अण्डमान में जब पठान वार्डन और जमादार बारी की शह लेकर धर्मान्तरण का षड्यन्त्र रच रहे थे, तो सावरकर आगे आये। उन्होंने सुपरिण्टेण्डेण्ट को शिकायत की। पहले तो वह भी उपेक्षा करता रहा, पर सावरकर अड़े रहे और मुसलमान वार्डन को रंगे हाथों पकड़वाया। सुपरिण्टेण्डेण्ट ने उसे फटकार लगाई और सावरकर से बोले कि स्वेच्छा से यदि कोई धर्मान्तरण करे, तो उसे कैसे रोका जाए? हाँ, सख्ती या लालच के बल पर मैं किसी हिन्दू का धर्मान्तरण नहीं होने दूँगा।
सावरकर ने कहा- “मैं भी तो धार्मिक स्वाधीनता की माँग कर रहा हूँ। यदि कोई व्यक्ति कुरान या बाइबिल का अध्ययन करके उसकी अच्छाई से प्रभावित होकर स्वेच्छा से हिन्दू धर्म त्यागना चाहे तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। वह धर्मान्तरण के लिये अधिकारी को प्रार्थना-पत्र दे। अधिकारी पूरी जाँच करे और नाबालिग लड़के के धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध होना चाहिए। वैसे जेल के अन्दर धर्मान्तरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही ठीक रहेगा।“ सुपरिण्टेण्डेण्ट ने कहा- “तुम मुसलमानों को हिन्दू धर्म में दीक्षित क्यों नहीं कर लेते?“ सावरकर बोले- “हिन्दू धर्म किसी को बल या छल से अपने समाज में लाने में विश्वास नहीं रखता। वह धार्मिक स्वाधीनता के उदात्त तत्व पर अधिष्ठित है।’‘ सावरकर का प्रयास सफल रहा । पर शुद्ध हुए उस हिन्दू को पोंगापन्थी हिन्दू अपनी पंक्ति में बैठाकर भोजन करने को तैयार नहीं हुए तो सावरकर ने उन्हें खूब समझाया और हाथ जोड़कर विनती की। तब वे पसीजे और उसे स्वीकार किया। इसके बाद तो अपने-बेगानों के विरोध के बावजूद भी शुद्धि आन्दोलन चलता रहा। मुसलमान बनाये गये प्रायः सभी लोग शुद्ध कर हिन्दू बना लिये गये। अधिकारियों के निर्णय से धर्मान्तरण पर पूर्णतः रोक लग गई। उन्होंने कहा कि बंदी के अण्डमान पहुँचते समय उसका जो धर्म था, अन्त तक उसी को मान्यता दी जाएगी।
एक दिन सुपरिंटेण्डेण्ट ने सावरकर से कहा- “तुम्हारा छोटा भाई दिल्ली बमकाण्ड के सिलसिले में पकड़ा गया है। वह बहुत डरपोक मालूम होता है।‘’ सावरकर ने तत्काल पूछा- “आपको वह डरपोक किस प्रकरण से लगता है?’‘ वह बोला- ‘उसने दिल्ली बमकाण्ड का समाचार सुनते ही पुलिस प्रमुख को तार भेजा कि मैं इस समय कलकत्ता में हूँ । यह इसलिए सूचना दे रहा हूँ कि कहीं आप मुझे न फंसायें।“ सावरकर बोले- “तब तो वह पूरे कलकत्ता में सबसे चतुर व्यक्ति है। यद्यपि उसने बम नहीं फेंका । किन्तु यदि उसने फेंका होता तो भी तार भेजकर पुलिस को चमका देना ही चाहिए था। वह डरपोक कहाँ रहा? शत्रु को मात देकर उसके चंगुल से छूटने की युक्ति करना भी तो शूरवीरों का कर्त्तव्य है।’’ ऐसा मुँहतोड़ उत्तर सुनकर सुपरिण्टण्डेण्ट चौंक गया और चुपचाप खिसक गया।
एक दिन सुपरिण्टेण्डेण्ट सावरकर के पास आया और बोला- ’‘क्या लाला हरदयाल आपके निकट के मित्र थे ?’’ वे बोले- ’’हाँ, थे और उन जैसी महान विभूति से मित्रता पर मुझे आज भी गर्व है।’’ उसने कहा- ’’दिल्ली बमकाण्ड में हाथ होने तथा हत्या के आरोप में उन्हें पकड़ा गया है।’’ सावरकर बोले- ’’उनका हाथ होगा तो भी मेरे मन में उनके प्रति जो आदर है, वह कम कदापि नहीं होगा।’’ यह सुनकर सुपरिण्टेण्डेण्ट तो खिसक गया, पर साथी चिन्तित हुए कि कहीं विपरीत परिणाम न निकले। सावरकर ने उन्हें समझाया- “उन जैसे महान् क्रातिकारी देशभक्त नेता के पकड़े जाने पर हम भय से उनके प्रति सम्मान व्यक्त न करें, यह कैसे संभव हो सकता है ? वे हमारे नेता थे, मित्र थे, सहकर्मी थे। उनके प्रति आदर प्रदर्शित करने का यही तो अवसर था। इसके लिए जो दण्ड मिलेगा, उसे भी सहन करेंगे।’’ वाह जननी ! तुझे धन्य है जो ऐसे वचन के पक्के वीर पैदा किये। (क्रमशः) - राजेश कुमार ’रत्नेश’
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