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क्यों न करें संदेह?

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पिछले दिनों मुम्बई के आजाद मैदान में जो कुछ घटित हुआ उससे किसी भी राष्ट्रभक्त और शहीदों के प्रति श्रद्धा रखने वाले भारतीय के हृदय को निश्‍चित ही ठेस पहुंची होगी। वह दृश्य बार-बार उनकी आंखों के सामने तैर जाता होता होगा, जिसमें कुछ ’देशद्रोही’ इस हद तक हिंसक हो गए कि उन्होंने ’अमर जवान ज्योति’ को नुकसान पहुंचाया, उस पर तलवार, लाठियों और लातों से प्रहार किया। दरअसल म्यांमार और असम में मुसलमानों के विरुद्ध हो रही हिंसा का विरोध करने के लिए हजारों की संख्या में यहाँ लोग एकत्रित हुए थे। उन्होंने न केवल सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया, बल्कि ’शहीदों’ को भी अपमानित किया। क्या म्यांमार और असम में हो रहे अत्याचारों के लिए मुम्बई में हिंसा फैलाना उचित है?

क्या देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शहीदों के स्मारक को नुकसान पहुंचाना, उन्हें अपमानित करना उचित है? इस घटना से मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर सन्देह होना स्वाभाविक है। क्योंकि इस हिंसक विरोध से इसी बात को बल मिलता है कि उनकी निष्ठा देश से ज्यादा विदेशों में रह रहे मुसलमानों अथवा असम में अवैध रूप से बसे घुसपैठियों के प्रति है। यदि ये इतने ही ईमानदार हैं तो क्यों नहीं कभी कश्मीरी हिन्दुओं के समर्थन में भी आगे आते। और भी अधिक दुःख तब हुआ जब देश में मुसलमानों के समर्थन में आए दिन आवाज बुलन्द करने वाले जावेद अख्तर, शबाना आजमी और उनके जैसे कई तथाकथित बुद्धिजीवियों के मुंह से इस घटना के विरोध में एक शब्द भी नहीं फूटा, जबकि इस हिंसा में मीडिया को भी निशाना बनाया गया था। धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार नेता भी इस घटना पर शर्मनाक चुप्पी साध गए थे ।

असम का सच किसी से भी छिपा हुआ नहीं है मगर ’वोटों की राजनीति’ के चलते सब आंखें मून्दे हुए हैं। एक अनुमान के मुताबिक दशकों से जारी इस घुसपैठ के चलते आज अवैध बांग्लादेशियों की संख्या असम में ही एक करोड़ के आसपास है। पूरे भारत में यह संख्या लगभग चार करोड़ के करीब है। यह कोई मामूली संख्या नहीं है। असम के लोग अब अपनी ही धरती पर शरणार्थी बन गए हैं। क्या आने वाले समय में घुसपैठिए भारत की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न नहीं करेंगे? असलियत तो यह है कि ये खतरा बन चुके हैं।

राष्ट्र के लिए बलिदान देने वाले शहीद किसी भी मत-मजहब से बड़े होते हैं। उनके प्रति श्रद्धा का भाव हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है। विजयादशमी का पर्व भी हमें यही सन्देश देता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी ’जन्मभूमि और जननी’ को सर्वोपरि मानते थे। असत्य पर सत्य की जीत, अधर्म पर धर्म की जीत के इस त्योहार को हम प्रत्येक वर्ष मनाते हैं तथा रावण के पुतले का दहन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। काश! आजाद मैदान के प्रदर्शनकारी इस बात को समझ सकें कि भारत सभी मतों-मजहबों से ऊपर है, तभी हम सही मायने में दशहरा मना पाएंगे। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- अक्टूबर 2012)

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