हैं।
मन्त्र के अन्तिम दो चरणों में द्वन्द्व दिये हैं- जीव और मृत तथा अमर्त्य और मर्त्य। जीव अमर्त्य है, इसका कभी नाश नहीं होता, यह अमृत है। अमृत का उलटा है मृत या मर्त्य अर्थात् शरीर। शरीर की विचित्रता यह है कि वह एक क्षण भी एक अवस्था में नहीं रहता। जीव अविनाशी है। गीता के सबसे उत्कृष्ट श्लोक तो ये ही हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥ (भगवद्गीता 2.23,24)
अर्थ- जीवात्मा को शस्त्र काटते नहीं, आग जलाती नहीं, जल गलाते नहीं, हवा सुखाती नहीं। न यह जीव काटा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न गलाया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है। ‘यह नित्य है‘ हर कहीं जा सकता है। ठहरा हुआ है, अचल है और सनातन (सदा रहनेवाला) है।
इसके विपरीत शरीर है। छोटी-सी सुई भी इसको काटने में समर्थ है। आग की छोटी-सी चिनगारी इसको जला सकती है। यह गल भी सकता है और सूख भी सकता है। यह मृत भी है और मर्त्य भी। न अचल या स्थाणु है, न सनातन।
ऐसे दो सर्वथा भिन्न स्वभाववाले चेतन जीव और अचेतन शरीर का ‘सयोनि:‘ (संपृक्त) होना संसार की जटिलतम समस्याओं में से एक है। सम्पर्क भी ऐसा कि अत्यन्त घनिष्ठ। दार्शनिक संसार में यह एक क्लिष्टतम प्रश्न रहा है। बहुत-से दार्शनिक तो इस प्रश्न पर इतने मुग्ध हो जाते हैं कि वे अपने अमृतत्व को भूलकर जीव के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर बैठते हैं। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध दार्शनिक ह्यूम (Hume) ने तो यहाँ तक कह दिया कि मुझे तो अपने शरीर में जीव का कोई अस्तित्व लक्षित नहीं होता। केवल परम्परा से चले आनेवाले व्यवहार के आधार पर मैं कह बैठता हूँ कि ‘मैं हूँ‘। बात तो विचित्र-सी है। प्राणियों का व्यापार तो यह नहीं प्रकट करता कि वे अमर या अकाट्य या अदाह्य हैं-
कहने को मैं अजर हूँ पर पीरी2 सताती है।
कहने को मैं अमर हूँ पर मौत डराती है।
औजूबये-मखलूक3 हूँ कुछ कह नहीं सकता।
बाकी4 को फना5 देखिए क्या नाच नचाती है।
जो गल नहीं सकता, उसे गल जाने का डर है।
हैरतकद-आलम6 में तहैय्युर7 के सिवा क्या है?
जो मर नहीं सकता उसे मर जाने का डर है॥
परन्तु चाहे दार्शनिकों की उलझनें सुलझें या न सुलझें, चाहे वे अपने कल्पित मापदण्डों द्वारा इनकी व्याख्या कर पाएँ या न कर पाएँ, तथ्य यही है कि अमर जीव नाशवान् शरीर में आकर काम करता है। ‘मृतस्य स्वधाभि:‘ का अर्थ है इस मरणधर्मा शरीर के गुण-त्रय (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) के साथ मिलकर जीव अपना कार्य करता है (चरति)।
श्री सायणाचार्य ने ‘स्वधर्मभि: चरति‘ का अर्थ किया है- पुत्रकृतै: स्वधाकारपूर्वकदत्तै: अन्नै: चरति वर्तत इत्यर्थ:।
अर्थात् मरनेवाले की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र स्वधा नामक अन्न श्राद्ध में देते हैं, उसी के सहारे वह जीता है। यह अर्थ पौराणिक कालीन मृतक श्राद्ध-प्रथा के संस्कारों से प्रेरित होकर किया गया है। वेदमन्त्र में या प्रसंग में ऐसी कोई बात नहीं है। श्राद्ध का अन्न तो शरीर के ही काम आ सकता है न कि अमर और चेतन जीव के। मृतक-श्राद्ध में जिस अन्न का नाम हम लोगों ने ‘स्वधा‘ रक्खा है वह स्वधा (अपने द्वारा धारण की हुई) नहीं है। वह तो शरीरधारी ब्राह्मणों को ही खिलाई जाती है और उसकी वही गति होती है जो नाशवान् शरीर की। स्वधा का वास्तविक अर्थ तो तीन गुणवाली प्रकृति है। जैसे कि ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 129 के मन्त्र 2 में आया है, ‘आनीदवातं स्वधया तदेकम्‘ इसलिए इस मन्त्र में भी ‘स्वधाभि:‘ का अर्थ प्रकृति के तीन गुण लेना ही उचित प्रतीत होता है। जीव अजर-अमर होता हुआ भी अल्प है। उसे अपने कर्मक्षेत्र और भोगक्षेत्र दोनों के लिए भौतिक प्रकृति की आवश्यकता पड़ती है, अत: उसे प्रकृति के साथ ‘सयोनि‘ होना ही पड़ता है।
नाशवान् शरीर का सम्पर्क होने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि शरीर अनावश्यक है अथवा इसका सम्बन्ध कल्पित या स्वप्न के समान अतथ्य है। यदि ऐसा होता तो धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, हिंसा-अहिंसा का प्रश्न न उठता। बकरी का जीव भी अमर और अच्छेद्य या अशोच्य है, परन्तु बकरी का मारना हिंसा है। क्योंकि शरीर नाशवान् होते हुए भी जीव की जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक है। जीव मरता नहीं। शरीर मरता है, परन्तु जीव के विकास में सहायक होकर मरता है। अनित्य पदार्थों का भी मूल्य है, वे निरर्थक नहीं हैं। शरीर की स्वधाएँ जीव के चरण (आचरणों) में सहयोग देती हैं और अनादर के योग्य नहीं है।
सन्दर्भ -
1. तुरगातु = going quickly, R.V.I.164.30
-मोनियर विलियम्स का संस्कृत कोश 2. बुढापा 3. सबसे विचित्र वस्तु 4. अमर 5. नाश 6. आश्चर्यपूर्ण संसार 7. आश्चर्य - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग- जुलाई 2015)
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