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पत्थर दिल को भी द्रवित कर देने वाली सत्य घटना (2)

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True phenomenon delving into stone heartमातृदेवो भव! पितृदेवो भव! आचार्य देवो भव!
पिछले अंक में आपने पढ़ा कि कैसे ब्राह्मण दम्पत्ति ने अपनी विपन्नावस्था में भी अपने इकलौते लाडले पुत्र (राजा) को इस योग्य बनाया कि वह कलक्टर बन गया। पर यह कृतघ्नी पुत्र अपनी योग्यता के नशे में कलक्टर बनने से पहले ही अपने माता-पिता को भुला बैठा। अब आगे पढ़िये!

दोनों पति-पत्नी नासिक पहुँचे। दोनों भटकते-भटकते, ढूँढते-खोजते कलक्टर के बंगले पर पहुंच गये। बंगले के बाहर बन्दूकधारी पुलिस का सिपाही इस गँवारू दम्पत्ति को देखकर हँसने लगा। पत्नी को कुछ दूर खड़ी कर ब्राह्मण बंगले की ओर बढ़ा, तो पुलिस वाला असभ्य और उद्धत भाषा में बोला- “ओ बदमाश! यह कलक्टर का बंगला है, कोई धर्मशाला नहीं। चल भाग यहाँ से!’’

ब्राह्मण का तेजस्वी रक्त उबल आया। उसने कड़ककर कहा- “मुझे अन्दर नहीं जाने देगा, तो किसे जाने देगा?’’

जिस समय बंगले के आगे यह वाद-विवाद हो रहा था, उसी समय कलक्टर अपनी पत्नी के साथ बैडमिण्टन खेलकर लौटा था और बंगले की ऊपरी मंजिल में चाय पी रहा था। बंगले के बाहर का हल्ला सुनकर उसने खिड़की से नीचे झांका तो फटे-पुराने वस्त्र पहिने उसका पिता पुलिस वाले से कह रहा था कि कलक्टर उसका पुत्र है और वह उसका पिता है। कहावत है- रेत सूर्य की अपेक्षा अधिक जलाती है। साहब के टुकड़ों पर कुत्ते की तरह पलने वाले सिपाही ने गरीब ब्राह्मण को बूट की ठोकर से भूमि पर गिराते हुये कहा- “बड़ा साहब का बाप बनकर आया।’’ भूमि पर पड़े हुये ब्राह्मण की दृष्टि ऊपर हुई। उसने खिड़की पर खड़े अपने राजा को पहिचान लिया। लड़के ने भी पिता को देखा, पहिचाना, दोनों की चार नजरें हुई। परन्तु मेम साहब के प्रेम में फंसे हुये बेटे की हिम्मत नहीं हुई कि जाकर पिता के चरणों में पड़े, उससे माफी माँगे और अपने साथ बंगले में ले आवे। उसे लगा कि ऐसा करने पर लोग कहेंगे कि उसका पिता गँवार (ग्रामीण) है। उसकी पत्नी भी उसका घर में आना पसन्द नहीं करेगी। उसने खिड़की बन्द कर ली।

कलेक्टर की पत्नी ने पूछा- “क्या था?’’ “कोई अपरिचित व्यक्ति शायद मुझसे मिलना चाहता था।’’ यह कहकर उसने बात टाल दी।

पिता के लिये यह पुलिस वाले की नहीं अपितु उस बेटे की लात थी, जिसे उसने छाती पर सुलाया, लाड़ लड़ाया, बड़ा किया और लिखा-पढ़ाकर इतना बड़ा साहब बनाया था। उसने मेरा अपमान देखा, मुझे पहिचाना और उफ् भी नहीं किया, खिड़की बन्द कर ली। भगवान! बेटे के बंगले पर मेरा अपमान हो, क्या इसीलिये मुझे अब तक जीवित रखा था? उसने अपने आपको धिक्कारा।

ब्राह्मण पत्नी उत्सुकता से ब्राह्मण की बाट देखती थी। उसने पूछा- “राजा मिला क्या? ठीक तो है न?’’ उसने पति की ओर देखा। आँखे अपमान से लाल हो गई थी। शरीर पर खून था और चेहरा उदास।

“हाँ’’ ब्राह्मण ने संक्षिप्त उत्तर दिया। “परन्तु तुम ऐसे क्यों हो? तबियत तो ठीक है?’’ पत्नी ने पूछा।

पति के धैर्य का बान्ध टूट गया और उसने सम्पूर्ण घटना उसे कह सुनाई। पत्नी का हृदय टूट गया। उसे तीव्र वेदना हुई। दोनों की भगवान से एक ही शिकायत थी कि “भगवान! हमें इसी दिन को देखने के लिये जिलाया था?’’ दोनों के पास रोने के अतिरिक्त था ही क्या? इसके अलावा उनके जीवन में आश्‍वासन ही क्या रह गया था?

पुत्र की दृष्टि के सामने उसके बंगले के द्वार पर जो असह्य अपमान हुआ था, उसकी वेदना को ब्राह्मण सहन नहीं कर सका। उसे तीव्र ज्वर आ गया। सारा चित्र-पट उसकी आँखों के सामने नाचने लगा। मेरा राजा इतना कृतघ्न हो गया? अरे! मानवता से भी गिर गया। इस असह्य आघात की वेदना से तड़पकर उसने रात्रि को इस कृतघ्नी जगत से चिरकाल के लिये विदा ले ली।

ब्राह्मण पत्नी के दुःख की सीमा न रही। पति उसे असह्य छोड़कर चल बसे, पुत्र ने मुँह मोड़ लिया और भगवान भी उसे जगत् से उठाता नहीं, तब वह क्या करे? कहाँ जाय? माथे का कुंकुम मिट गया, हाथ की चूड़ियाँ टूट गई। दुःख के भार से दस वर्ष पूर्व ही वृद्ध हो गई ब्राह्मणी शून्य मनस्क होकर सोचती है। कहाँ जाऊँ? कुछ सूझता नहीं, कोई सहायक नहीं। वापस अपने घर जाती है तो पैसा नहीं, फिर लोगों को कैसे मुँह दिखावे? और वास्तव में घर रह भी कहाँ गया था? अन्त में शिवजी के मन्दिर में बैठकर उसने निर्णय लिया कि गोदावरी स्नान कर मन्दिर में बैठकर भगवान का नाम जपकर शेष जीवन को बिताऊँगी।

जिसका पुत्र समस्त नासिक जिले का कलक्टर है, वह अनाथ और असहाय होकर मन्दिर के एक कोने में पड़ी भूख-प्यास, पति-वियोग और पुत्र की उपेक्षा से सन्तप्त जीवन व्यतीत कर रही है! रहने के लिए घर नहीं, पास में पैसा नहीं है, आत्मीयता से बात करने वाला भी कोई नहीं। ऐसी असहाय स्थिति में एक वृद्धा विधवा स्त्री अपरिचित स्थान में अपना जीवन यापन कैसे करती रही होगी? इसे भगवान ही जानते होंगे।

अनेक बार विचार आता है कि दयासागर भगवान इतने निष्ठुर हो सकते हैं क्या? जो भगवान बिना माँगे और कहे ही इतने प्रेम से मानव तथा समस्त भूत-प्राणियों का रक्षण-पोषण करते हैं, वे एक असहाय, निराधार, वृद्ध-विधवा स्त्री को ऐसी स्थिति में रख सकते हैं? या वे अपने पास बुलाने से पूर्व इतनी कड़ी परीक्षा लेते होंगे? उस महान नटराज की लीला का किसको पता है? उस कलाकार की कला का किसी को पता नहीं है। वह महान कलाकार अपनी कलाकृतियों में विविध रंग भरता रहता है। कभी सुख का गुलाबी रंग भरता है, तो कभी दुःख का काला रंग और कभी दोनों का सम्मिश्रण! वह जाति-जाति और भाँति-भाँति के रंगों को भरता है। कब काले रंग की एक कूची फेर दे, कहा नहीं जा सकता।

जीवमात्र उस चित्शक्ति के हाथ का खिलौना है। वह महान मदारी हमें नचाता रहता है। कभी गोद में लेकर प्यार करता है और पुचकारता है, तो कभी थप्पड़ मारकर दूर धकेल देता है। बन्दर को मदारी से बोलने का अधिकार नहीं है। फिर भी भगवान दयालु हैं और हृदय के अर्न्तनाद को अवश्य सुनते हैं।

उस समय पत्नी के मोह, बड़प्पन तथा पद के अहंकार से कलक्टर ने खिड़की बन्द कर ली थी। परन्तु उसके बाद उसको महान पश्‍चाताप हुआ। उसका अन्तर्मन उसे धिक्कारने लगा- “छी! तू मानव नहीं पशु है, सूवर है। आलिंगन करने के लिये आने वाले पिता का स्वागत करने के बजाय तूने उसका अपमान किया है। ब्राह्मण कुल में सुसंस्कारों में पला हुआ तू अपने पिता के अनन्त उपकारों को इतनी जल्दी भूल गया है? मानव होकर भी इतना कृतघ्नी और नीच बना है? तू मानव कहलाने योग्य भी नहीं है। तुझसे तो वह कुत्ता श्रेष्ठ है, जो रोटी का टुकड़ा देने वाले स्वामी की रात-दिन जागरूक होकर सेवा करता है। तू पहिले ही कलक्टर नहीं बना। एक दिन तू भी गरीब था। अपने माँ-बाप के मुँह का कौर छीनकर तू बड़ा हुआ है। उसका तूने यही बदला दिया है? यही तेरा बड़प्पन है? यही तेरे संस्कार हैं? तेरे इस कलक्टरपन के लिये धिक्कार है!’’

परन्तु अब हाथ से तीर छूट चुका था। अब एक ही उपाय था कि घायल पिता को लाकर उसका इलाज किया जाता। पर उसका मन कहता- “वाह! पहिले घायल किया और फिर मरहमपट्टी! तेरे तेजस्वी पिता मानेंगे नहीं।’’ दूसरा मन कहता- नहीं, मेरे पिता अवश्य आयेंगे- कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति। “परन्तु-ईश्‍वर न करे, यदि वे उस तीर के शिकार हो गये हों तो?’’ इस विचार से वह कांप उठा। क्या करना चाहिये? यह उसे सूझता ही नहीं था।

मानव जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं, जब वह भोग-जीवन से ऊबकर भाव-जीवन की ओर मुड़ता है। आज तक कलक्टर के भोग-जीवन में भाव-जीवन के लिये स्थान ही नहीं था। परन्तु आज वह उसी भाव-जीवन के लिये, पिता की प्रेमपूर्ण ऊष्मा के लिये कातर था, आतुर था। उसने पिता के लिये भावपूर्ण पत्र लिखा, पर वह वापस आ गया। अब पिता को कहाँ ढूंढा जाय?

कलक्टर की पत्नी गर्भवती थी। घर में कोई सयाना आदमी न था। उसे किसी प्रौढ़ स्त्री (सेविका) की आवश्यकता प्रतीत हुई।

एक दिन ब्राह्मण-पत्नी कीर्तन सुन रही थी। कीर्तन समाप्त होने के पश्‍चात् कुछ स्त्रियाँ आपस में बातचीत कर रही थीं कि कलक्टर की पत्नी गर्भवती है, उसे एक ऐसी नौकरानी की आवश्यकता है, जो उसकी देखभाल कर सके।

दूसरे दिन ब्राह्मणी कलेक्टर के बंगले पर गई। कलक्टर की मोटर बंगले से बाहर आ रही थी। पति-पत्नी दोनों बाहर घूमने जा रहे थे। ब्राह्मणी ने अपने लड़के को देखा। उसका मातृ-हृदय धड़कने लगा। दौड़कर लड़के को भेंट लेने का मन हुआ, पर अपने पर नियन्त्रण करके रुक गई। उसने सिर की चादर नीचे तक खींच ली और कलेक्टर की पत्नी से कहा- “मैंने सुना है, आपको एक नौकरानी की आवश्यकता है?’’ स्वयं सास होकर घर की मालकिन होकर, बहू से नौकरी की भीख माँगती है! कुदरत का खेल है।

ब्राह्मणी मन में कहती है- “प्रभु! यही दिन दिखाना बाकी था, तूने वह भी दिखा दिया है।’’ उसका एक मन कहता- “जिस घर के द्वार पर मेरे पति का अपमान हुआ और जिसके कारण वे इस संसार से चले गये, उस घर का पानी भी पीना हराम है!’’ दूसरा मन कहता- “मेरे थोड़े से दिन बाकी हैं। बहू के पैर भारी (गर्भवती) हैं। इस समय किसी आत्मीय जन का घर में होना आवश्यक है।’’ उसने पुनः कहा- “मैं विधवा हूँ, मेरे पति कुछ ही दिन पहिले गुजर गये हैं। मेरा कोई नहीं है, दुखिया हूँ, मुझे नौकरानी रख लीजिये।’’

कलक्टर की पत्नी को आवश्यकता तो थी ही। उसे दुखी और विधवा जानकर नौकरानी रख लिया। ब्राह्मण पत्नी समझती थी कि यह मेरी बहू है और कलक्टर-पत्नी समझती थी कि वह मेरी नौकरानी है।

विधवा, वृद्ध तथा सर के बाल कटे होने होने और घूंघट निकाले रहने से कलेक्टर अपनी माता को नहीं पहिचान सका। फिर पुराने जमाने में पुरुष नौकरानियों के सम्पर्क में नहीं आते थे, नौकरानियाँ सदा घर के भीतर के भाग में रहती और पुरुष बाहर के भाग में रहते थे। कलक्टर अपने माता-पिता की शोध के लिये बेचैन था। घर में ही होने पर भी वह अपनी माँ को नहीं पहिचानता था।

ब्राह्मणी ने अपने मृदुल व्यवहार और वात्सल्य प्रेम से कलक्टर की पत्नी का दिल जीत लिया था। वह प्रेम से उसकी सेवा करती और अपनी पुत्री के समान लाड़-प्यार करती थी। घर के सभी छोटे-बड़े काम उसने अपने ऊपर ले लिये थे।

समय व्ययतीत होता गया। अब वह अपने पुत्र की माँ ही नहीं, पोते की दादी भी हो गई। अब वह राजा को दूर से देखकर अपने हृदय को शान्त करती थी। अब गौद में खेलने वाले पौत्र को देखकर उसे राजा के दर्शन हो जाते थे।

एक दिन राजा ने अपनी पत्नी से पूछा कि नौकरानी काम ठीक से करती है या नहीं? वेतन कितना माँगती है? पत्नी ने कहा- “प्रभु-कृपा से नौकरानी तो माँ के समान मिली है। मेरे ऊपर पुत्रिवत् प्रेम करती है। घर का सारा काम स्वयं करती है। छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखती है। और मुन्ना तो उसके साथ इतना रम गया है कि मेरी याद भी नहीं करता। वेतन का नाम लेते ही कहती है, मुझे पैसे का क्या करना है? पैसे का नाम ही नहीं लेती।’’

एक दिन कलक्टर की पत्नी ने नौकरानी से कहा- “तुम कितनी प्रेममय हो! तुम्हारा भी एक- आध लड़का होता तो कितना अच्छा होता? कितना संस्कारी होता? उसे तुम जैसी माँ मिलती तो वह कितना भाग्यशाली होता?’’ ब्राह्मण की आँखें भर आई। उसे किस तरह समझावे कि वह उसके लड़के की ही तो पत्नी है। मन के उद्वेग को रोककर और चटपट आँसू पोंछकर उसने कहा- “ये सब मेरे ही तो बच्चे हैं।’‘ परन्तु वाक्य में निहित सत्य को कलक्टर की पत्नी कैसे समझ सकती थी?

एक दिन दोपहर को पत्नी क्लब में गई थी। कलक्टर के सर में दर्द था, इसलिये वह जरा जल्दी घर आ गया। उस समय दादी (नौकरानी) पौत्र को झूला झुलाते हुए लोरियाँ गा रही थी। उसने दूर से लोरी सुनी। वह कुछ चौंक सा गया। उसे आवाज परिचित सी लगी। वही लोरी, वही स्वर, वही मिठास, वही प्रेम! “बचपन में मेरी माँ मुझे इसी लोरी को सुनाती थी।‘’ उसका मन बचपन के कोने-कोने ढूँढने लगा। माँ-बाप, छोटा सा घर, छोटी सी बगिया, छोटा सा गाँव, गाँव का शान्त-सुखी वातावरण! सभी उसके हृदय पटल पर उभर आये! उसके हृदय में गहन वेदना हुई। पिता और माता के साथ के व्यवहार का दृश्य मानो उसके नेत्रों के सामने से हटना ही नहीं चाहता था। कलक्टर को आता देखकर नौकरानी अन्दर चली गई और वह अपने आप रो पड़ा।

पत्नी के आने पर उसने पूछा- “नौकरानी ने यह लोरी कहाँ से सीखी?’’ “वह तो मुन्ना को नित्य ही सुनाती है। उसके शब्द-शब्द में प्रेम और माधुर्य निखर पड़ता है। आप मानें या ना मानें, पर प्रभु ने मुझे तो माँ ही दी है।’’ कलक्टर ने कहा- “तू उसका नाम-गाम तो पूछ?’’ उसने कहा- “मैं अनेक बार पूछती हूँ, पर वह कहती है- तुम सब मेरे ही तो हो।’’

कलक्टर ने दो दिन से खाना नहीं खाया था। इसका वृद्धा को बहुत बड़ा दुःख हुआ। उसने नारियल मंगाकर अपने हाथ से नारियल-पाक बनाया। उसको मालूम था कि उसके राजा को नारियल-पाक प्रिय था। कलक्टर खाने लगा, वही स्वाद! मानो माँ ने ही बनाया हो! खाते-खाते उसको माँ का स्मरण हो आया। आँखों में आँसू छलकने लगे, मानो नेत्रों में माँ का प्यार तैर रहा हो!

मानव का जीवन दो प्रकार का है। भाव-जीवन और भोग-जीवन। कलक्टर के जीवन में दिन-प्रतिदिन भाव पुष्ट होने लगा। अन्तर्मन माता-पिता के दर्शन के लिये लालायित होता गया। वह पिता के लिये पत्र लिखता, पर वे वापस आ जाते थे।

एक दिन इसी प्रकार पिता के लिये लिखा गया पत्र वापस आ गया। डाक वाले ने उस पर लिखा था, “घर पर ताला है, पत्र पाने वाले का पता नहीं है।‘’ इससे कलक्टर की मनोव्यथा और बेचैनी बढ़ गई। उसका सर दर्द करने लगा। वह ऑफिस से जल्दी घर आ गया। बुढ़िया को नौकरों से मालूम हुआ कि साहब के सर में दर्द है। माता का हृदय भर आया। माँ स्वयं घर में हो और बेटा बेचैनी अनुभव करे। अपने सर की चादर आगे खींचकर वह बाहर आई और बोली- “सर दर्द अधिक है! माथा दबा दूँ?’’ कलक्टर उसके साथ प्रत्यक्ष बात करने के अवसर की ताक में तो था ही। उसने ‘हाँ’ कर दी।

नौकरानी पलंग के पीछे खड़ी होकर साहब का सर दबाने लगी। कलक्टर ने पूछा- “तुम्हारा गाँव कहाँ है?’’ नौकरानी- “मैं तो कंगाल हूँ, भला कंगाल का गाँव कहाँ?’’ कलक्टर- “तुम्हारा कोई सगा-सम्बन्धी है?’’ नौकरानी- “मेरा सगा भगवान है।’’

कलक्टर को आवाज परिचित लगी। माथे पर फिरते हाथ से अनोखी शान्ति मिलती थी। वस्तुतः वह नौकरानी का नहीं, माता का हाथ अपने बेटे के सर पर फिरता था। माथा दबाते-दबाते माँ का हृदय भर आया और आँखों से सहसा दो तप्त अश्रु-कण कलक्टर की गाल पर चू पड़े। उसे विश्‍वास हो गया कि नौकरानी नहीं उसकी माँ ही है। वह फौरन उठ खड़ा हुआ और माँ के चरणों में गिर गया। उसने अपने अजस्र-अश्रुधारा से माँ के चरण धो डाले। उसके आँखों की जलधारा के साथ माता के नेत्रों से निकली गंगा-जमुना भी मिल गई। एक की आँखों में आनन्दाश्रु थे और दूसरे की आँखों में पश्‍चाताप के आँसू थे। माँ ने बेटे को नीचे से उठाकर प्रेम से आलिंगन किया और “राजा बेटा’’ कहकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा।

“माँ ! मैं पापी हूँ, कृतघ्नी हूँ। घर के द्वार पर आये हुये पिता का मैंने अपमान किया, घर से निकाला। माँ! मुझे क्षमा कर। पर माँ! तेरी ऐसी स्थिति क्यों?’’

“बेटा! क्या कहूं? बीती बात को याद करने से क्या लाभ? उस दिन तेरे पिता यहाँ से अपमानित होकर लौटे और उस आघात को सहन न कर सके। उन्हें बुखार चढ़ गया और उसी रात्रि को वे मुझे रोती हुई असहाय और अकेली छोड़कर सदा के लिये विदा हो गए।’’ ऐसा कहते-कहते उसकी आँखें भर आई।

“माँ! मैंने तुझे नौकरानी की तरह रखा। अपने बेटे के यहाँ तू नौकरानी हुई। मैं पितृघाती और महापातकी हूँ। मैं इस घोर पाप को कैसे धो सकता हूँ? भगवान भी मेरे पाप के लिये मुझे क्षमा नहीं करेगा। मुझे इसका प्रायश्‍चित करना ही होगा।’’ वह माँ की गोद में सर रखकर फूट-फूट कर रोने लगा।

कलक्टर की पत्नी बाहर से आई। वह भी वस्तुस्थिति को समझ गई। उसने भी सास के चरणों में सर रखकर क्षमा-याचना की।

कलक्टर ने कहा- “माँ! मैं सत्ता और संपत्ति से अन्धा बन गया था। इस शिक्षा से मेरा भाव-जीवन समाप्त हो गया था। जो शिक्षा मानव के भाव जीवन को समाप्त कर देती है, ऐसी शिक्षा और ऐसी सत्ता-सम्पत्ति के लिये धिक्कार है! मुझे यह कलक्टरी नहीं चाहिये। मैं अब गाँव-गांवों में जाकर बच्चों को भाव-जीवन समाझाऊँगा। मातृदेवो भव! पितृदेवो भव! के पाठ पढ़ाऊँगा। यही मेरे महान पाप का प्रायश्‍चित होगा।’’

राजा ने कलक्टर के पद से त्याग-पत्र देकर अपना शेष जीवन संस्कृति के महान कार्य के लिये समर्पित कर दिया। श्राद्ध, सद्विचार दर्शन - पाण्डुरंग शास्त्री आठवले

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