दिनांक 29 अक्टूबर 2010 को सांयकाल सहारा समय पर श्री चन्द्रभान प्रसाद जी द्वारा अंग्रेजी मैय्या के मन्दिर निर्माण पर आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी के द्वारा औचित्य-अनौचित्य पर सम्वाद सुना। श्री प्रसाद का तर्क था कि अंग्रेजी भाषा द्वारा ही दलित समाज का कल्याण तथा उसे सम्मान प्राप्त हो सकता है। इस सम्वाद के समय कुछ कन्याओं को अंग्रेजी मैय्या की आरती गाते हुए भी दिखाया गया। श्री प्रसाद ने कहा कि अंग्रेजी शासन ने दलितों का सम्मान बढ़ाया। यदि अंग्रेजी शासन भारत पर और रहता तो दलितों को लाभ मिलता। यह प्रसाद जी की अपनी समझ है। पर भाषा कोई भी हो वह भाव का बोध कराती है। भाव पवित्र और हितकारी नहीं हैं तो भाषा क्या करेगी? पवित्र भाव वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती, सन्त कबीरदास, सन्त रविदास तथा महर्षि वाल्मीकि समाज को नई दिशा प्रदान कर गये। श्रेष्ठ विचारों का पुल बनाकर दलित और सवर्ण को वे नजदीक ले आये।
अंग्रेजी भाषी ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीयों के अपमान तथा तिरस्कार की घटनाएं सुनी हैं। पर जापान में ऐसी कोई घटना सुनने में नहीं आयी। दिल्ली में जापान के सहयोग से मैट्रो चल रही है। कुछ न कुछ दलित जनों को इसमें रोजगार भी मिला होगा। सभी यात्री इसमें सम्मानपूर्वक यात्रा करते हैं। कोई किसी की जाति नहीं पूछता। तो चन्द्रभान जी! क्या आप जापानी भाषा का मन्दिर बनायेंगे? आज भारत में विदेशी भाषाओं के जानकारों का प्रतिशत 3-4 से अधिक नहीं होगा। उनमें दलितों का प्रतिशत कितना होगा, यह ज्ञात नहीं। हाँ! अंग्रेजी या दूसरी भाषाएं जानना बहुत अच्छी बात है। पर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर कितने दलित अपनी भागीदारी 63 वर्ष में सुनिश्चित कर पाये हैं? इसे चन्द्रभान प्रसाद से अधिक कौन समझ सकता है! महानगरों में सरकार की सहायता से जमीन लेने वाले स्कूल 20% भी गरीबों को देने को तैयार नहीं हैं। इस कार्य में भी सरकार की विवशता साफ दिखायी देती है। इस कठिन डगर पर आप दलितों को क्यों चलाना चाहते हैं? क्या संसद की प्रामाणिक भाषा अंगे्रजी के बजाय भारतीय भाषायें नहीं हो सकतीं? क्या हमारा न्याय तन्त्र भारतीय भाषाओं द्वारा नहीं चलाया जा सकता? हमारा कार्य जन-मानस की भाषा या बोली में क्या सम्भव नहीं है? यदि नहीं है तो ऐसे स्वराज्य का गरीब और कमजोर के लिए कोई अर्थ नहीं है।
आज से 150 वर्ष पूर्व महर्षि दयानन्द जी महाराज ने समानता का एक सपना देखा था। अपनी अमर कृति सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने लिखा कि कन्याओें और लड़कों के अलग-अलग शिक्षाणालय हों, सबको समान भोजन, वस्त्र, पुस्तक आदि सुविधाओं के साथ सबसे समान व्यवहार किया जाये। चाहे कोई राजा का बेटा-बेटी हो या भिखारी का । स्वामी श्रद्धानन्द जी तथा स्वामी दर्शनानन्द जी ने गुरुकुल कांगड़ी और ज्वालापुर बनाकर एक प्रतिमान कायम किया। बाद में अन्य श्रेष्ठ जनों ने इसे आगे बढ़ाया। पर वर्तमान में आर्यसमाज के नेतृत्व की इसमें कोई रुचि दिखाई नहीं देती। अब आर्यसमाज जैसी संस्था भी अपने प्रचार का बहाना बनाकर और इसे आधुनिक आवश्यकता बताकर विषमता का बीज बोने वाले स्कूल ही चला रही है। प्रहरी ही सो जाये तो चोरों की ही मौज होगी। सरकार को बहुमत चाहिए, वोट चाहिए। उससे सम्मान दिलाये जाने की कामना सर्वांश रूप से पूरी नहीं हो सकती।
कानून से शिक्षा, शान्ति, सुख पूर्णतः नहीं आ सकता। यह जनमानस के विचार परिवर्तन से ही सम्भव है। इसके लिए सन्तमार्ग ही क्षेयस्कर मार्ग है। यही आचार्यश्री धर्मेन्द्र जी ने कहा कि हम महर्षि दयानन्द के विचारों का प्रचार-प्रसार करेंगे। सन्त रविदास, कबीरदास और वाल्मीकि ऋषि के मन्दिर बनायेंगे, जो समता लाने में मददगार होंगे। भगवान मनु ने कहा है कि शरीर में ब्राह्मण शिर, क्षत्रिय भुजा, वैश्य पेट और पैर शूद्र के समान है। यही राष्ट्र का शरीर है।
आज भी व्यवस्थाविहीन चार्तुवर्ण्य चल रहा है। इसे यदि कोई व्यवस्था व्यवस्थित कर दे तो यह भेदभाव समाप्त हो जायेगा। आई.ए.एस और चपरासी के अन्तर को कोई मायावती, पासवान, चन्द्रभान प्रसाद नहीं पाट सकते। आर्थिक समानता पूर्ण नहीं तो आंशिक तो लानी ही पड़ेगी। जूता बनाने वाले बाटा और जूता गांठने वाले मोची दोनों की समाज को जरूरत रहेगी। इन दोनों के विचार में सामञ्जस्य लाने की जरूरत है। इनमें से किसी को मिटाने की जरूरत नहीं है। वैमनस्य से कुछ लोग सुन्तुष्ट हो सकते हैं। कुछ लोग वोट पाकर नेता और मन्त्री बन सकते हैं। ये जुबानी तौर पर अम्बेडकर और दलित समाज की जय बोल सकते हैं, भारत माता की जय बोल सकते हैं। अम्बेडकर को शिक्षा दिलाने वाला एक जन्मना ब्राह्मण ही था, जिसके दया-प्रेम के कारण वे बाबा भीमराव अम्बेडकर बने। देश का निर्माण या दलितोत्थान दया, प्रेम सहिष्णुता, परहित परायणता से ही सम्भव है, अंग्रेजी के मन्दिर बनाने से नहीं और न ही दलितोत्थान का आडम्बर करने से कोई हित होने वाला है। - अशोक कुमार शास्त्री
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