बुराई से भलाई- येन केनापि प्रकारेण वेद की हेयता और तुच्छता सिद्ध करने के लिए यूरोपीयन विद्वानों ने अदम्य उत्साह एवं अविश्रान्त परिश्रम से वेद और वैदिक साहित्य का आलोडन, आलोचन, मन्थन किया। इसके लिए उन्होंने वैदिक ग्रन्थों के सुपरिष्कृत संस्करण भी निकाले। वेद पुस्तक सर्वप्रथम यूरोप में ही मुद्रित हुए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जर्मनी से वेद मँगवाये थे। वेद तो भारत में सहस्रों नहीं लाखों घरों में हस्तलेखों के रूप में विद्यमान थे। सहस्रों ब्राह्मण इनकों कण्ठस्थ करने में दिन-रात निष्काम भाव से अनवरत परिश्रम करते थे। किन्तु स्वामी जी के समय तक भारत में वेद मुद्रित नहीं हुए थे।
वेद का आकर्षण- इस प्रकार के सतत परिश्रम के कारण वेद ने अपने सत्य अर्थ की ओर बलात् उनको आकृष्ट किया। अतः मैक्समूलर जिसने वेदों को गडरियों के गीत और बच्चों की बिलबिलाहट बतलाया था, वेद को ज्ञानकोश मानने पर बाध्य हुआ। उसे ऋग्वेद के दशम मण्डल के नासदीय सूक्त (ऋग्वेद 10.129) ने चक्कर में डाल दिया। उत्क्रान्तिवाद के अनुसार ईसा की बीसवीं शती में गत शताब्दियों की अपेक्षा उत्कृष्टतम ज्ञान होना चाहिए। किन्तु नासदीय सूक्त में उसे सृष्टि-विज्ञान सम्बन्धी ऐसे तत्त्व मिले, जो उसके मतानुसार बीसवीं शती से पूर्व नहीं होने चाहिए थे। ऋग्वेद के इस सूक्त ने दो अन्य विद्वानों को भी बहुत मोहित किया। उनमें से एक तो प्रसिद्ध उत्क्रान्ति विज्ञान का आविष्कार वालेस था। जिन दिनों डारविन उत्क्रान्तिवाद की स्थापना कर रहा था, वालेस भी उन्हीं दिनों इसी विषय का अनुसन्धान कर रहा था। जब वालेस को इसका ज्ञान हुआ तब उसने अपनी सारी अनुसन्धान सामग्री डारविन के अर्पण कर दी। इतना ही नहीं डारविन पर उसकी भक्ति यहाँ तक बढ़ी कि उसने उसके वाद के समर्थन में ‘डारविनवाद’ नामक पुस्तक लिखी। इस घटना के थोड़े समय पश्चात् उसे वेदों के यूरोपीय विद्वानों के द्वारा किये गये अटकलपच्चू (यूरोपीय विद्वान् स्वयं अपने अनुवादों को अटकलपच्चू कहते हैं) अनुवादों को पढ़ने का अवसर मिला, तो वह नासदीय सूक्त से यहाँ तक प्रभावित हुआ कि उसे अपने ग्रन्थ में यह लिखना पड़ा कि “शारीरिक या भौतिक विकास कदाचित् सम्भव हो, किन्तु बौद्धिक (ज्ञान की क्रमिक उन्नति सम्बन्धी) विकास सर्वथा असम्भव है।’’ दूसरा विद्वान् बेल्जियम देश का सुप्रसिद्ध साहित्यिक, नोबल पारितोषिक विजेता मातृलिंग है। उसके सामने सृष्टि से पूर्वावस्था सम्बन्धी समस्या उपस्थित हुई। उसने संसारभर के दार्शनिक एवं धार्मिक वैज्ञानिक वादों का अध्ययन किया, किन्तु उसका मनस्तोष न हुआ। जब उसने ऋग्वेद का यह सूक्त पढ़ा तब अनायास उसकी लेखनी से निकला कि भौतिक विकास भले ही सम्भव हो, किन्तु बौद्धिक विकास सर्वथा असम्भव है। क्योंकि उस सूक्त में सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व अवस्था का जो चित्र खींचा गया है, विकासवाद के अनुसार तो ज्ञान-बुद्धि उभय से हीन आदिम मनुष्य इतनी ऊँची उड़ान विचारहीन (जीवन के आरम्भ काल में) अवस्था में कर ही नहीं सकता। ये विचार उड्डयन तो बीसवीं सदी से भी अगली सदियों के होने चाहिएँ।
वेदोत्पत्ति प्रकार- यूरोपीयनों का वेदविरोध क्षन्तव्य है। अब भारतीयों की विचारधारा का भी तनिक सा अवगाहन करना अनुचित न होगा। इस देश के पौराणिक वैदिक विद्वान् वेदों को ब्रह्मा के चार मुखों से निकला बतलाते हैं। कोई-कोई यह भी कह देते हैं कि सुप्तप्रबुद्धन्याय से पूर्वकल्प के ऋषियों को इस कल्प में वेदों का ज्ञान हुआ। जिस प्रकार सोकर जागने पर पूर्व दिन का ज्ञान पुनः पूर्ववत् मनुष्य के पास रहता है, इसी प्रकार इस सृष्टि के आदिम ऋषियों को अपने पिछले कल्प के अधीत वेद स्मरण रहे। जैसा कि महाभारत में आता है-
युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान्महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता स्वयम्भुवा॥
वेदान्तदर्शन के 1.3.29 सूत्र के भाष्य में आचार्य शंकर ने इसको व्यासवचन मानकर उद्धृत किया है। इस श्लोक में आये इतिहास शब्द का अर्थ नैसर्गिक इतिवृत्त है।
वैदिक मूर्धन्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ब्राह्मणग्रन्थों एवं मनुस्मृति के आधार पर वेद को सर्गारम्भ में सकल मनुष्यों के हितार्थ परमात्मा के द्वारा अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को दिया शब्दार्थ-सम्बन्धयुक्त ज्ञान मानते हैं और अपने पक्ष में मनु जी का प्रमाण देते हैं।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्मा सनातम्।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुस्सामलक्षणम्॥
अध्यापयामास पितृन् शिशुरांगिरसः कविः। (मनु. 2.23, 2.151)
ब्राह्मणों में अनेक स्थानों पर आता है-
अग्नेर्ऋग्वेदोऽजायत वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः। (शतपथ 11.5.2.3)
अर्थात् अग्नि, वायु तथा रवि से ब्रह्मा ने ऋग्- यजु-साम स्वरूप तीन वेदों को यज्ञसिद्धि (लोक-परलोक-व्यवहार-सिद्धि) के लिए प्राप्त किया। ज्ञानी अंङ्गिरा ने पितरों (सर्गारम्भ में गृहस्थ धर्म आरम्भ करने वाले महात्माओं) को वेद (अथर्ववेद) पढ़ाया। अग्नि ऋषि के द्वारा ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, वायु के द्वारा यजुर्वेद तथा सूर्य के द्वारा सामवेद की उत्पत्ति हुई।
ज्ञान का प्रारम्भ- यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि आदिम मनुष्यों ने ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया? उनको भाषा तो कोई आती न थी और ज्ञान भाषा के बिना देना तथा लेना असम्भव है। इस शंका का समाधान बहुत सीधा है कि जिस प्रभु ने ज्ञान दिया उसी ने भाषा भी दी। - स्वामी वेदानन्द तीर्थ
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