हिन्दी को हिन्दी के अखबारों में ‘हिंग्लिश’ बनाया जा रहा है। समझ के अभाव में लोग इस सारे सुनियोजित एजेण्डे को भाषा के परिवर्तन की ऐतिहासिक प्रक्रिया ही मानने लगे हैं और हिन्दी में यह होने लगा है। गाहेबगाहे लोग बाकायदा इस तरह इसकी व्याख्या भी करते हैं। अपनी दर्पस्फीत मुद्रा में वे बताते हैं, जैसे कि वे अपनी एक गहरी सार्वभौम प्रज्ञा के सहारे ही इस सचाई को सामने रख रहे हों कि हिन्दी को हिंग्लिश बनना अनिवार्य है। उनको तो पहले से ही इसका इल्हाम हो चुका है और ये तो होना ही है।
एक भली-चंगी भाषा से उसके रोजमर्रा के सांस लेते शब्दों को हटाने और उसके व्याकरण को छीनकर उसे बोली में बदल दिए जाने को क्रियोल कहते हैं। अर्थात् हिन्दी को हिंग्लिश बनाना एक तरह का उसका क्रियोलीकरण है। और कांट्रा ग्रेजुअलिज्म के हथकण्डों से बाद में उसे डि-क्रियोल किया जाएगा।
भाषा की हत्या के एक योजनाकार ने अगले चरण को कहा है कि फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी, बनाम हिन्दी को नागरी लिपि के बजाय रोमन लिपि में छापने की शुरुआत करना। अर्थात् हिन्दी पर अन्तिम प्राणघातक प्रहार। बस हिन्दी की हो गई अन्त्येष्टि। चूँकि हिन्दी को रोमन में लिख पढ़कर बड़ी होने वाली पीढ़ी में वह नितान्त अपठनीय हो जायेगी। हिंग्लिश को रोमन लिपि में छाप देने का श्रीगणेश करना। इसी युक्ति से गुयाना में जहाँ 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे, वहाँ हिन्दी को फ्रेंच द्वारा डि-क्रियोल कर दिया गया और अब वहाँ देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चला दिया गया है। यही काम त्रिनिदाद में इस षड्यन्त्र के जरिए किया गया है।
जबकि विडम्बना यह है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा-निर्देश में संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीनकर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के कई अखबार जुट गए हैं। उन्होंने यह स्पष्ट धारणा बना ली है कि वे अब हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के अखबार की नर्सरी का काम कर रहे हैं। क्योंकि देर सबेर इसी को ही तो भारत की राष्ट्रभाषा बनाना है। प्राथमिक शिक्षा के लिए विश्व बैंक द्वारा प्राप्त धन का यही तो आखरी सुफल है। क्योंकि आगे जाकर समूची आरम्भिक शिक्षा के कायान्तरण के कर्मकाण्ड को पूरा किया जाना एक अघोषित शर्त है, जिसमें हिन्दी के कई अखबार मिल-जुलकर आहुतियाँ दे रहे हैं। वे स्वाहा-स्वाहा करते हुए हिन्दी की आहुति चढ़ा रहे हैं।
आजादी मिलने के साथ ही गान्धी-नेहरु की पीढ़ी द्वारा कर दी गयी महाभूल को वे दुरुस्त करने में लगे हैं, जिसके चलते अन्धराष्ट्रवादी उन्माद में हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह बिठा दिया था। जबकि यह तो सत्ता की भाषा बनने के लायक ही नहीं थी। यह तो अनपढ़ गुलामों और मातहतों तथा अज्ञानियों की भाषा थी और उसे वैसा ही बने रहना चाहिए। इसी किस्म की इच्छा और संकल्प की अनुगूंज गुरुशरणदास जैसे लोगों के प्रायोजित लेखों से सुनाई देती है,जो इन अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर छपते रहते हैं। वे बार-बार कहते हैं कि जल्द ही हिन्दुस्तान आने वाले दो सौ वर्षों के लिए दुनिया की ‘भाषाशक्ति’ बनने वाला है। जबकि वे जानते हैं कि इससे बड़ा धोखा और कोई हो ही नहीं सकता। वास्तव में वे भारत को 2000 बरस के लिए गुलाम बनाने के लिए ठेके का काम ले चुके हैं। वे उसे उस दिशा में घेरने की निविदा हाथिया चुके हैं। इस घेरने के काम में अखबार सबसे सुंदर और सुविधाजनक लाठी है।
कुछ ही समय पूर्व अमेरिका में गरीब मुल्कों की आँखें खोल देने वाली एक पुस्तक छपकर आयी है, जिसे न लिखने के लिए सी.आई.ए. ने एक मिलियन डॉलर देने की पेशकश की थी। लेकिन लेखक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और साहस जुटाकर प्रायश्चित के रूप में लिख ही डाली यह पुस्तक ’कन्फेशन ऑव एन इकोनोमिक हिटमैन’। नोम चोमस्की और डेविड सी. कोर्टन जैसे बुद्धिजीवियों ने लेखक को उत्साहित करते हुए कहा कि इसका प्रकाशन शेष संसार का तो हित करेगा ही, बल्कि इससे अमेरिका का भी हित ही होगा। इसलिए इसका छपना जरूरी है। (क्रमशः) - प्रभु जोशी
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