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ज्वालामुखी पर स्वतन्त्रता का सरकारी उत्सव

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15 अगस्त 2008 स्वतन्त्रता-दिवस के उत्सव सारे देश में मनाए जा रहे हैं। नेतागण व अधिकारी वर्ग द्वारा स्थान-स्थान पर तिरंगा फहराया जा रहा है। सरकारी भवनों पर झंडे लहरा रहे हैं। स्कूली लड़के-लड़कियाँ रैली निकाल रहे हैं। भाषणों में आश्‍वासनों की झड़ियाँ लग रही हैं। बच्चों को बून्दी के लड्डू वितरित किए जा रहे हैं। इन उत्सवों में सरकारी भूमिका बड़े उत्साह से निभाई जा रही है। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो आगामी चुनावों में उन्हें कौन घास डालेगा ! .......और जनता ! एक वर्ग अपने घरों में बैठकर स्वतन्त्रता-दिवस की छुट्टी का आनन्द ले रहा है। चाय-नाश्ता, शाही खाना, टी.वी. के सामने मित्रों के साथ नाच-गानों में मस्त हैं।

दूर बैठा एक चिन्तक यह उत्सवी-वातावरण निहार रहा था। उसके चेहरे पर खुशी के स्थान पर चिन्ता की रेखाएं झलक रही थी। उसने 15 अगस्त 1947 से आजतक के ‘स्वतन्त्रता समारोह’ देखे हैं। वह हमेशा खुशियों में भागीदार रहा है, परन्तु आज यह उदासीनता कैसी ? प्रश्‍न पूछने पर उसने अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा- “आजादी के इन उत्सवों में आम जनता की उत्साहमयी भागीदारी मुझे दिखाई नहीं दे रही है। हम जंगे-आजादी को भूलते जा रहे हैं। क्रान्तिकारियों का वह उत्साह, वह संघर्ष, उनका बलिदान, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आज़ाद हिन्द सेना की देशभक्ति, उनकी कुर्बानी सबकुछ भूलते से दिखाई दे रहे हैं। जो जनता अपने स्वतन्त्रता संग्राम अथवा जंगे-आजादी की क्रान्ति को भूल जाती है, वह स्वतन्त्रता की रक्षा कैसे कर सकती है? इस विस्मृति का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि जनता का बहुसंख्यक वर्ग एशो-आराम में डूब गया और उसके खातिर वे भ्रष्टाचार, मिलावट, घूस जैसे दुष्चक्र में पड़कर आज़ादी की रक्षा व देशवासियों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भूल बैठे हैं। इधर यह दशा है तो दूसरी ओर गाँव-गांव और गलियों में छिपे गद्दार देशद्रोही स्वतन्त्रता के साथ धोखा कर रहे हैं।’’ सुनने वाले अवाक् होकर उनका मुँह ताकने लगे। वे आगे रुंधे गले से गंभीर स्वर में बोलने लगे- “इस उदासीनता, भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता के परिणामस्वरूप विदेशी आतंकवादी देश में ही पनाह पा रहे हैंऔर निरपराध भोले स्त्री-पुरुषों और बालक-बालिकाओं की हत्या कर रहे हैं। ये आतंतवादी न केवल हत्या ही कर रहे हैं, बल्कि नशीले पदार्थों की तस्करी भी कर रहे हैं। नकली नोटों का प्रचलन कर देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर देना चाहते हैं। आतंकवादियों का जाल बिछता सा दिखाई दे रहा है। इस स्थिति को देखकर मुझे तो ऐसा लग रहा हैकि आजादी के जश्‍न ज्वालामुखी पर बैठकर तो नहीं मनाए जा रहे हैं? कहीं आजादी का अस्तित्व खतरे में तो नहीं है? इस ज्वालामुखी में धधकते हुए अंगारे समाए हुए हैं। जानते हो ये अंगारे क्या हैं? ये अंगारे, ये शोले हैं- रिश्‍वतखोरी, भ्रष्टाचार, खाद्यान्न और जीवनरक्षक दवाइयों में मिलावट, व्यापारियों और संग्रहखोरों के षड़्यंत्र से बढ़ती महंगाई, बढ़ती बीमारियाँ, नैतिक पतन, स्वार्थ, अमानवीय कृत्य, निर्दयता, आतंकवाद, धर्मान्धता, जातीयता तथा क्षेत्रीयता के जो कभी भी फूटकर महाविनाश का तांडव कर सकते हैं।’’

इस देश के रक्षक इस कटुसत्य से बेखबर नहीं हैं। जानते हुए भी ये कर कुछ नहीं सकते। वोटों के खातिर ये विवश हैं। इस विवशता ने इन्हें नपुंसक बना रखा है। बढ़ते आतंक के सामने इन्होंने घुटने टेक दिए हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, आरक्षण की अदूरदर्शितापूर्ण नीति, शिक्षा व संस्कृति पर प्रहार, दूरदर्शन प्रसारण पर अनैतिक प्रदर्शन आदि इसी वोटनीति के दुष्परिणाम हैं। ये वे शोले हैं जो ज्वालामुखी के गर्भ में समाए हुए हैं। इन्हें एक-एक कर बुझाया नहीं जाएगा, तब तक इस कटुसत्य को स्वीकार करना ही होगा कि हम ज्वालामुखी पर बैठकर अंगारों से खेल रहे हैं। - जगदीश दुर्गेश जोशी

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