ओ3म् अश्मन्वती रीयते सं रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखाय: ।
अत्रा जहाम ये असन्नशेवा: शिवान् वयमुत्तरेमाभि वाजान् ॥ ऋग्वेद 10।53।8॥
शब्दार्थ- (सखाय:) हे मित्रो! (अश्मन्वती) पत्थरोंवाली भयंकर नदी (रीयते) बडे वेगपूर्वक बह रही है। अत: (उत्तिष्ठत) उठो (सं रभध्वम्) संगठित हो जाओ और (प्रतरत) इस भयंकर नदी को पार कर जाओ (ये) जो (अशेवा: असन्) अशिव, अकल्याणकारक दोष एवं दुर्गुण हैं उन्हें (अत्र जहाम) यहीं छोड़ दो और (वयम् शिवान् वाजान्) हम कल्याणकारी शक्तियों और क्रियाओं को (अभि) सम्मुख रखकर (उत् तरेम) इस नदी को पार कर जाएँ।
भावार्थ- वेद में संसार की उपमा कहीं सागर से दी गई है तो कहीं वृक्ष से और कहीं किसी अन्य रूप से। प्रस्तुत मन्त्र में संसार की तुलना एक पथरीली नदी से दी गई है।
1. यह संसार एक पथरीली नदी है। इसमें पग-पग पर आनेवाले विघ्न और बाधाएँ ही बड़े-बड़े पत्थर हैं, दु:खरूपी चट्टानें हैं।
2. इसका प्रवाह बड़ा भयंकर है। अच्छे-अच्छे व्यक्ति इसमें बह जाते हैं।
3. इस नदी को पार करने के लिए उठो, खड़े हो जाओ, आलस्य और प्रमाद को मारकर परे भगा दो। संगठित हो जाओ, तभी इस नदी को पार किया जा सकेगा।
4. बोझ नदी को पार करने में बड़ा बाधक होता है अत: जो पाप की गठड़ी सिर पर उठाई हुई है, जो दुरित, दुर्गुण, काम, क्रोध आदि अशिव दुर्व्यसन हैं उन सबको यहीं छोड़ दो।
5. जो शिव हैं, उत्तम गुण हैं, धार्मिक तत्त्व हैं, उन्हें अपने जीवन का अङ्ग बनाकर इस नदी को पार कर जाओ। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग - अप्रैल 2014)