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भारत अब भाषाई दासता नहीं सहेगा

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विश्‍व हिन्दी सम्मेलन भोपाल में दिव्ययुग के सम्पादक वृजेन्द्रसिंह झाला का प्रसिद्ध साहित्यकार सी नरेन्द्र कोहली से साक्षात्कार
प्रसिद्ध साहित्यकार नरेन्द्र कोहली का मानना है कि अंग्रेजी लोगों की पसन्द नहीं है, बल्कि ऊपर से थोप रखी है। पहले तुर्कों और मुगलों ने अरबी, फारसी थोपी, फिर अंग्रेजों ने अंग्रेजी थोप दी और आप हैं कि उसी को चलाए जा रहे हैं।

पिछले दिनों भोपाल में आयोजित विश्‍व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर बातचीत के दौरान श्री कोहली ने कहा कि आपने स्वयं तय कर लिया है कि छोटे कामों के लिए हिन्दी चलेगी। चपरासी, सेना के नॉन कमीशण्ड अधिकारी हिन्दी बोलेंगे और अधिकारी अंग्रेजी बोलेंगे। ऐसा क्यों? उच्च शिक्षा क्यों नहीं भारतीय भाषाओं में दी जाती?

उन्होंने कहा कि भारतीय जनमानस अब भाषाई दासता नहीं सहेगा। कहने में मेरी बात थोड़ी कठोर लग सकती है, लेकिन अगर जनता उठ खड़ी हुई तो सब कुछ इतने सहज भाव से नहीं होगा। खून-खराबा भी हो सकता है। आखिर कभी तो उठेगी ही जनता। फ्रांस और रूस में जो हुआ वह हम सबको मालूम है।

सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में नरेन्द्र मोदी द्वारा यह कहना कि ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि हिन्दी में तमिल, बंगाली, गुजराती मेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के अच्छे शब्द लिए जाएं और इन भाषाओं में भी हिन्दी के शब्द शामिल किए जाएं। श्री कोहली कहते हैं कि मोदी ने कहा है इसलिए ठीक है, लेकिन मैं इससे बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ। दरअसल लेखक और साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी भाषा के शब्द लेकर ही आते हैं। कृष्णा सोबती की रचनाओं में पंजाबी शब्द काफी देखने को मिलते हैं, वहीं फणीश्‍वर नाथ रेणु ने तो खगड़िया के शब्दों (स्थानीय शब्द) का अपनी रचनाओं में उपयोग किया है।

परोक्ष रूप से नीति नियन्ताओं पर निशाना साधते हुए कोहली कहते हैं कि जो भाषा आप निर्माण कर रहे हैं वह दुबई, काबुल और लाहौर में समझी जाएगी। क्योंकि आप इसमें फारसी और अरबी डाल रहे हैं। यह महाराष्ट्र बंगाल, गुजरात, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों में नहीं समझी जाएगी। उन्होंने कहा कि भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं में संस्कृत मूल के शब्द हैं। अत: शब्दावली भी संस्कृत मूल की ही होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो भारत की भाषाएं और उनके बोलने वाले खुद-ब-खुद एक दूसरे के करीब आ जाएंगे।

श्री कोहली कहते हैं कि मैं सिर्फ रचना लिखता हूं। किसी वर्ग विशेष के बारे में सोचकर नहीं लिखता। जो लोग सोचकर लिखते हैं, वे सिर्फ कृत्रिम साहित्य रचते हैं। उनसे पूछा गया था कि बच्चों के लिए किस तरह का साहित्य रचा जाना चाहिए। (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

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