समाचार पत्रों और राजबंदियों की रिहाई के आन्दोलन के परिणामस्वरूप हिन्दुस्तान सरकार ने अण्डमान कारागार के निरीक्षण हेतु जेल कमीशन की नियुक्ति की। सभी राजबंदियों ने सावरकर से अनुरोध किया कि वे ही शिकायतों और आरोपों को कमीशन के सामने प्रस्तुत करें। जेल के नियमानुसार अन्य किसी की वकालत करना अपराध माना जाता था। इस समय सावरकर बन्धुओं की रिहाई होने की सम्भावना भी बन रही थी, तो निश्चित था कि सावरकर जेल कमीशन के सामने खुलकर शिकायतें और आरोप लगाएंगे तो वे उनकी रिहाई में बाधक ही बनेंगे। तथापि सावरकर ने व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़कर अण्डमान के लोगों और बन्दियों की भावनाओं के अनुरूप तमाम सही बातें निर्भीकता के साथ प्रस्तुत करने का संकल्प लिया।
जेल जाँच आयोग सीधा सावकर की कोठरी में पहुंचा। उसमें बम्बई के कारागारीय विभाग के वरिष्ठ अधिकारी श्री जैक्सन, पाँगल के राजा और कई उच्च पदस्थ अधिकारी थे। ये सब सावरकर के बारे में भली-भाँति जानते थे। अतः आते ही उन्होंने आदर के साथ कुशल क्षेम पूछने के बाद बातचीत शुरु कर दी। सावरकर ने सबसे पहले भानसिंह के उत्पीड़न का मामला सामने रखा। जाँच समिति के हिन्दुस्तानी सदस्य ने क्रोधित होते हुए कहा- “मि. सावरकर, आप यह कैसे कह सकते हैं कि भानसिंह के शरीर पर जो धाव थे, वे मारपीट के थे ?’‘ सावरकर ने उत्तर दिया- “तो क्या वे घाव शरीर पर स्वयं उभर आये होंगे ?’‘
दूसरा सदस्य बोला- वह जीने (सीढी) से उतरते समय होश हवास खो देने से लुढ़क गया तथा इस कारण शरीर पर चोटें आ गई। क्या मारपीट के समय आप वहाँ थे? आप सुनी सुनाई बातें ही तो कह रहे हैं।’‘
सावरकर ने भी उसी भाषा में उत्तर दिया- “जब वह जीने (सीढी) से लुढ़का था, तो क्या आप वहाँ पर थे? मैं घटना के समय कारागर में तो था, किन्तु आप तो सागर पार हिन्दुस्तान में थे। मैं तो उस दीवार के समीप था, जहाँ से मैंने भानसिंह की पिटाई के समय चिल्लाहट सुनी थी। उसकी करुण चित्कारें अपने कानों से सुनी थी.....।“ यह उत्तर सुनकर उसने कहा- “हमें तो अधिकारियों ने जो रिपोर्ट भेजी, उसी के आधार पर मैंने कहा है।’‘
सावरकर बोले- “यहाँ के अधिकारी तो आपको एकपक्षीय रिपोर्ट ही देंगे। उन्होंने सच्चाई पर पर्दा डालकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास किया है। ....मैंने स्वयं अस्पताल में भानसिंह के शरीर पर छड़ियों के नीले निशान देखे थे। (इसी के परिणामस्वरूप वह मरा) अतः आपको मेरी बातों पर ज्यादा विश्वास करना चाहिए।’‘ इन तर्कों का उनके पास कोई उत्तर नहीं था। एक सदस्य ने विषय बदलते हुए पूछा- “इस कारागार से तुम्हें मुक्त कर दिया गया तो तुम बाहर जाकर क्या करोगे ?’‘ सावरकर उत्तर देते कि इससे पहले ही एक अन्य सदस्य बीच में बोल उठा- “राजद्रोह फैलाने का अपना पुराना काम फिर शुरु करेंगे और क्या करेंगे ?“
सावरकर ने कहा- “लगता है आप अन्तर्यामी हैं, जो मेरे मन-मस्तिष्क की आगे की योजना भी जान गये। खैर, मानो आगे चलकर मैंने पुनः राजद्रोह किया तो आपको मुझे गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। आपको तो यह देखना है कि मैं आज क्या कर रहा हूँ।.... मुझे व अन्य राजबंदियों को अच्छा आचरण होने के बावजूद जेल के अन्दर रखना न्याय तो नहीं है?’‘ इसके बाद सावरकर ने अण्डमान की जेल के भयंकर स्वरूप का वर्णन किया। बंदियों के साथ होने वाले अत्याचारों, असुविधाओं, पीड़ाओं और कष्टों से उन्हें अवगत कराया। इस कारण उन्होंने सावरकर की मुक्ति की सिफारिश नहीं की। फिर भी सावरकर को आत्मिक सन्तोष था कि उन्होंने (सावरकर ने) अपने हजारों बंदी साथियों की समस्याओं, कष्टों तथा उत्पीड़न की ओर आयोग का ध्यान आकृष्ट कर समुचित ढंग से अपना कर्त्तव्य पालन तो किया।
बहुत से राजबन्दियों की मुक्ति हुई तो सावरकर ने उन्हें विदाई देते हुए कहा था- “आज की मुक्ति का आनन्द क्षणिक है, अभी तो आप लोगों को बाहर जाकर भारत माता की मुक्ति के लिए और जुझारू बनकर संघर्ष करना होगा।’‘
महान राष्ट्रभक्त, पत्रकार व तेजस्वी नेता लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की मृत्यु का हृदयद्रावक दुखद समाचार जब सेलुलर जेल (अण्डमान) में गया, तो वीरवर सावरकर के आह्वान पर सभी बंदियों ने उपवास रखा और दूसरे दिन शोक सभा की। जबकि राजद्रोहियों के साथ सम्बंध या सहानुभूति रखने के आरोप में मुकदमा चला दिया जाता था, पर किसी ने भी इसकी चिन्ता नहीं की।
जिस समय सावरकर को यरवदा जेल में मुक्ति का सन्देश मिला तो वे अपनी व्याख्यानमाला के अन्तर्गत हुतात्मा मदनलाल ढींगरा के जीवन पर प्रकाश डाल रहे थे। ‘अभिनव भारत’ से सम्बंधित राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए फाँसी चढ़ाये गये वीर हुतात्माओं के बारे में वे पहले ही बता चुके थे। कल्पना कीजिये कि जिस व्यक्ति को मदनलाल ढींगरा के बलिदान के समय कारागार में डाला गया हो और 14 वर्षों बाद जिसके कारागार का दण्ड भी उसी महावीर की यशगाथा दोहराते हुए ही समाप्त हुआ हो, फिर भी कोई कपूत उसे कायर कहने की नीचता करे तो इससे बढ़कर लज्जा की बात और क्या हो सकती है? लगता है ऐसे व्यक्ति वीरता की सही परिभाषा ही नहीं जानते और वे अपनी तरफ भी तो झांककर देखें।
सावरकर को कारागार से मुक्त कर रत्नागिरि में नजरबन्द (स्थानबद्ध) कर दिया था। वहाँ प्लेग फैलने से सावरकर ने नासिक जाने की अनुमति माँगी, तो वह उनको मिल गई। समस्त महाराष्ट्र की ओर से 24 अगस्त को नासिक में सावरकर का स्वागत-अभिनन्दन किया गया। नवम्बर मास में रत्नागिरि वापिस जाते समय बम्बई में शौकत अली ने उनसे भेंट की। सावरकर की देशभक्ति तथा राष्ट्र के लिए सहे कष्टों की प्रशंसा करके उनके हिन्दू संगठन के कार्य को अनुचित व त्याज्य कहा तो सावरकर ने उनसे खिलाफत आन्दोलन समाप्त करने को कहा।
यह सुनकर शौकत बोले- “खिलाफत आन्दोलन तो उनकी रग-रग और नस-नस में समाया हुआ है, वह समाप्त नहीं होगा।’‘ सावरकर ने कहा- “तो हिन्दू संगठन भी जारी रहेगा।’‘ तब शौकत अली ने कहा- “यदि आप इसे बन्द नहीं करेंगे तो इसके परिणाम को भुगतने के लिए भी तैयार रहिये।“
सावरकर ने भी उसी भाषा में उत्तर दिया- “जिस ब्रिटिश राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होना माना जाता है, वह हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सका तो यह थोड़े से मुसलमान जो चाकू लिए घूमते हैं, उनकी परवाह कौन करता है ?‘’ शौकत अली कहने लगे कि “संसार में अनेक मुसलमान देश हैं, यदि आवश्यक हुआ तो वे भारत छोड़कर किसी भी मुस्लिम देश में जाकर बस जाएंगे।’‘ सावरकर बोले- “हाँ, आप लोग देश छोड़कर जाने के लिए स्वतंत्र हैं। आप प्रतीक्षा क्यों कर रहे हैं ? नित्य ही तो फ्रण्टियर मेल उस दिशा में जा रही है।’‘ यह सुनकर उसके होश उड़ गये। चलते-चलते बोले कि “वह (सावरकर) तो उसके सामने कुछ भी नहीं है, वह तो उसे यों ही मुट्ठी में भींच लेगा।“ सावरकर ने तपाक से कहा- “अफजल खान ने भी यही सोचा था और शिवाजी ने उसकी क्या दशा की थी, यह तुम भलीभाँति जानते हो।’‘ शौकत अली बिना एक शब्द कहे वहाँ से चला गया।
23 दिसम्बर 1926 को वीर संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द की दिल्ली में हत्या कर दी गई । तब रत्नागिरि के विट्ठल मन्दिर में एक शोक सभा हुई। उस समय सावरकर जी ने एक अत्यन्त हृदयस्पर्शी भाषण दिया- “पिछले दिन, अब्दुल रशीद नामक एक धर्मान्ध मुसलमान ने स्वामी जी के घर जाकर विश्वासघात से उनकी हत्या की। स्वामी श्रद्धानन्द जी हिन्दू समाज के आधार स्तम्भ थे। वे सैकड़ों मलकाना राजपूतों को शुद्ध करके पुनः हिन्दू धर्म में लाए थे। वे हिन्दू सभा के अध्यक्ष थे। यदि कोई इस घमण्ड में हो कि एक श्रद्धानन्द जाने से सारा हिन्दुत्व नष्ट होगा, तो उसे मेरी चुनौती है कि जिस भारतमाता ने एक श्रद्धानन्द का निर्माण किया, उसके रक्त की एक बूंद में लाखों श्रद्धानन्द निर्माण करने का अनोखा सामर्थ्य है। जहाँ औरंगजेब की लाखों तलवारें तथा तोपें हिन्दू धर्म को विचलित कर न सकी, वहाँ एक श्रद्धानन्द की हत्या से वह नष्ट नहीं होगा, बल्कि अधिक पनपेगा।’’
इसी समय ‘संन्यासी की हत्या का स्मरण रखो’ नामक लेख में सावरकर ने लिखा- ‘हिन्दू जाति के पतन से दिन-रात तिलमिलाने वाले हे महाभाग संन्यासी! तुम्हारा परम पावन रक्त बहाकर तुमने हम हिन्दुओं को संजीवनी दी है। तुम्हारा यह ऋण हिन्दू जाति कदापि न भूल सकेगी। (क्रमशः) - राजेश कुमार ’रत्नेश’
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