एडम्स ब्रिज- तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि जो वामपंथी विचारक हैं, उन्होंने अपनी एक सभा में कहा कि मैं एडम्स ब्रिज के बारे में जानता हूँ, रामसेतु के बारे में नहीं। यदि राम हुए थे तो उन्होंने किस विश्वविद्यालय से इंजीनियर की डिग्री ली थी?
बेचारे करुणानिधि ने वही तो पढ़ा जो उनके आदर्श अंग्रेजों ने पढ़ाया। 1300 वर्ष पूर्व व्यापार करने व इस्लाम के प्रचार के लिये अरब निवासियों के जहाज श्रीलंका का चक्कर लगा पूर्व में जाते थे। उनके जहाज भी रामसेतु के कारण भारत-लंका के बीच से नहीं जा पाते थे। अरब निवासियों ने इसे आदम (आदमियों) का पुल कहा, जो कालांतर में मुसलमानों-ईसाइयों-यहूदियों के आदि पैगम्बर आदम के नाम पर पुकारा जाने लगा । बाद में योरोप के व्यापारी आये, जो इस सेतु को एडम्स (आदम) ब्रिज कहने लगे। रही बात भारत में कुशल शिल्पज्ञों की, तो तमिलनाडु में ही पांच मंजिल से लेकर बीस मंजिल तक के मन्दिरों के गोपुरम् बने हैं। इनमें बीस-बीस टन के पत्थरों के बीम ऊपर की मंजिलें उठाने के लिये बनाये गये हैं। ये मंदिर और गौपुरम् एक हजार वर्ष तक पुराने हैं। उस काल में शक्तिशाली क्रेन नहीं थी । हमारे पूर्वजों ने इतने भारी पत्थरों को ऊपरी मंजिलों तक कैसे पहुँचाया होगा और बिना सीमेन्ट ये मंजिलें कैसे खड़ी हैं, यह खोज का विषय है। तब सारे योरोप में युनिवर्सिटी तो क्या, एक विद्यालय भी नहीं था।
बाद के काल में भारत पर मुसलमानों के हमले प्रारंभ हो गये। मंदिर तोड़े जाने लगे, जनता और राजा अपना धर्म तथा प्राण बचाने वनों-पर्वतों पर भागते फिर रहे थे, तो राम सेतु की मरम्मत कौन राजा कराता। धीरे-धीरे सागर की लहरों ने सेतु की लकड़ियों को गला दिया और अपने साथ बहा ले गयीं। आज कहीं टापू के रूप में, तो कहीं तीन से लेकर दस फिट तक उथले सागर के रूप में रामसेतु के चिन्ह बाकी हैं, जो हिन्दू विद्वेषियों द्वारा मजाक में उड़ाये जा रहे हैं।
भगवान राम के साथ कुशल शिल्पज्ञ ही नहीं, कुशल भूगर्भ शास्त्री भी थे। आज के भूगर्भ शास्त्री सागर तल के नीचे छिपे तेल और प्राकृतिक गैस का पता निकाल लेते हैं और सागर में प्लेटफार्म बना तेल-गैस निकाली जाती है। राम की सेना में 3-4 लाख वानर सैनिक थे। भारत की मुख्य भूमि रामनाथपुरम् में तो वानर सेना को वेगई नदी से मीठा पानी मिलता था, किन्तु रामेश्वरम् के द्वीप में वानर सेना के लिये मीठे पानी को खोज कुए खोदे गये, जो आज भी देखे जा सकते हैं। आश्चर्य की बात है कि रामसेतु निर्माण करती वानर सेना के लिये मीठे पानी के कई कुए सागर जल में खोदे गए थे। कालान्तर में वे नष्ट हो गये, किन्तु रामेश्वरम् से धनुकोष्टि के मार्ग में सागर जल में भूमि से सौ फीट दूर मीठे पानी का एक कुआ आज भी पूर्ण सुरक्षित अवस्था में है और मीठा जल दे रहा है। धनुष्कोटि से आगे तक दो सौ फीट चौड़े रामसेतु के भूमि मार्ग के दोनों ओर सागर है। जहाँ खोदो सागर का खारा पानी ही निकलता है। किन्तु राम के समय खोदे गये मीठे पानी के कुए वहाँ भी हैं, जो वानर सेना को तीस किलोमीटर लम्बे सेतु मार्ग पर मीठा जल उपलब्ध कराते थे। पाठक स्वयं जाकर अपनी आंखों से देख सकते हैं और मीठा पानी पी सकते हैं।
कैसे हुआ रामायण का लेखन- ऐसा नहीं हुआ कि वाल्मीकि ने कलम उठाई और रामायण लिख दी। लिपिबद्ध होने के पूर्व रामकथा सूत जी (संवाददाता) और नारद जी (पत्रकार) द्वारा राजाओं व जन साधारण को सुनाई जाती थी। ये संवाददाता और पत्रकार शत्रु-मित्र का भेद किये बिना सभी स्थानों पर पहुंच जाते थे। ये सूत और नारद अवध्य थे। (वाल्मीकि रामायण के महात्म्य के प्रथम व दूसरे अध्याय में वाल्मीकि ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।)
लेखक समकालीन हैं, न तो राम के पूर्व हुए न बाद में। सीता की पवित्रता व लव-कुश के राम का ही पुत्र होने का प्रमाण देने वे स्वयं राम दरबार में उपस्थित हुए थे। उन्होंने स्वयं को प्रचेता (वरुण) का दसवाँ पुत्र कहा है। (वाल्मीकि रामायण उत्तरा कांड 96वां सर्ग)
वाल्मीकि ब्राह्मण थे। उनके एक भाई वशिष्ठ महाराज दशरथ के दरबार के सदस्य थे। वरुण के दो पुत्र अगस्त्य व उनका भाई सेना लेकर रावण को गोदावरी पार करने से रोक रहे थे। वरुण के एक पुत्र सुषेण वानर सेना में भरती हो लंका युद्ध में गये थे। नारद भी वरुण के पुत्र थे। इस प्रकार अपने पांच भाइयों से वाल्मीकि ने राम कथा सुनकर उसका लेखन किया।
सीता का प्रसव वाल्मीकि के आश्रम में हुआ व लव-कुश के साथ सीता सोलह वर्ष वाल्मीकि आश्रम में रही। सीता से वाल्मीकि को मिथिला व लंका की सम्पूर्ण कथा ज्ञात हुई। वाल्मीकि के पिता वरुण का स्वयं रावण से युद्ध हुआ था। उन्होंने अपना व अपने पड़ौसी निवात कवचों (सिन्ध) व कालकेयों का रावण से हुए युद्ध का वर्णन वाल्मीकि को सुनाया। संभवतः लंका युद्ध से लौटे और रामदरबार में उपस्थित हुए विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवन्त से वाल्मीकि ने भेंटकर रामकथा ज्ञात की होगी। (बालकाण्ड प्रथम सर्ग)
वाल्मीकि ने लिखा है कि राम की सारी कथा नारद जी ने उन्हें सुनाई थी। बालकाण्ड दूसरे सर्ग में ब्रह्मा वाल्मीकि से कहते हैं कि तुम श्रीराम के प्रकट या गुप्त वृत्तान्त लिखो, वे सब तुम्हें ज्ञात हो जायेंगे, तुम्हारी कोई बात झूठ नहीं होगी। बालकाण्ड के तीसरे सर्ग में लिखा है कि वाल्मीकि राम के जीवन के बारे में साक्षात्कार लेने का प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार हुआ रामकथा का सत्य लेखन।
वाल्मीकि रामायण कल्पित नहीं- वाल्मीकि रामायण को आदि ग्रन्थ कहा गया है। उसके पूर्व के चारों वेद, उपनिषद और छः शास्त्र श्रुति-स्मृति कहे गये हैं, याने लिखे गये नहीं, सुने गये और याद रखे गये शास्त्र। उस काल में भाषा तो थी, किन्तु लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था। संभवतः वाल्मीकि ने ही शब्दों की अक्षरों में अभिव्यक्ति के लिये लिपि का आविष्कार किया और रामकथा लिख दी, जो विश्व का आदि ग्रंथ कहलाया और वाल्मीकि आदि कवि। याने भारत में 17 लाख वर्ष पूर्व लिपि का आविष्कार हुआ था। विश्व की कोई जाति मिश्र के हों या अरब के, बेबिलोन के हों या रोम के, अपनी मिश्री, रोमन, अरबी, हिब्रू लिपियों तथा उनके जन्मदाताओं और लिखे गये प्रथम ग्रन्थ का उल्लेख नहीं करते। स्पष्ट है कि उनकी लिपि के अक्षर अन्य लिपियों से लिये गये हैं।
यदि यह सत्य होता कि पश्चिमी विद्वानों के कथनानुसार आर्य 5000 वर्ष पूर्व पश्चिम या योरोप से चलकर भारत आए थे तो उनके शास्त्र, वेद, उपनिषद, स्मृति और छः शास्त्र श्रुति या स्मृति नहीं कहलाते, रोमन, अरबी, हिब्रू या मिश्री लिपि में लिखे गये होते। क्योंकि उन आर्यों ने पश्चिम की लिपि भी साथ लानी थी। है उल्टा याने जिस प्रकार पश्चिम ने एक से नौ तक के अंक तथा शून्य भारत से ही लिया है और उसे हिन्दवी कहते हैं, उसी प्रकार भारत की शारदा (गुरुमुखी) और मोड़ी लिपि के शब्दों में फेर बदलकर पश्चिम की लिपियों का आविष्कार हुआ है। ये दोनों लिपियाँ मध्य एशिया व ईरान-ईराक में चलती थीं, अजर बैजान के खंडहरों में सर्वत्र शारदा लिपि खुदी है।
रामायण की प्राचीनता के एक प्रमाण है कि उसमें कवच व शिरस्त्राण (टोप) तथा तीर के फलक स्वर्ण निर्मित कहे गये हैं लोहे के नहीं। क्योंकि तब तक लोहे का व्यापक उपयोग नहीं हो पाया था। सभी शस्त्रादि सोने या कांसे से बनाये जाते थे। लोहे की खोज तो हो चुकी थी। रामायण में लोहे का वर्णन एक दो स्थानों पर ही आया है। एक तो जनक के दरबार में शिव धनुष लोहे की पेटी में रखकर लाया गया था और भारत में लोहा सर्वप्रथम बिहार (मिथिला) की खानों में ही खोजा गया। आज भी लोहे का सर्वाधिक उत्पादन बिहार में होता है।
वाल्मीकि रामायण को कल्पित कहने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि रामायण में वर्णित राम सम्बन्धी सभी स्थान मौजूद हैं। जनता लाखों वर्षों से उनकी स्मृति संजोये है। राम के सभी संबंधित स्थान चित्रकूट से लेकर लंका तक फैले हैं। क्या एक कल्पित कथा लिखकर वाल्मीकि उन सभी स्थानों पर गये थे और वहाँ के लोगों से कहा था कि मैंने लिख दिया है, आप इस स्थान की पूजा शुरु कर दो। शरभंग ऋषि के आश्रम की कथा है कि वहाँ ऋषियों ने श्रीराम को वह स्थान दिखाया, जहाँ राक्षसों द्वारा मारे गये ऋषियों के नर कंकाल पड़े थे। शरभंग आश्रम था सतना के पास, आज भी वहाँ मानव अस्थियाँ बिखरी पड़ी हैं। क्या वाल्मीकि ने अपनी कथा को सत्य सिद्ध करने के लिये वहाँ की भूमि में मानव हड्डियाँ गड़वा दी। भारत में जहाँ शवों को जलाया जाता है, राम कथा को सत्य बनाने के लिये इतनी मानव अस्थियाँ लाये कहाँ से ? सतना में पाई गई इन अस्थियों के बारे में एक वामपंथी ने कहाँ कि वहाँ कोई युद्ध हुआ होगा, उनकी अस्थियाँ होगीं। अगर युद्ध में मरे लोगों की अस्थियाँ होतीं, तो इन अस्थियों में बच्चों की अस्थियाँ कहाँ से आ गईं? यदि यह स्थान युद्ध भूमि था, तो यहाँ कोई शस्त्र तो मिलना था।
सत्य यह है कि समाजवादी मानसिकता वाले हिन्दू धर्म विरोधी और कांग्रेस की ईसाई लाबी के लोग बाल की खाल निकालने की कोशिश में लगे हैं, जो सफल होंगे नहीं और राम भी ऐतिहासिक सिद्ध होंगे तथा रामसेतु भी 17 लाख वर्ष पूर्व भारतीयों द्वारा बनाया गया सिद्ध होगा। राम के लंका जाने के मार्ग में भारत की दो प्रसिद्ध नदियों नर्मदा व ताप्ती का कहीं उल्लेख नहीं है। मालवा के दो प्रसिद्ध तीर्थों जो ज्योतिर्लिंगों के स्थान हैं, अवंतिका (उज्जैन) और ओंकारेश्वर (मान्धाता) इनका भी रामपथ पर उल्लेख नहीं है। यदि कल्पना से ही रामायण लिखी गई होती तो इन प्रसिद्ध स्थानों, और नदियों को नहीं छोड़ा गया होता। ऐसा नहीं है कि वाल्मीकि इनके बारे में जानते नहीं हों। सहस्त्रार्जुनरावण संघर्ष में वाल्मीकि ने नर्मदा व माहिष्मती का वर्णन किया है। (वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड बत्तीसवां सर्ग श्लोक 1 से 8) (क्रमशः) - रामसिंह शेखावत
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