ओ3म् वि मे कर्णा पतयतो वि चक्षु: वी3दं ज्योतिर्हृदय आहितं यत्।
वि मे मनश्चरति दूर आधी: किं स्विद् वक्षयामि किमु नू मनिष्ये॥ ऋग्वेद.6.9.6॥
ऋषि: भारद्वाजो बार्हस्पत्य:॥ देवता वैश्वानर: ॥ छन्दः त्रिष्टुप् ॥
विनय- हे प्रभो ! मैं चाहता हूँ कि बिल्कुल एकाग्र होकर अपनी मानसिक वाणी द्वारा तेरा नाम जपूँ या तेरा मनन करूँ, तेरा ध्यान करूँ। परन्तु जब मैं ऐसा करने के लिए बैठता हूँ तो कुछ भी शब्द सुनाई पड़ते ही मेरे कान यहाँ-वहाँ दौड़े जाते हैं। आँखों के सामने कुछ भी आते ही मैं यहाँ-वहाँ देखने लगता हूँ। कभी कान कुछ सुनने लगते हैं, कभी आँखें कुछ देखने लगती हैं और यदि मैं किसी ऐसे स्थान पर जाकर बैठता हूँ जहाँ शब्द और रूप आ ही न सकें, तो भी मैं देखता हूँ कि मेरा मन अन्दर-ही-अन्दर सब-कुछ देखता-सुनता रहता है। दिन-रात की किसी बात का स्मरण आते ही मन यहाँ-वहाँ भाग जाता है और इधर-उधर की बातें सोचने लगता है। तब पता लगता है कि मेरा मन कितनी दूर पहुँचा हुआ है और यदि किसी दिन कोई मन पर चोट लगनेवाली बात हो चुकी होती है तब तो मन बार-बार वहीं पहुँचता है। रोकने का बड़ा यत्न करने पर भी क्षण-क्षण में वहीं जा पहुँचता है।
मेरे हृदय में जगनेवाली यह ज्योति भी जो वातरहित स्थान में रखे हुए दीपक की शिखा की तरह बिल्कुल अनिङ्गित, बिल्कुल ही न हिलती हुई, एकरस जलती हुई रहनी चाहिए। वह ज्योति, वह ज्ञान-ज्योति भी सदा इधर-उधर हिलती रहती है । मनोवृत्तियों की हवा लगते रहने से हिलती रहती है। तो फिर मैं तेरा ध्यान कैसे कर सकता हूँ? एकाग्रता से तेरा नाम कैसे जपूँ? तेरा मनन कैसे करूँ? और यदि प्रतिदिन तेरा इतना भी भजन न कर सकूँगा तो उस दिन, जबकि मेरी यह जीवनसाधना समाप्त होगी, उस दिन तुम्हें क्या उत्तर दूँगा? तुम्हारे सामने किस बात का अभिमान कर सकूँगा? यह जीवन, ये सब ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ, तुमने मुझे तुम्हारे समीप पहुँचने की साधना ही के लिए दी हैं। तो उस दिन जबकि तुम यह शरीर वापस माँगोगे, तब मैं तुम्हें क्या उत्तर दूँगा? क्या मुँह दिखलाऊँगा? हे प्रभो! शक्ति दो कि मेरे मन की आज्ञा के बिना मेरे ये कान, आँख आदि कहीं न जा सकें और यह मन भी हृदय की ज्योति के साथ मिल जाया करे। ज्योति एक-रस जगती रहे। ऐसी अवस्था दिन में दो बार सन्ध्योपासना के समय हो जाया करे, नहीं तो मैं क्या मुँह दिखाने लायक रहूँगा?
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
भारत देश की गुलामी के कारण | Ved Katha Pravachan 48 | Explanation of Vedas
शब्दार्थ- मे कर्णा वि पतयत:= मेरे दोनों कान इधन-उधर जा रहे हैं चक्षु: वि=मेरी आँख इधर-उधर विविध स्थानों पर पड़ रही है हृदये आहिंत यत् ज्योति(तत्) इदं वि=हृदय में स्थापित जो यह ज्ञानरूप ज्योति है वह भी विविध स्थानों पर दौड़ रही है मे मन: दूरे आधी: विचरति=मेरा मन दूर-दूर चिन्ता के विषयों में विचरण करता रहता है। ऐसी अवस्था में हे प्रभो! किं स्वित् वक्ष्यामि=मैं क्या बोलूँगा या क्या उत्तर दूँगा? किम् उ नु मनिष्ये=और मैं क्या मनन करूँगा या क्या अभिमान कर सकूँगा? - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- नवंबर 2013)