हमारे सपने 1947 के दिनों में व 1942 के करीब क्या थे, यह सोचना आज शायद आसान है। उन दिनों तो एक तीव्र भावना थी, अच्छे-अच्छे ख्याल थे कि स्वाधीन होना है। और स्वाधीन होंगे तो सबको सम्मान से भोजन, कपड़ा, मकान मिलेगा। सामुदायिक जीवन होगा, शान्ति से रहेंगे और विश्व में भी शान्ति का ही सन्देश देंगे इत्यादि।
लेकिन किसी भी स्वप्न या लक्ष्य का एकरूप, आत्मबोध तथा आत्मचित्र के आधार पर ही निर्धारित होता है। उस दृष्टि से देखें तो लगता है कि हमारा आत्मचित्र तो बहुत समय से हमारा अपना नहीं है। उन दिनों भी यही स्थिति थी। हमें अंग्रेजों ने और अंग्रेजी शिक्षा ने जो-जो सिखा दिया था, उसे ही हम अपना वास्तविक स्वरूप मानने लगे थे। जैसे अंग्रेजों का कहना था या उनकी शिक्षा थी कि “भारत के ऊपर तो सदैव दूसरों ने ही राज किया है, भारत कभी स्वाधीन रहा नहीं।’’ वे यह भी कहते थे कि उन्होंने हमें बचा रखा है, नहीं तो इस्लाम व पश्चिम के इस्लामी देश भारत को खा जायेंगे। हमारे इतिहास तथा शास्त्रों के बारे में भी वे जो कहते थे, उसे ही हम पढ़े-लिखों ने सत्य मान लिया था। बहुत से सुधार आन्दोलन भी इसी मान्यता की उपज थे। अपने इतिहास के प्रति ग्लानि तथा हीनता का भाव शिक्षित भारतीयों में गहराई तक घर कर गया था। यह अवश्य है कि हममें से जो स्वाधीनता की तीव्र भावना से भरे थे, वे भारतीय अतीत को इस तरह से हीन दिखाने के प्रयासों को अस्वीकार करते थे।
यह भी था कि गान्धी जी ने ’हिन्द स्वराज’ में पूर्व और पश्चिम की दो भिन्न-भिन्न सभ्यताओं की बात उठाई और यहाँ के जनमानस में पहले से ही बैठी अपनी सभ्यता की विशेषताएं दिखाई। उसका भी कुछ प्रभाव हमारे ऊपर था। लेकिन आधुनिक शिक्षित वर्ग में ज्यादातर तो हवा एक ही थी कि पश्चिम बहुत आगे बढ़ गया है, हमें भी उसी रास्ते से आगे बढ़ना है। ज्ञान और प्रेरणा दोनों के लिए हम पश्चिम की ओर ही देखते थे। अपने बृहत् समाज के लोगों की उन्नति करनी है, कल्याण करना है, विकास करना है, यह भाव तो था, पर अपने समाज से कुछ सीखना भी है, वह स्वयं ही रास्ते की रुकावटें हट जाने पर कुछ कर सकता है, यह भाव बहुत कम था।
विश्व के बारे में जो हमारी धारणा थी, उसमें पश्चिम की शक्ति और सफलताएं ही प्रमुख थीं, उसकी विकृतियां, ऐतिहासिक क्रूरताएं, बर्बरताएं हमारे ध्यान में नहीं थीं। वे संसार के बारे में क्या विचार धारणाएं रखते हैं, यह हमारी जानकारी में नहीं था। इस प्रकार न तो स्वतन्त्र आत्मबोध था, न ही सही विश्वबोध। अपने बारे में ही हमारा आत्मचित्र उनके द्वारा गढ़ा हुआ था और उनके बारे में हमारी मान्यताएं किसी अध्ययन व स्वयं की सोच-समझ पर आधारित नहीं थीं।
इसका कोई मामूली असर नहीं हुआ। अधिकांश सुधार आन्दोलन भारतीय इतिहास के प्रति ग्लानि का भाव जगाने वाले बन गए। और तो और, ’स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी ‘आरोयन’ में या ‘आर्कटिक होम इन द वेदाज’ में इतिहास की पश्चिम वालों की ही दृष्टि अपनाई।
संसार के बारे में हमें आज अधिक जानकारी प्राप्त है। उसके प्रकाश में हमें संसार को और स्वयं को समझना चाहिए। लेकिन अभी तो दिखता यह है कि हमारा जो सबल वर्ग है, वह अपने समाज से बौद्धिक और भावनात्मक स्तर पर बहुत समय से दूर होता चला गया है। ब्रिटिश काल में इसने अंग्रेजों के आचार-व्यवहार और बोली तथा अभिव्यक्ति की विधियों को अंगीकार कर लिया। इससे ऐसी धारणा बनी कि हमारे एक अभिजन राजनेता ने 1945 में गान्धी जी से कहा कि कोई यह कैसे भूल सकता है कि गांव के लोगों में भी कोई सद्गुण और सामर्थ्य है, वे तो पूर्णतया मूर्ख ही हैं।
फलतः समाज के विकास के लिए हमने वे तरीके अपनाने शुरू किए जो पश्चिम के थे। 1938 में सुभाषचन्द्र बोस ने एक राष्ट्रीय योजना समिति बनाई थी, जिसके संयोजक वे स्वयं थे और अध्यक्ष थे जवाहरलाल नेहरू। उस समिति ने भी योजना का जो रूप सोचा था, वह पश्चिमी ढंग का ही था।
इस तरह स्वतन्त्र भारत में हम जिस रास्ते पर चले, उसकी नींव तो बहुत पहले पड़ गई थी। अब हमें यह समझना होगा कि हर सभ्यता और संस्कृति की अपनी-अपनी परम्पराएं होती हैं, उसके अनुसार ही वे सभ्यताएं विकास किया करती हैं। जैसे 1850 के यूरोप में जो विज्ञान व तकनीकी विकसित थी, वह चीन में 2000 वर्ष पूर्व ही विकसित हो चुकी थी। लेकिन चीन ने बारूद बनाने की विधियों से उत्सवों आदि में काम आने वाली आतिशबाजियां व पटाखे बनाए, जबकि यूरोप ने अब से पांच-छः सौ वर्ष पहले वही विधि जानकर युद्ध और हिंसा के लिए हथियार बनाए। यह समस्याओं की दिशा की भिन्नता के कारण ही हुआ। ऐसा नहीं है कि दक्षिणी या पूर्वी एशिया के लोग विज्ञान और तकनीकी में उन्नत नहीं थे। लेकिन उनकी सभ्यता उन्हें मर्यादा सिखाती थी और हिंसक दिशाओं में बढ़ने से रोकती थी। यह उनकी अक्षमता नहीं, उनका विवेक था। भारत में भी इस्पात तथा लोहे के निर्माण की अपनी विकसित विधि थी। सन के पौधे के उपयोग से कागज बनाने तथा इसी तरह अलग-अलग वनस्पतियों आदि से रंगाई के विविध रसायन बनाने की प्रौद्योगिकी भी विकसित थी। हर्षवर्धन के समय में और 18 वीं सदी में भी उत्तर प्रदेश, बिहार इत्यादि में पानी से बर्फ बनायी जाती रही। खेती और सिंचाई तथा जल-प्रबन्धन की अत्यन्त विकसित प्रौद्योगिकी तो थी ही। लेकिन हमने उसमें से कोई विशालकाय और थोड़े से लोगों के पूर्ण नियन्त्रण में चलने वाले ठाट नहीं खड़े किए।
यूरोप का स्वभाव प्राचीन काल से ही हिंसक रहा लगता है। विशेषकर इंग्लैण्ड और अमेरिका तो पिछले पाँच सौ बरसों से पूरी तरह हिंसक स्वभाव के रहे हैं। वे दूसरों का अस्तित्व या आगे बढ़ना सह नहीं पाते। सबको अपने अधीन ही रखना चाहते हैं। यह सर्वमान्य ही है कि यूरोप और अमेरिका स्वभाव से ही हिंसक हैं। और देशों में भी समय-समय पर हिंसा तो रही ही है, लेकिन अधिकांशतः वे हिंसा को मर्यादित करते रहे हैं।
स्वतन्त्रता मिली। हमें लगा कि चमत्कार हो गया। पर आगे क्या करना है, इसका कोई स्पष्ट चित्र नहीं था। 18 वीं शताब्दी के इस यूरोपीय विचार से ही हम भी भरे हुए थे कि यदि अवसर उचित रहे तो हम लोग भी उनके रास्ते पर चलते हुए उनके स्तर पर पहुंच जाएंगे। हमने मान लिया था कि पश्चिमी चिन्तन ही सारे संसार को जीत लेगा, इसलिए जल्दी-जल्दी उसी राह पर हम बढ़ चले। लेकिन एकदम से पराई राह पर, अनचीन्ही अपरिचित राह पर चलना सबको तो आता नहीं। जिन्हें आता था वे आगे बढ़ गए, पश्चिमीकृत हो गए। बाकी यों ही पड़े रहे। इस तरह समाज के शक्तिशाली व सम्पन्न लोगों की साधारण से बृहत् समाज से दूरी बढ़ी, विलगाव बढ़ा, अपरिचय बढ़ा, आत्मीयता घटी।
यूरोप ने हमें जिस तरह से देखना सिखाया, उसे पुष्ट करने वाले तन्त्र भी उन्होंने रचे। उनका यह स्वभाव ही है। फलतः विचार के क्षेत्र में, मान्यताओं के क्षेत्र में, भाषा, वेश-भूषा, भवन और भोजन के क्षेत्र में जो भी नवनिर्माण इधर हमने किया, वह तो कबाड़े जैसा ही है। उससे कोई राष्ट्रीय उत्कर्ष सम्भव नहीं है। नवनिर्माण के लिए, देश की आबो-हवा के अनुकूल कुछ खड़ा करने के लिए इस कबाड़ को तो हटाना ही होगा। नया ही सृजन करना होगा। यह मुख्यतः अपने ही लोगों से सीखना होगा। उनसे, जिनमें अपनी शक्ति के उदात्त रूपों की और परम्पराओं की स्मृति अभी बची है।
अपनी संस्थाओं, मान्यताओं को बिना किसी कुण्ठा के समझना होगा। अपनी पॉलिसी को अपने राजनीतितन्त्र को सही-सही समझना होगा। हमारे बारे में जो-जो सिखाया-पढ़ाया गया है, उसके बारे में सन्देह करना भी सीखें। सबको निर्देश मानकर स्वीकार न करते चलें, यह बहुत जरूरी है। - धर्मपाल
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