आत्मिक उन्नति : आत्मसत्ता- हम प्रतिदिन अपने व्यवहार की सिद्धि के लिए शरीर, इन्द्रियों, मन और आत्मा का उपयोग करते हैं। शरीर विशेष रूप से ज्ञान तथा कर्म इन्द्रियों का समुच्चय है। देखने, सुनने, सूंघने, चखने, बोलने आदि के बाह्य व्यवहार आंख, कान, नाक, जिह्वा आदि इन्द्रियों से ही होते हैं। जिस प्रकार हमारे देखने आदि के बाह्य व्यवहार किसी न किसी इन्द्रिय से होते हैं ऐसे ही हमारे सोचने, याद करने आदि के अन्दर के व्यवहार मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से होते हैं। इनको अन्त:करण कहते हैं अर्थात् अन्दर की इन्द्रियाँ, अन्दर का कार्य करने के साधन। शरीर, इन्द्रिय और मनादि जिसकी चेतना से कार्य करते हैं, ‘वही आत्मा है‘ (जैसे कि बल्ब, पंखे, मशीनें बिजली से चलती हैं), वह ही शरीर, मन का अधिष्ठाता, नेता और संचालक है। आत्मा अजर-अमर और चेतन है। शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा इन सबका मेल ही हमारा अपना आपा है। जब तक यह मेल बना रहता है तभी तक जीवन है।
मैं कौन हूँ- हम प्रतिदिन के अपने व्यवहार को सामने रखकर जब विचार करते हैं, तो इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि हम नित्य प्रति के जीवन में जो कुछ क्रिया-कलाप करते हैं उसमें कुछ वस्तुओं को प्रयुक्त करते, भोग में लाते हैं। अत: मेरा व आपका अपने आप में कुछ भी स्वरूप क्यों न हो, पर आप जिस रूप में हम जीवन व्यतीत कर रहे हैं, वह भोक्ता, कर्ता, द्रष्टा का ही है। आज की स्थिति में यही हमारा स्वरूप और परिचय है। यह तभी सिद्ध होता है या उस-उस व्यवहार को करने में हम तभी समर्थ होते हैं, जब इन्द्रिय-मन और आत्मा का मेल मिलता है, अन्यथा नहीं। यह सर्वविदित बात है कि शरीर, इन्द्रिय और मन का अधिष्ठाता, नेता, संचालक रूप एक चेतन आत्मा है, जो कि नित्य और सबका अलग-अलग है। शरीर तथा मन केवल साधन हैं। जो आत्मा रूपी सवार को अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करने के लिए अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। आत्मा की चेतना से प्रेरित हुआ मन उस-उस इन्द्रिय द्वारा रूप, रस, शब्द आदि का भोग करता है। आज जिस स्थिति में हम हैं, वह शरीर, मन और आत्मा का मेल ही है। अकेला आत्मा किसी भोग्य पदार्थ का भोग=बर्ताव नहीं कर सकता और तो और वह अपने आप का भी अनुभव नहीं कर सकता।
हमारे जीवन व्यवहार में जहाँ शरीर का योगदान स्पष्ट दिखाई देता है, वहाँ अनेक व्यवहारों में मन का प्रभाव तथा अंशदान स्पष्ट रूप से होता है। तभी तो विचारों और भावनाओं का व्यक्ति पर प्रभाव होता है।
आत्मिक आहार- जैसे शरीर विकास के लिए उचित आहार की अपेक्षा होती है वैसे ही आत्मविकास के लिए आत्मिक आहार की भी आवश्यकता होती है। जैसे कि सारी सुविधाओं से सम्पन्न भवन में यदि किसी को बन्द कर दिया जाए, वहाँ और तो सारी सुविधायें हों, केवल खाने के लिए कुछ भी न हो, तो दो-चार दिन के बाद उस मकान में बन्द व्यक्ति विवश होकर कह उठता है कि भोजन के बिना ये सुविधायें मेरे किस काम की? यहाँ तक कि मुट्ठी भर दानों के लिए बहुत कुछ या सब कुछ देने के लिए भी तैयार हो जाता है। जैसे भोजन के बिना शरीर कल्प उठता है, ठीक इसी प्रकार आत्मा भी अपने आत्मिक आहार के बिना बेचैन हो उठता है।
आज धन, सम्पत्ति, स्वस्थ शरीर और परिवार के होने पर भी किसी भी अशान्ति का सबसे बड़ा एक कारण यह भी होता है कि वह अपने आपे को शरीर समझकर उसी में सीमित हो जाता है और तब आत्मा अपने आहार के बिना अशाान्त हो जाता है।
हम संसार में सर्दी-गर्मी, वर्षा-दोपहरी आदि की चिन्ता किए बिना ही हर कष्ट उठाकर धन कमाते हैं अर्थात धन कमाने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि हम धन किसलिए कमाते हैं? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जिससे हम अपने और परिवार का गुजारा अर्थात सबके शरीर की रक्षा तथा विकास कर सकें। ऐसी स्थिति में पुन: प्रश्न उभरता है कि प्रात: से सायं तक हर कार्य करके और सोकर शरीर को किसलिए पालते हैं? अर्थात् हम दुनियाँ की हर तकलीफ उठाकर धन कमाते हैं और धनार्जन शरीर को पालने के लिए करते हैं, परन्तु क्या कभी हमने यह भी सोचा है कि हम शरीर को किसलिए पालते हैं? यदि यह नहीं सोचा तो फिर हमारा शरीर का पालन अधूरा ही है। तब हमारी स्थिति उस व्यक्ति जैसी ही होगी, जिसने अपनी लाखों की कार को तैयार कर लिया या करा लिया, पर अपने आपको तैयार नहीं किया। इसी प्रकार यदि हम प्रतिदिन शरीर को तो तैयार करते हैं, परन्तु शरीर के स्वामी की कोई तैयारी नहीं करते, तब आत्मा के निखार के बिना यह सारी सज्जा अधूरी ही हो जाती है।
यही तो सबसे विशेष सोचने वाली बात है कि हम जो दिनों पर दिन, मासों पर मास और वर्षों पर वर्ष बिताए चले जा रहे हैं, हम किसलिए और क्यों इस दुनियाँ में आए हैं? और हमें किसने तथा किसलिए यहाँ भेजा है? वस्तुत: हमारे जीवन और इस दुनियाँ में आने का एकमात्र प्रयोजन है- आत्मा की उन्नति अर्थात अपने आपे का विकास।
सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय और योग-अभ्यास ही आत्मा का सबसे उत्तम आहार है। तभी तो मनुस्मृतिकार ने कहा है- प्राणियों की आत्मा आत्मज्ञान और योगाभ्यास से संस्कृत, प्रगतिशील, विकसित होती है। विद्या शब्द आत्मज्ञान (आत्मा सम्बन्धी ज्ञान) उससे सम्बन्ध रखने वाले (थ्योरी) सैद्धान्तिक, वैचारिक ज्ञान का वाचक है और तप शब्द प्रकरण के अनुरूप क्रियात्मक प्रैक्टीकल रूप का वाचक है। तप का अधिकतर अर्थ सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों (जोड़ों) का सहन करना माना जाता है। परन्तु इन सबका सम्बन्ध शरीर से है और यश-अपयश का मन से है। मूलत: यहाँ आत्मा के निखार का प्रकरण है। अत: प्रकरण के अनुरूप तप का अर्थ योगाभ्यास ही है। क्योंकि योग-समाधि-एकाग्रता का आत्मनिखार से सीधा सम्बन्ध है। कुछ स्थलों पर इसके लिए स्वाध्याय = अपने आप को समझने और योग शब्दों का प्रयोग किया है।
योगाभ्यास साधना का विषय है। योग, समाधि, एकाग्रता ये तीनों ही पर्यायवाची शब्द हैं। एकाग्रता के लिए जरूरी है कि व्यक्ति अपना ध्यान अन्य सब ओर से हटाकर एक ओर ही लगाए। जैसे वाहन चालक अपना ध्यान अन्य तरफ से हटाकर अपने लक्ष्य पर लगाता है, तो सभी की यात्रा सुखप्रद हो जाती है। जैसे जब कोई अपना ध्यान एकाग्र करके रुपये गिनता है, तो उसका कार्य विश्वासपूर्वक निश्चिन्त होता है। ऐसे ही योग के अभ्यास से व्यक्ति का मन स्वच्छ, पवित्र, शान्त, सन्तुष्ट, सुखप्रद होता है।
जैसे गहरी नींद में व्यक्ति दु:ख, क्लेश, रोग, शोक, चिन्ता, तनाव से दूर रहता है और उठने पर अपने आप को तरोताजा अनुभव करता है ऐसे ही योग से एकाग्रता साधकर व्यक्ति अपनी शारीरिक-मानसिक-आत्मिक अस्त - व्यस्त, डांवाडोल स्थिति को सुधार लेने पर अशान्त, दुखी, रोगी, चिन्ताग्रस्त, तनावयुक्त नहीं रहता। कोई पदार्थ, व्यवहार, भाव, स्थिति व्यक्ति के चित्त आदि को अस्त-व्यस्त करके ही उस को अशान्त, चिन्ता, तनाव, रोग व दु:ख युक्त करती है। इस अस्त-व्यस्त स्थिति के निवारण, व्यवस्थीकरण को ही योग कहते हैं। निद्रा जैसी एकाग्रता के कारण ही योग को निद्रा से समझाया गया है। - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग- जून 2015)
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