किसी समय कपिल, कणाद, गौतम, भगवान् कृष्ण, पतञ्जलि, तथागत बुद्ध और वर्द्धमान महावीर आदि के प्रयासों से सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा का साम्राज्य व्याप्त था। चीन, जापान, श्वेतद्वीप (सोवियत भूमि) रूस और अमेरिका तक में भगवान् गणेश तथा बुद्ध आदि की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं और अब भी वहाँ अपेक्षाकृत शान्ति, ज्ञान-विज्ञान और सद्भावना-प्रेम आदि का पर्याप्त प्रचार है, किंतु खेद है कि अहिंसा की मूल जन्मभूमि भारत और उसके पार्श्ववर्ती देशों-लंका, बर्मा, इंडोनिशिया, बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईराक, अफ्रीका और यूगोस्लाविया आदि में हिंसा का नग्न ताण्डव और वर्षों से निरन्तर युद्ध की स्थिति देखी जा रही है। जिससे लाखों निरपराध स्त्री-पुरुष असमय में ही कालकवलित हो रहे हैं। फिर पशु-पक्षियों आदि अन्य निरीह प्राणियों की बात ही क्या? वास्तव में ये सभी भगवान् के ही रूप हैं और पूजा के पात्र हैं। कहना नहीं चाहिये, भारतीय अहिंसा-धर्म के अहिंसा परमो धर्मः और परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा आदि की उपेक्षा होकर इस्लाम आदि के प्रचार के बाद ही यह स्थिति बढती गयी है।
भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है और अहिंसा पर ही हमारा अस्तित्व टिका हुआ है। अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतो के लिये ही नहीं प्रत्युत सभी सामान्य लोगों के लिये है। महात्मा गाँधी ने जीवन भर अहिंसा का अनुसरण किया। उन्होंने अहिंसा के बल-बूते पर भारत-जैसे विशाल देश को परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त कराया। अहिंसा में आध्यात्मिक शक्ति होती है, इसका सम्बन्ध आत्मा से होता है जबकि हिंसा में जंगलीपन और पशुबल होता है। आज सर्वत्र भौतिकवाद का प्रसार होने से अहिंसा में लोगों की आस्था घट रही है, मानव-मूल्यों का पतन हो रहा है, जिससे हिंसा, स्वार्थपरता, धनलोलुपता, व्यक्तिवादिता को प्रोत्साहन मिला है। हिंसा की वृद्धि व्यक्ति की संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचायक है। हिंसा के बढने से समाज में सब और अव्यवस्था, अशान्ति, अविश्वास, असुरक्षा की भावना व्याप्त है। चाहे शिक्षा के क्षेत्र में हो या कृषि के क्षेत्र में अथवा आहार-समस्या के निराकरण के लिये हो- सभी और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा को प्रोत्साहन मिल रहा है।
आज सभी वर्गों में चोरी, डकैती, मारकाट, हत्याएँ, छल-कपट आदि सामान्य बात हो गयी है। घूसखोरी, मिलावट, रिश्वतखोरी में तो आज दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। चोर-पूजा और व्यभिचार-पूजा से समाज का बड़ा अहित हो रहा है। यह अत्यन्त खेद का विषय है कि मनुष्य पशु से भी अधिक हिंसक हो गया है। पशु तो अपनी और अपने परिवार की क्षुधानिवृत्ति के लिये ही केवल अपने हाथ, पैर और दाँत द्वारा हिंसा करता है, लेकिन मनुष्य ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसे विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कर लिया है जो असंख्य प्राणियों को एक साथ मारने की क्षमता रखते हैं। पशु स्वजाति-संहार प्रायः नहीं करता, लेकिन मनुष्य युद्ध, बलवा, क्रान्ति द्वारा जितना स्वजाति-संहार कर रहा है उसकी कल्पना पशु भी नहीं कर सकता।
हम आये दिन समाचार पत्रों में पढते हैं कि अमुक स्थान पर कुछ छात्रों ने बसे जला दीं, रास्ता जाम कर दिया। कॉलेज की प्रयोगशाला तथा कार्यालय के शीशे तोड़ दिये, कुलपति के निवास में आग लगा दी और घर की स्त्रियों को अपमानित किया, ईमानदार परीक्षा-निरीक्षक को छुरा भोंक दिया, क्योंकि उसने उन्हें नकल करने से रोका था। प्राचीन काल में हमारे विद्यार्थी विनय और आचार्य आदि की सेवापरायणता के लिये प्रसिद्ध थे, आज वे उद्दण्डता, उच्छृड्खलता के लिये विख्यात हैं। आज औषधि तथा अन्य प्रयोगों के लिये बंदरों की हत्या की जाती है, क्रोम प्राप्त करने के प्रयोजन से जीवित प्राणियों के चमड़े को बड़ी क्रूरता से उतारा जाता है, अनेक अंग्रेजी दवाएँ जीवों की हिंसा से ही तैयार की जाती हैं। खेती में जो जीव-हिंसा होती है, वह सर्वविदित है।
आज शोषक शोषितों का खून पीकर भी संतुष्ट नहीं हैं। शक्तिशाली राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों को खा जाना चाहते हैं। स्कूलों में नित्यप्रति हड़तालें, परीक्षाओं का बहिष्कार, अध्यापकों का अनादर आदि अनेक अशोभनीय घटनाएँ घटती हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि शिक्षा और सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं है।
हिंसावृद्धि के कारण
(1) आज की शिक्षा धर्मविहीन है। केवल धन कमाने के लिये दी जानेवाली यह शिक्षा विद्यार्थी को धन कमाने के योग्य भी नहीं बना पाती। प्रतिवर्ष विश्वविद्यालयों से लाखों विद्यार्थी विभिन्न क्षेत्रों में डिग्री प्राप्त करके निकलते हैं, लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिलती। आज का छात्र अपने भविष्य की अनिश्चितता, बेरोजगारी, दिशाहीनता, महँगाई आदि से दुःखी होकर निराश हो गया है। उसके सामने कोई रास्ता नहीं है, वह किसी भी दिशा में मुड़ जाता है।
(2) समाज का अभिनन अङ्ग होने से विद्यार्थी पाश्चात्त्य अनीश्वरवादी विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित हुआ है। व्यक्तिवादी और स्वार्थवादी प्रवृत्ति के विकास के साथ हमारे परम्परागत सामाजिक मूल्यों जैसे त्याग, परोपकार, सेवा-भावना आदि में शिथिलता आ गयी है। शिक्षित व्यक्तियों द्वारा की गयी चोरी, डकैती, आगजनी, घूसखोरी तथा स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार, शिक्षण-क्षेत्र में मानव-मूल्यों में पतन की ओर संकेत करते हैं।
(3) समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों का व्यवहार अन्य लोगों के समक्ष उच्च आदर्श प्रस्तुत नहीं करता। प्रायः समाज के नेता अशोभनीय, अनुशासनहीन एवं अनैतिक उच्छृड्खल व्यवहार करते हैं और धर्म तथा सदाचार का अनादर करते हैं तथा धर्म-निरपेक्षता का निर्लज्जतापूर्वक नारा लगाते हैं। जिसका अर्थ है कि धर्मकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं। जिसका छात्रों के अविकसित मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ता है। संसद और विधान-सभाओं में आये दिन घूँसेबाजी, मारपीट की घटनाएँ घटित होती हैं।
(4) अभिभावक प्रायः अपने बच्चों की अमर्यादित हरकतों के प्रति उदासीन रहते हैं। शिक्षक भी प्रायः अपने विद्यार्थियों की भलाई के लिए इतने चिन्तित नहीं रहते, जितने वे उन्हें प्रसन्न तथा संतुष्ट रखने के लिये अथवा टकराव से अपने-आपको बचाने के लिये चिन्तित रहते हैं।
(5) हिंसा की वृद्धि में अश्लील, कामोत्तेजक, मारकाट से भरपूर चल-चित्रों के प्रदर्शन का भी योगदान कम नहीं है। आज भौतिकवादी चकाचौंध ने धर्म में आस्था कम कर दी है और संयम के अभाव में व्यभिचार, हिंसा, बेईमानी आदि को बढावा मिला है।
(6) आज धनलोलुपता बढ रही है। हर व्यक्ति किसी भी प्रकार से पैसा बटोरना चाहता है, क्योंकि समाज में पैसे वाले व्यक्ति की ही पूछ होती है। आज समाज यह नहीं देखता कि पैसा ईमानदारी से कमाया है या बेईमानी से। बिना परिश्रम किये धन प्राप्त करने की चाह चोरी, डकैती, गबन एवं हत्याओं के लिये उत्तरदायी है। धन की भूख दहेज को प्रोत्साहन दे रही है, जिसकी बलि-वेदी पर अनेक निर्दोष बहू-बेटियाँ भेंट होती चली जा रही हैं।
(7) जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद आदि की बुराईयों ने सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण को विषाक्त बना दिया है। पारस्परिक द्वेष तथा वैमनस्य के कारण दंगों के अवसरों पर न जाने कितनी दूकानें लूटी जाती हैं, न जाने कितनी राष्ट्रीय सम्पत्तियाँ नष्ट की जाती हैं। इस प्रकार के झगड़ों तथा तनाव से राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न होता है।
हिंसा पर नियन्त्रण के लिये कुछ सुझाव
हम अपने अंदर से संकीर्ण मनोवृत्तियों को दूर करें तथा दया और अहिंसा धर्म की ओर ही लौटें। समस्त प्राणियों में भगवान् को देखते हुए सेवा और सद्भावना का विस्तार करें। शिक्षा में सभी धर्मों की महत्त्वपूर्ण बातों को स्थान मिलना चाहिये। माता-पिता को अपने बच्चों की गतिविधियों पर दृष्टि रखनी चाहिये और उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना चाहिये। शिक्षक तथा नेतागण भी समाज का हित सर्वोपरि रखकर कार्य करें। वेद, गीता, रामायण, उपनिषद आदि का स्वाध्याय ईश्वर-विश्वास की ओर ले जाता है। कल्याण-प्राप्ति की पहली सीढी है परमात्मा और परलोक पर पूर्ण विश्वास, कर्मफल के भोग की निश्चयता और भक्ति, ज्ञान, योग, वैराग्य आदि का आश्रय। जब तक बुद्धि पूर्ण शुद्ध और तत्त्वदर्शी नहीं होगी, तब तक व्यक्ति कर्त्तव्या-कर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर पायेगा। इसलिये एक परमात्मा पर ही परम विश्वास रखकर उनके प्रति शरणागत भाव से रहकर उनके नामों एवं गायत्री आदि का जब करते हुए बुद्धि-शुद्धि के लिये ही प्रार्थना करनी चाहिये। बुद्धि और ज्ञान से कर्तव्यविमूढता दूर होकर अहिंसा आदि के प्रति आस्था होती है और प्राणी सर्वत्र भगवान् को देखते हुए कभी घबराता नहीं और सदा शान्त रहकर अपना तथा सबका कल्याण करता है, जिससे सभी राष्ट्रों और सभी विश्व का शीघ्र ही परम कल्याण हो सकता है। - डॉ. महेश विद्यालंकार (दिव्ययुग- अक्टूबर 2018)
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