विशेष :

आर्यसमाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

संगठन में उपदेशक का कोई स्थान नहीं

आर्यसमाज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसके संगठन में उपदेशक का कोई सम्मान नहीं है। केवल वही उपदेशक या विद्वान् यहाँ सम्मान पाने में सफल हुए हैं, जो आर्थिक दृष्टि से आर्यसमाज के वेतनभोगी नहीं बने तथा जिन्होंने नेतृवर्ग में अपना स्थान बना लिया। जिस प्रकार जैनों में तथा ईसाइयों में उच्चतम धनी घरानों के युवक तथा युवतियाँ भी साधु तथा पादरी बनने में गौरव का अनुभव करते हैं तथा सभी गृहस्थ लोग उन्हें अपने श्रेष्ठ एवं पूजनीय मानकर उनके आगे झुकते हैं, वैसी स्थिति आर्यसमाज में नहीं है और न ही सनातन धर्म के उपदेशकों जैसी ही स्थिति आर्यसमाजी उपदेशकों की है। परिणाम स्पष्ट है। सभी वैतनिक उपदेशक हीनभाव एवं असन्तोष से ग्रस्त हैं। कई योग्य व्यक्तियों को संन्यासी बनने के बाद भी अपनी वृद्धावस्था या रुग्णावस्था में पुनः अपने पुत्रादि की शरण लेनी पड़ी। (इस सन्दर्भ में महात्मा आनन्द स्वामी, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती एवं महान आर्य दार्शनिक पण्डित उदयवीर शास्त्री के उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। -सम्पादक)

न्यासी एवं महिला प्रचारिकाएँ आर्यसमाज में गिनी-चुनी हैं। जो इस समय उपदेशक हैं, वे भी अपनी हीनावस्था के कारण अपनी सन्तानों को उपदेशक बनाने को तैयार नहीं। धनी बापों के बेटे कभी आर्यसमाज के प्रचारक नहीं बनते। वैतनिक उपदेशकों की संख्या पहले से सभी आर्य प्रतिनिधि सभाओं में बहुत घट गई है। उपदेशकों एवं पुरोहितों को आर्यसमाज के वकील एवं व्यापारी अधिकारी भाषण देने और संस्कार कराने के विषय में निर्देश देते हैं कि ऐसी बात कहो, ऐसी न कहो, संस्कार इतनी देर में करवाओ, इतनी देर न लगाओ आदि। उत्सवों के समय लीडरों के चारों ओर जहाँ अधिकारी मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते हैं, वहाँ पण्डितों को कोई पूछता नहीं। नेता या मन्त्री के आते ही पण्डित जी को अपना भाषण बन्द करने का संकेत मिल जाता है और मन्त्री जी का प्रशस्तिगान आरम्भ हो जाता है।

जब एक समाज के खाली मकान को किराये पर लेने के लिए एक पण्डित जी और एक आर्यसमाज के चपरासी ने आवेदन-पत्र दिया, तो आर्यसमाज के अधिकारियों ने चपरासी को अधिक उपयोगी मानकर मकान उसे दिया, अच्छे योग्य माने जाने वाले पण्डित जी को नहीं। इस प्रकार आर्यसमाज के संघठन में सबसे उपेक्षित एवं नगण्य प्राणी यदि कोई है, तो वह उपदेशक है। अच्छे-से-अच्छे योग्य पण्डित, शास्त्रार्थ महारथी, वक्ता के लिए भारत के बड़े-से-बड़े आर्यसमाज 300 रुपया मासिक से अधिक वेतन की तो कल्पना ही नहीं कर सकते। (यह लेख सन् 1975 में लिखा गया था। आज भी उतना ही प्रासंगिक है। वर्तमान में भी दस-बारह हजार से अधिक वेतन उपदेशकों को नहीं दिया जाता। -सम्पादक) परिणामतः आर्यसमाज को उपदेशक भी प्रायः ऐसे ही मिलते हैं, जिन्हें और कोई नौकरी नहीं मिलती। वे समय गुजारने के लिए उतनी देर तक उपदेशक, पुरोहित या भजनोपदेशक का धन्धा कर लेते हैं और कोई दूसरी नौकरी मिलते ही उपदेशकी या पुरोहिताई छोड़कर भाग जाते हैं। उनकी अपनी योग्यता का स्तर भी इसी अनुपात से होता है और पं. लेखराम जी द्वारा रचित ऋषि-जीवन-चरित में उद्धृत महर्षि दयानन्द के ये वचन उनपर अक्षरशः चरितार्थ होते हैं कि ‘‘धनियों के लड़के तो अंग्रेजी ने ले लिये, शेष गरीबों के लड़के संस्कृत के लिए रह गये, सो ये निरे बन्दर हैं, इनसे कुछ न होगा।"

श्रोता वर्ग- श्रोताओं की योग्यता एवं मनोवृत्तियों के आधार पर कई कोटियाँ होती हैं। पुरुषों से महिलाओं की मनोवृत्ति, योग्यता तथा कार्यक्षेत्र पृथक् होते हैं। इसी प्रकार बहुत छोटे बच्चों, आठवीं तथा हाईस्कूल तक और महाविद्यालयों के विद्यार्थियों तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं एवं शोध-छात्रों तथा उच्च कोटि के रिसर्च-स्कालरों एवं प्राध्यापकों के स्तर एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हैं। ग्रामीणों एवं नागरिकों और फिर भारतीयों और विदेशियों में भी बहुत अन्तर होता है। ये अन्तर इस प्रकार अनेक तरह के हैं। मंच की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि हमारा प्रचार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उस-उस स्तर के श्रोताओं के अनुरूप हो, भाषा की दृष्टि से भी और विषय की दृष्टि से भी।

हमारे मंच का एक दोष यह है कि यहाँ आनेवाले मध्यम या निम्न-मध्यवर्ग के, कुछ बड़ी प्रौढ आयु के, सामान्य शिक्षाप्राप्त हिन्दीभाषी व्यक्ति ही हैं। आर्य समाजों के सत्सङ्गों या उत्सवों में समझदार नवयुवक विद्यार्थी एवं उच्च शिक्षाप्राप्त व्यक्ति नहीं आते और महिलाएँ भी अपेक्षाकृत या तो बहुत कम आती हैं या आती ही नहीं। मुझे स्वयं अनेक आर्यसमाजों के कार्यक्रमों और विशेषकर साप्ताहिक सत्संगों में जाने से कुछ अरुचि-सी होने लगती है और कई बार भाषण करने का उत्साह फीका पड़ जाता है, यह देखकर कि केवल कुछ वृद्ध पुरुष ही बैठे हैं, जिनके सारी आयु भाषण सुनते-सुनते बाल पक गये हैं और फिर भी वे वहीं हैं, जहाँ कि पहले थे। अब उन्हें क्या सुनाया जाए और कार्य करने की, आर्यसमाज को नई दिशा देने की, उन्हें क्या प्रेरणा दी जाए!

स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज ने एक बार अपना भाषण आरम्भ करते हुए अपने श्रोताओं को यों सम्बोधित किया था, ‘‘ऐ मेरे रण्डुए आर्य भाइयो! आप कहेंगे, मैंने आपको ‘रण्डुए‘ कैसे कहा? अरे भाई! यदि आप घर-गृहस्थी होते तो एक ओर आपकी माताएँ, बहनें और देवियाँ बैठी होतीं और एक ओर आपके बच्चे बैठे होते। पर यहाँ तो आप अकेले ही बैठे हैं, तब मैं आपको रण्डुए न कहूँ तो क्या कहूँ?‘‘ कितनी सच्चाई है इन शब्दों में ! मैंने अपने कार्यक्षेत्र वाले कई स्थानीय आर्यसमाजों के अधिकारियों से कितनी ही बार निवेदन किया है कि आप रविवार के कार्यक्रम के प्रपत्र छपवाकर रखिये। प्रत्येक रविवार का कार्यक्रम, जिसमें वक्ता का नाम एवं उसके भाषण का निश्‍चित विषय भी लिखा गया हो, अपने नगर की शिक्षण संस्थाओं, सार्वजनिक स्थानों तथा बार-रूम आदि में भिजवाइये, ताकि लोगों को पता चलता रहे। परन्तु इधर किसी को भी ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है।

एक ओर तो यह अवस्था है कि सब वर्गों के श्रोता हमारे यहाँ आते नहीं और दूसरी ओर जो भूले-भटके आ भी जाते हैं, तो उन्हें कोई अच्छा भाषण सुनने को नहीं मिलता और अधिकारियों के व्यवहार का कोई अच्छा प्रभाव उन पर नहीं पड़ता। वक्ता महोदय बिना यह देखे कि उनके श्रोता कौन हैं और वे उनकी बात समझ भी रहे हैं या नहीं, अपना धुआँधार भाषण देते चले जाते हैं और उससे पूर्व यज्ञ एवं सम्मिलित गान के समय बूढे महानुभाव बिना किसी के साथ मिलकर बोलने की चिन्ता किये, अपनी धुन में मस्त, अतिविलम्बित गति से वेद-मन्त्रों एवं भजनों का, उबा देनेवाली लम्बी टोन में गान करते चले जाते हैं। उच्चारण में शुद्धि की चर्चा न करना ही श्रेयस्कर है। वक्ता के बोलने के समय जितने भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों से सम्बद्ध लोग आर्यसमाजों के अधिकारी बने बैठे हैं, वे पहले ही उसे चेतावनी दे देते हैं कि उसे कौन-सी बात कहने से परहेज करना है। कहीं वक्ता ने उनकी अनिष्ट बात कह दी तो फिर वहीं महाभारत शुुरू हो जाता है और श्रोता लोग छिः-छिः करते हुए खिन्न होकर समाज से उपेक्षावृत्ति धारण कर लेते हैं। एक समाज में तीन-चार बार सपत्नीक जाने का उपक्रम किया, तो पाया कि हर बार शान्ति-पाठ के होते ही या हवन के समाप्त होते ही अधिकारियों में लम्बी तू-तू मैं-मैं शुरु हो जाती। अन्ततः जो दो-तीन महिलाएँ वहाँ आती थीं, वे कहती सुनाई पड़ी कि क्या हम यह झगड़ा देखने आती हैं? यहाँ आना ही व्यर्थ है।• साभार : महर्षि दयानन्द के सपनों का आर्यसमाज - प्रो.जयदेव आर्य (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

The Biggest Misfortune of the Arya Samaj | Preacher has no Place in the Organization | Feel Proud | Saints and Women Campaigners | Arya Samaj Campaigners | Qualified Priest | Master of Speech | The Speaker | Preacher or Priest | Qualification Level | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Mathura - Kamuthi - Vikasnagar | दिव्ययुग | दिव्य युग |