ओ3म् ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीः ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति।
ऋतस्य श्लोको विधिराततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः॥ (ऋग्वेद 4.23.8)
ऋषिःवामदेवः॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः त्रिष्टुप्॥
विनय- प्यारो! सत्य के माहात्म्य को देखो! सत्य में वे सनातन ऐश्वर्य व बल हैं, जिनसे शोक रुक जाता है। एक बार सत्यज्ञान होने पर संसार के सब शोक, घोर-से-घोर दुःख खेल दीखने लगते हैं। अनादि काल से जो भी कोई शोक के पार हो गये हैं उन सबको किसी न किसी तरह सत्यज्ञान की ही प्राप्ति हुई थी। किसी भी वर्जनीय वस्तु से या पाप से छुटकारा चाहते हो तो सत्य का सहारा लो। सत्य को धारण करते ही मनुष्य में कोई भी बुराई नहीं ठहर सकती। जितनी मात्रा में हममें सच की कमी होती है, उतनी ही मात्रा में हमारे अन्दर बुराई को रहने की जगह होती है। जो पूरा सच्चा है, उसमें बुराई ठहर ही नहीं सकती। अतः केवल इतना आग्रह रखो कि हम सत्य का ही पालन करेंगे तो इससे हमारे अन्दर की सब वर्जनीय वस्तुएँ (आखिर ये वर्जनीय वस्तुएं पाप ही हैं और कुछ नहीं) स्वयं नष्ट हो जाएँगी। और यदि हम सच्चे हैं तो हमारी बात प्रतिद्वन्द्वी को भी जरूर सुननी पड़ती है, हमारी सच्चाई का उस पर भी जरूर असर होता है। यह हो ही नहीं सकता कि सच्चाई का असर न हो। सच्ची आवाज ‘शुचमान’ होती है, उसमें एक तेज होता है, अतएव यह ‘बुधानः’- जगाने वाली होती है। इस तेज के सामने स्वार्थी मनुष्य को (जो कि अपनी स्वार्थ हानि के डर से सच्चाई को अनसुनी करना चाहता है) अपने कानों के द्वारों को खोलना पड़ता है। सच्चाई ऐसी जगाने वाली शक्ति होती है कि जो अज्ञान के कारण अभी तक समझ नहीं रहा है उसमें चेतना और जागृति पैदा कर देती है। सच्ची आवाज सीधी हृदय में जा पहुँचती है। जहाँ सत्य की सुनवाई होना पहले असम्भव जान पड़ता है, वहाँ भी अन्त में सत्य को मानना पड़ता है। निःसन्देह सच्चाई बहरे कानों को भी बेधकर घुस जाती है।
शब्दार्थ- ऋतस्य हि= सत्य की शुरुधः= शोकनिवारक सम्पत्तियाँ पूर्वीः सन्ति=सनातन हैं। ऋतस्य धीतिः=सत्य का धारण करना वृजिनानि=पापों का, वर्जनीय वस्तुओं का हन्ति=नाश कर देता है। ऋतस्य=सत्य की बुधानः=जगाने वाली और शुचमानः= दीप्यमान श्लोकः=आवाज बधिरा=बहरे आयोः= मनुष्य के कर्णा= कानों में भी आततर्द= जबरदस्ती पहुँच जाती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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