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एक अभियान हिन्दी के नाम

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Hindi ek Abhiyan

हाल ही में गांधी जयन्ती के अवसर पर प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूरे देश में सफाई अभियान चलाया गया। इसे स्वच्छ भारत मिशन नाम दिया गया है। यदि इस मिशन के सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं तो निश्‍चित ही यह काफी सुखद स्थिति होगी। लेकिन क्या इसी तरह का अभियान राष्ट्रभाषा (क्योंकि हिन्दी को देश में सर्वाधिक बोलने समझने वाले लोग हैं) हिन्दी के लिए नहीं चलाया जाना चाहिए?

एक जानकारी के मुताबिक भारत की राजभाषा हिन्दी विश्‍व में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। बहुभाषी भारत के हिन्दी भाषी राज्यों की आबादी 46 करोड़ से अधिक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 1.2 अरब आबादी में से 41.03 फीसदी की मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी को दूसरी भाषा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले अन्य भारतीयों को मिला लिया जाए तो देश के लगभग 75 प्रतिशत लोग हिन्दी बोल सकते हैं। भारत के इन 75 प्रतिशत हिन्दी भाषियों सहित पूरी दुनिया में तकरीबन 80 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो इसे बोल या समझ सकते हैं। हालांकि केन्द्र में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनने के बाद इस दिशा में पहल भी हुई थी, लेकिन वह गैर हिन्दी भाषी राज्य विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध के कारण अञ्जाम तक नहीं पहुंच पाई। विरोध करने वाले राज्यों ने तर्क दिया था कि हमारे ऊपर हिन्दी थोपी नहीं जानी चाहिए। इनके तर्क में दम हो सकता है, लेकिन यही राज्य एक तरफ हिन्दी का विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ अंगरेजी को सिर-आंखों पर बैठाते हैं। क्या भारत में गुलामी की प्रतीक अंगरेजी भाषा को इतना महत्व देना उचित है? प्रश्‍न यह भी उठता है कि जब हिन्दी को नहीं थोपा जा सकता तो देश के लोगों पर अंगरेजी भी क्यों थोपी जाए? क्या अंगरेजी नहीं जानने वाले व्यक्ति को भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा में जाने का हक नहीं है?

देश में हिन्दी को स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता भी निकाला जा सकता है। प्रान्तीय सरकारों पर हिन्दी के लिए दबाव भले ही न बनाए जाए, लेकिन उन्हें इस बात के लिए तो राजी किया ही जा सकता है कि वे केन्द्र सरकार से अपने ही प्रान्त की भाषा और लिपि में पत्र व्यवहार करें। केन्द्र सरकार क्षेत्रीय भाषाओं में व्यवहार करने के लिए अनुवादक रखे और उनको जवाब भी उन्हीं की भाषा में दिया जा सकता है। साथ ही प्राथमिक स्तर से ही दक्षिण भारत के विद्यार्थी हिन्दी सीखें और हिन्दी भाषी राज्यों के बच्चे एक दक्षिण भारतीय भाषा सीखें। इससे धीरे-धीरे अंगरेजी स्वत: बाहर हो जाएगी। साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं को और मजबूती मिलेगी।

हालांकि दक्षिणी राज्यों में हिन्दी का विरोध वोट बैंक की राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं है। दक्षिणी राज्यों से हिन्दी भाषी राज्यों में रोजगार के लिए आने वाले युवक-युवती वहाँ अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में हिन्दी ही बोलते हैं। यदि उन्हें यह भाषा नहीं भी आती है तो वे इसे सीखते हैं, क्योंकि रोजगार के लिए यह उनकी मजबूरी है। इसी तरह दक्षिण में व्यापार-व्यवसाय कर रहे हिन्दी भाषी राज्यों के लोग भी वहाँ की भाषा सीखते हैं और बोलते भी हैं।

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से हिन्दी के लिए आग्रह इसलिए भी किया जा सकता है, क्योंकि गुजरात से दिल्ली तक के उनके सफर में हिन्दी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चुनाव के दौरान अपने सभी भाषण हिन्दी में ही दिए हैं। इससे मतदाताओं ने उनकी बात को समझा और उन्हें वोट भी दिया। लोकसभा सीटों का गणित देखें तो उनकी सरकार बनाने में हिन्दी भाषी राज्यों का योगदान सबसे अधिक रहा है। अत: मोदी को अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए सफाई अभियान जैसी ही पहल करनी चाहिए, क्योंकि यह भाषा देश को जोड़ने का काम भी करती है। यदि इस दिशा में सार्थक प्रयास होते हैं तो हम गर्व से कह सकेंगे-
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती ।
भगवान भारतवर्ष (पूरे विश्‍व) में गूँजे हमारी भारती ॥• - वृजेन्द्रसिंह झाला (दिव्ययुग - दिसंबर 2014)

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