जिस प्रकार अग्नि पदार्थों को भस्म कर देती है या जठराग्नि में पड़कर जैसे कोई वस्तु पचकर आत्मसात् हो जाती है, उसी प्रकार राष्ट्ररूपी अग्नि के मुख में शत्रुओं तथा दुष्टों को रखने के लिए दण्डनीति का विधान यजुर्वेद में किया गया है। निम्न मन्त्रों में इसका उल्लेख है-
या: सेना अभीत्वरीराव्याधिनीरुगणा उत।
ये स्तेना ये च तस्करास्ताँस्ते अग्नेऽपि दधाम्यास्ये॥138
अर्थ- जो सम्मुख होकर युद्ध कराने वाली, बहुत प्रकार के उपद्रवों से युक्त, क्लेश देने वाली, शस्त्रों को लेकर विरोध में उद्यत हुई सेना है, तथा जो दूसरों के पदार्थों का हरण करने वाले हैं, जो कपट आदि द्वारा या अन्धकार में गुप्त रूप से कार्य करके हानि करने वाली सेना है, उनको राष्ट्र की जो दण्डनीति रूपी अग्नि या जो सेना की मन्युरूपी अग्नि है, उसमें जलाकर नष्ट करता हूँ।
दंष्ट्राभ्यां मलिम्लूञ्जम्भ्यैस्तस्कराँ 2 उत।
हनुभ्यां स्तेनान् भगवस्ताँस्त्व खाद सुखादितान्॥139
अर्थ- हे ऐश्वर्य वाले सभापते एवं सेनापते ! आप राष्ट्र में अपराधियों को, मलिन आचरण करने वालों को तथा जो कठोर साधनों से चोरों के समान अन्याय से दूसरों के पदार्थ को भोगने वाले हैं, उन रात्रि में सुरंग आदि लगाकर तोड़-फोड़ करके पराया धन हड़पने वाले मनुष्यों को जड़ से नष्ट कर दें।
ये जनेषु मलिम्लव स्तेनासस्तस्करा वने।
ये कक्षेष्वधायवस्ताँस्ते दधामि जम्भयो:॥140
अर्थ- हे राष्ट्रपते ! मैं दण्डाध्यक्ष जो मनुष्यों में मलिन स्वभाव वाले हैं तथा जो वनों में गुप्तरूप से रहने वाले डाकू, लुटेरे आदि हैं और जो मकानों में गुप्तरूप से पापमय जीवन-यापन करते हैं, उन सबको आपकी दण्डनीति के मुख में धरता हूँ।
यो अस्मभ्यमरातीयाद्यश्च नो द्वेषते जन:।
निन्दाद्यो अस्मान्धिप्साच्च सर्वं तं भस्मसा कुरु॥141
अर्थ- हे राष्ट्र या सेना के स्वामिन् ! जो मनुष्य हमसे शत्रुता करे, जो हमारे साथ दुष्टता का आचरण करे, जो हमें कटुवचनों के द्वारा पीड़ित करे तथा जो हमको दम्भ दिखावे और जो हमारे साथ छल करे उन सबका आप कठोरता से दमन कीजिए।
इस प्रकार राष्ट्र की सुरक्षा के लिए, नागरिकों की रक्षा के लिए तथा दुष्टों के उन्मूलन के लिए राष्ट्र के नेताओं में तीव्र अग्नि होनी चाहिए, अन्यथा दुष्ट राक्षसों का दमन नहीं हो सकता। राष्ट्र के अन्दर चोर, डाकू, ठग, लुटेरे, दुष्ट एवं पापवृत्ति के लोगों को कठोर दण्ड देना शासन का कर्त्तव्य है। दुष्टों का दमन करते रहने से राष्ट्र में पवित्र जीवन एवं सदाचार की स्थापना होती है।
वैदिक दृष्टि में समस्त मानव-समाज तथा सम्पूर्ण राष्ट्र पुरुष रूप है। राष्ट्र के सब मानवों का सम्मिलित रूप एक ही पुरुष है। प्रत्येक राष्ट्र में ज्ञानी, शूर, कृषक, व्यापारी तथा कर्मचारी आदि रहते हैं । ये सब ‘राष्ट्र पुरुष शरीर‘ के विभिन्न अंग हैं।142 ये सब मिलकर ही राष्ट्र होते हैं। जिस प्रकार शरीर के किसी भी अवयव को कष्ट व पीड़ा हो तो सम्पूर्ण शरीर को कष्ट होता है, उसी तरह राष्ट्र में भी इतनी एकता की भावना रहनी चाहिए- यह वैदिक आदर्श है। राष्ट्र के अवयव रूप किसी भी वर्ग को कष्ट होने पर सम्पूर्ण राष्ट्र को दुखी होना चाहिए तथा उसकी सहायतार्थ खड़ा होना चाहिए । जिस प्रकार एक शरीर में अनेक अवयव पृथक्-पृथक् होने पर भी समस्त शरीर की मिलकर एक संवेदना होती है, एकात्मता होती है, किसी अवयव को दु:ख होने पर सब अवयवों को अथवा सम्पूर्ण शरीर को ज्वर होता है, वैसे ही राष्ट्र में एकात्मता होनी चाहिए। इस आधार पर वैदिक ऋषियों की राष्ट्रीय शासन व्यवस्था स्थापित है। वेद की ‘राष्ट्रीय प्रार्थना‘ के नाम से प्रसिद्ध निम्न मन्त्र में सम्पूर्ण राष्ट्रवासियों के योगक्षेम की कामना की गई है-
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्, आ राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढाऽनड्वानाशु: सप्ति:, पुरन्ध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा:, सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां, निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु, फलवत्यो न ओषधय: पच्यन्तां, योगक्षमो न: कल्पताम्॥143
अर्थात् हे परमात्मन् ! हमारे राष्ट्र में ब्राह्मण ब्रह्मवर्चस् से युक्त हों। गाएँ अधिक दूध देने वाली हों। बैल भारवाहन में समर्थ हों तथा घोड़े तीव्रगामी हों। स्त्रियाँ गुण सम्पन्न हों। रथी सैनिक विजयी हों। यजमान के पुत्र वीर तथा सभ्य हों। हमें आवश्यकता हो तथा हम चाहें, तब-तब मेघ बरसें। हमारी औषधियाँ (कृषि, वनस्पति) फलवती होकर परिपक्वता को प्राप्त हों। हमारे लिए योगक्षेम हो।
इस मन्त्र में राष्ट्र के अभ्युदय के लिए अपेक्षित सभी तत्वों का समावेश किया गया है। इस मन्त्र के अनुसार राष्ट्र के अभ्युदय के लिए निम्नलिखित तत्वों की विशेष आवश्यकता होती है-
1. ब्रह्म तथा क्षात्र शक्ति उन्नत हो।
2. स्त्रियाँ उन्नत हों।
3. पशुधन हो।
4. राष्ट्र का युवा वर्ग शिष्ट, सभ्य तथा वीर हो।
5. समय पर वर्षा हो।
6. धन धान्य की समृद्धि हो।
7. राष्ट्र में योगक्षेम हो।
राष्ट्रीय योगक्षेम के लिए आवश्यक है कि शासक अपने कर्त्तव्यपालन में सतत जागरूक हों। सेना सुरक्षा में समर्थ हो। बुद्धिजीवी वर्ग (ब्राह्मण) विद्वान्, त्यागी, तपस्वी तथा उच्चचरित्र वाले हों। तभी राष्ट्र में योगक्षेम होता है तथा ज्ञान-विज्ञान में उन्नति होकर सब क्षेत्रों में प्रगति होती है। राष्ट्र की उन्नति एवं विकास के लिए ब्रह्म तथा क्षात्र शक्ति का समन्वय होना आवश्यक है। निम्न मन्त्र में यही उल्लेख है-
यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह।
तँल्लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवा: सहाग्निना॥144
अर्थ- जहाँ ब्रह्मशक्ति तथा क्षात्रशक्ति (बुद्धि तथा वीरता) मिलकर साथ-साथ चलती हैं, वह देश पुण्यमय अर्थात् उत्कृष्ट है, जहाँ विद्वान् लोग अग्नि के समान तेजस्वी होकर निवास करते हैं। अर्थात् जिस देश में ब्राह्मण और क्षत्रिय मिलकर अपना कर्त्तव्य निभाते हैं, वह देश पुण्यकारक तथा बुद्धि से अभिलाषा करने योग्य है।
ब्रह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति के समन्वय का अभिप्राय यह है कि ज्ञान और कर्म एवं विवेक और पुरुषार्थ तथा विद्या और बल में समन्वय हो। जहाँ ज्ञान के अनुसार पुरुषार्थ होता है और पुरुषार्थ के अनुकूल ज्ञान होता है, वहाँ दोनों के समन्वय से सभी प्रकार की सफलता शीघ्र प्राप्त होती है।
इस प्रकार यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होने वाले उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि राजा एवं प्रजा दोनों के लिए वर्णित कर्त्तव्य, प्रतिभा और उपदेशों का सम्यक् पालन किया जाये तो राष्ट्र एवं राष्ट्र के शासक दोनों का सार्वत्रिक अभ्युदय सम्भव हो जायेगा। जब तक राष्ट्र का शासक राष्ट्र भक्त नहीं होगा, प्रजाओं का विश्वास नहीं प्राप्त कर सकेगा, तब तक समृद्ध राष्ट्र का निर्माण और अभ्युदय होना सम्भव नहीं हो सकेगा। वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीयता के लिए वैदिक निर्देश सहायक हो सकते हैं और राष्ट्रीय प्रतिमान तथा व्याप्ति के स्वरूप को स्थिर करके एवं सर्वव्याप्त चिति को उद्बुद्ध करने में सफल हो सकते हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण में होने वाले दैनन्दिन क्षरण को रोकने के लिए वैदिक मन्त्रों के उपदेशों, सन्देशों और आदेशों की व्यावहारिकता सर्वोपरि सिद्ध हुई है और आज भी प्रासंगिक है।
सन्दर्भ सूची
138. यजुर्वेद संहिता - 19.77
139. यजुर्वेद संहिता - 19.78
140. यजुर्वेद संहिता - 11.79
141. यजुर्वेद संहिता - 11.80
142. वेद में विविध प्रकार के राज्य शासन -श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर
143. यजुर्वेद संहिता - 22.22
144. यजुर्वेद संहिता - 20.25 (दिव्ययुग- जुलाई 2015) - आचार्य डॉ. संजयदेव
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