भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा परम्परा वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन पर आधारित है। उसके मुताबिक अपने तथा पराये, मेरे-तेरे में कोई फर्क नहीं। सभी एक समान हैं। सभी को एक जैसे अधिकार हैं तथा सबके एक समान कर्त्तव्य हैं। असल में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश देते हुए वसुधैव कुटुम्बकम् की बात कही थी, जिसके अनुसार हम सभी एक दूसरे के मित्र, बन्धु तथा सम्बन्धी हैं। मेरे-तेरे की भावना से ऊपर उठकर युद्ध करो और ऐसा करते समय इस बात का भेद मत करो कि युद्ध क्षेत्र में सामने खड़ा तुम्हारा मित्र, सखा अथवा बन्धु है अथवा शत्रु है। भारतीय दर्शन में ऐसे अनेकों अनेक उदाहरण हैं जिनमें मेरा-तेरा से ऊपर उठकर बात कही गई है। हम रोज अपने घरों में तन-मन-धन सब है तेरा, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा, जो प्रभु की आरती करते हैं वह वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना ही प्रकट करती है। हम जो दान-पुण्य करते हैं, लंगर चलाते हैं, ग्रहण लगने पर दया धर्म की बातें करते हैं। वह सब तेरा-मेरा की भावना कम करने के लिए ही करते हैं। राजा बलि ने तेरा-मेरा की भावना से ऊपर उठकर अपना सारा राज्य दान कर दिया था। कहते हैं कर्ण तो इतना दानी था कि हर रोज बहुत सा सोना दान करता था। हमारे यहां अतिथि देवो भव: की भावना से अतिथियों की श्रद्धा भावना से सेवा की जाती है। किसी भी मांगने वाले को दर से खाली नहीं जाने दिया जाता है। इस तरह हमारे सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में वसुधैव कुटुम्बकम् कूट-कूटकर भरा हुआ है।
लेकिन आजकल वसुधैव कुटुम्बकम् मजाक बनकर रह गया है। जितना इस धारणा का हमारे राजनेता दुरुपयोग कर रहे हैं, उतना शायद ही कोई और करता होगा। भारतीय राजनीति तो वसुधैव कुटुम्बकम् के बदले में मेरा-तेरा की भावना के आसपास ही घूमती है। यह बात किसी एक राजनीतिक दल या राजनेता पर ही लागू नहीं होती, बल्कि इस बीमारी से सभी ग्रस्त हैं। भारतीय राजनीति में परिवारवाद/वंशवाद अपनी जड़े मजबूत कर चुका है। राष्ट्रीय दलों के बदले में क्षेत्रीय दल पनप रहे हैं, जिन पर किसी ना किसी परिवार का कब्जा है। यह परिवार उस दल का नेतृत्व किसी बाहर वाले के पास या तो जाने नहीं देता या फिर बाहर वाले को अपनी कठपुतली बनाकर रखना चाहता है। ऐसे में राजनीति में आन्तरिक लोकतन्त्र तो गायब हो ही रहा है। तानाशाही, भ्रष्टाचार, धन तथा सम्पत्ति का केन्द्रीकरण तथा भाई भतीजावाद बढ रहा है। राजनीति की यह प्रणाली मैं-मेरे-तेरे के आसपास ही घूमती है। अगर किसी सांसद/विधायक की मृत्यु हो जाये तो उसके बदले में उसकी पत्नी, बेटा, बेटी या और कोई निकटतम सम्बन्धी उसकी खाली सीट पर चुनाव लड़कर इसकी कमी पूरी करता है। ऐसे में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना गायब हो जाती है।
हमारे यहाँ राजनीति के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि धार्मिक क्षेत्र में भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना दम तोड़ रही है। कहने को तो हमारा संविधान पन्थनिरपेक्षता की भावना पर आधारित है। लेकिन कटु सत्य यह है कि कभी ना कभी ऐसी स्थिति जरूर पैदा हो जाती है, जब लोग तुलना करने के बाद केवल अपने ही पन्थ को अन्य पन्थों के मुकाबले में श्रेष्ठ तथा दूसरे पन्थ को हेय समझते हैं। इसी बात से धार्मिक उन्माद पैदा होता है। संसार के कई भागों में आतंकवाद के पनपने तथा जेहाद की भावना के फैलने का कारण भी केवल अपने सम्प्रदाय को ज्यादा ठीक / प्रासंगिक समझना है। बेशक सभी मजहब दया, सहिष्णुता, मानवता का पाठ पढाते हैं, लेकिन जब इन बातों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तब लगभग सभी मजहब वसुधैव कुटुम्बकम् को भूल तेरे-मेरे में फर्क करने लगते हैं।
केवल इतना ही नहीं आर्थिक क्षेत्र में भी वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना ऐड़ियाँ रगड़ रही है। अमीर लोग गरीबों का खून चूसकर और अमीर बन रहे हैं। गरीब लोगों को दिन रात काम करके भी दो समय की रोटी नहीं मिलती। अगर वसुधैव कुटुम्बकम् नाम की कोई चीज होती तो अमीर लोग अपने अतिरिक्त संसाधनों से गरीबों की यथायोग्य सहायता करते और देश में समाजवाद आ जाता। लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करते। हाँ, दिखावा करने के लिये वे कभी-कभी गरीबों को सर्दियों में कम्बल-रजाईयां बांट देते हैं। एक दो अस्पताल या स्कूल बनवा देते हैं या फिर श्मशान भूमि में शोक सन्तप्त लोगों के बैठने के लिए जगह बनवा देते हैं और कहीं-कहीं वाटर कूलर का प्रबन्ध कर देते हैं। इतने में उनकी अमीरी और बढ जाती है। हमारे देश तथा विश्व की विभिन्न समस्याओं का कारण वसुधैव कुटुम्बकम् का अभाव है। अगर इसकी भावना पर चला जाये तो विश्व शान्ति, सहयोग, समानता, कल्याण, भाईचारा, विकास, नैतिकता, शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार आदि को बढावा मिल सकता है। - प्रो.शामलाल कौशल (दिव्ययुग- जून 2015)
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