व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उन्नति के लिए मानव-समाज में नैतिक गुणों का होना आवश्यक है। नैतिकता वह जीवन व्यवस्था है, जिसके सहारे मानवता का सफल निर्माण होता है। नैतिक शक्ति मानव जीवन के विकास का आधार है। नैतिक जीवन जितना बलवान और पवित्र होगा, उसी परिमाण में व्यक्ति का विकास होता है। नैतिक निर्बलता मानव-विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा है। समाज या राष्ट्र व्यक्तियों की नैतिक शक्ति पर ही पनपता है। अतः जिस समाज या राष्ट्र के व्यक्तियों का नैतिक स्तर गिर जाता है, वह समाज या राष्ट्र भी पतन की ओर चल पड़ता है। नैतिकता का अर्थ आचरण अथवा जीवन मूल्यों से है। मानव के जीवन में सत्य, दया, धर्म, शान्ति, पवित्रता, उच्च चरित्र तथा त्याग आदि नैतिक मूल्यों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वैदिक ऋषियों ने सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा की है-
ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणा।
वि स्वः पश्य व्यन्तरिक्षं यतस्व सदस्यैः॥145
अर्थात् सुवर्ण दान करने वाले तुम लोग सत्य के मार्ग पर चलो, सुख प्राप्त करो तथा अन्तरिक्ष लोकों को प्राप्त करो। सदस्यों के साथ सत्य के मार्ग पर चलने का यत्न करो।
सत्य संसार का धारक तत्त्व है। सत्य से ही पृथ्वी टिकी हुई है तथा सत्य से ही सूर्य प्रतिष्ठित है, जैसा कि अथर्ववेद में कहा गया है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति॥146
सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति॥147
शतपथ ब्राह्मण में भी सत्य को धर्म का सर्वस्व तथा संसार का आधार ब्रह्म कहा गया है-
यो वै धर्मः सत्यं वै तत् ॥148
सत्यमेव ब्रह्म ॥149
शतपथ के अनुसार असत्य बोलने वाला व्यक्ति अपवित्र होता है-
अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति॥150
अपवित्र व्यक्ति को यज्ञादि शुभ कार्य का अधिकार नहीं रहता। सत्य के द्वारा मानव को तेजस्विता की प्राप्ति तथा नित्य अभ्युदय की सिद्धि होती है। जो व्यक्ति सत्य बोलता है, उसका तेज नित्य बढता है। इसके विपरीत असत्य बोलने वाले का तेज क्षीण होता जाता है-
सत्यमेवोपचारः स यः सत्यं वदति यथाग्निं समिद्धं तं घृतेनाभिषिञ्चदेवं हैनं स उद्दीपयति तस्य भूयो भूय एव तेजो भवति श्वः श्वः श्रेयान्भवत्यथ योऽनृतं वदति यथाग्निं समिद्धं तमुदकेनाभिषिञ्चदेवं हैनं स जासयति तस्य कनीयः कनीय एव तेजो भवति श्वः श्वः पापीयान्भवति तस्मादु सत्यमेव वदेत्॥151
अर्थात् जो कोई सत्य बोलता है, मानो वह अग्नि पर घी छिड़कता है क्योंकि उससे वह उसको प्रज्जवलित करता है। उसका दिन-प्रतिदिन तेज बढता है, दिन-प्रतिदिन उसका कल्याण होता है और जो कोई झूठ बोलता है, मानो वह जलती आग पर पानी छिड़कता है, क्योंकि वह इस प्रकार उसको कमजोर करता है। दिन-प्रतिदिन उसका तेज कम होता जाता है और वह पापी होता जाता है। इसलिए सच ही बोलना चाहिए। सत्य शोक को दूर करता है,152 जबकि असत्य को मृत्यु कहा गया है-
मृत्युर्वा असत्॥153
इसलिए यजुर्वेद में सत्य का ही आचरण करने का उपदेश दिया गया है-
श्रद्धस्मै नरो वचसे दधातन॥154
अर्थात् हे मनुष्यो ! तुम वाग्व्यवहार में सत्य का ही धारण करो।
यजुर्वेद में उल्लेख है कि सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर ने सत्य और असत्य को देखकर पृथक-पृथक् कर दिया है। उनमें से श्रद्धा की पात्रता सत्य में ही है, अश्रद्धा की अनृत या असत्य में है-
दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः।
अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापतिः॥155
अतः वाणी में सत्य को प्राप्त करने की कामना की गई है-
वाचः सत्यमशीय॥156
समस्त दैवीय शक्तियाँ मेरी रक्षा करें तथा मुझमे सत्य में तत्पर रहने की शक्ति प्रदान करें-
देवा देवैरवन्तु मा...... सत्येन सत्यम् ॥157
यज्ञ द्वारा मैं सत्य और श्रद्धा को प्राप्त करूँ-
सत्यं च मे श्रद्धा च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥158
मैं असत्य को छोड़कर सत्य का व्रत धारण करता हूँ-
अहमनृतात्सत्यमुपैमि ॥159
बृहदारण्यकोपनिषद् में सत्य को धर्म का स्वरूप कहा गया है-
यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यं वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यं वदतीत्येतत् हि एवैतदुभयं भवति॥160
अर्थात् जो धर्म है, वही सत्य है। इस हेतु जो सत्य-भाषण करता है, उसको लोग कहते हैं कि वह धर्मभाषण कर रहा है और जो धर्मभाषण करता है उसको लोग कहते हैं कि यह सत्यभाषण करता है। क्योंकि ये दोनों ही सत्य और धर्म एक ही है।
इसी प्रसंग में पूर्व में कहा गया है कि धर्म या सत्य ही दुर्बल का सबसे बड़ा बल है-
अबलीयान् बलीयांसमाशंसते धर्मेण॥161
सत्य तथा असत्य में सदा संघर्ष रहता है। परन्तु सत्य का मार्ग सरल तथा सुखद है और असत्य का मार्ग विनाश का कारण है। सत्य का मार्ग सुखद तो है, पर इसमें कभी-कभी विलम्ब भी होता है और कष्ट भी सहने पड़ते हैं। असत्य से प्रायः सद्यः लाभ दिखाई पड़ता है, अतः सामान्य व्यक्ति असत्य को अपनाने में संकोच नहीं करता। असत्य का अन्त सदा दुःखद होता है। अतएव आचार्य चाणक्य ने कहा है कि असत्य से बढकर कोई पाप नहीं है-
नानृतात् पातकम् परम्॥
वैदिक ऋषियों ने नैतिक जीवन के लिए अस्तिकता की आधारशिला को अत्यावश्यक माना है। ‘आस्तिकता‘ से अभिप्राय है- सृष्टि के कण-कण में परमात्मत्तत्तव का दर्शन। ईशोपनिषद् के प्रथम मन्त्र में ही ईश्वर को सर्वव्यापक कहा गया है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्॥162
अर्थात् इस संसार में जो कुछ भी गतिशील या चरात्मक है, वह सब परमात्मा से व्याप्त है। उस परमात्मा के द्वारा दिए हुए जगत् को त्यागभाव से भोगो। किसी के धन का लालच मत करो।
परमात्मा की सर्वव्यापकता मान लेने पर ऐसा कोई स्थान नहीं मिल सकता है, जहाँ परमात्मा नहीं हो- उससे छिपाकर कोई गलत कार्य नहीं किया जा सकता। अतः आस्तिक व्यक्ति अनैतिक कार्यों से बचा रहता है। वह पर-धन को हड़पने की बजाय स्वोपार्जित तथा पुरुषार्थलब्ध धन को ही अपना समझता है और उसी का उपभोग करते हुए सन्तोष, सुख एवं शान्ति का अनुभव करता है। (क्रमशः) - आचार्य डॉ. संजयदेव द्वारा प्रस्तुत (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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