विशेष :

अपनी वाणी को देवी बनाओगे या राक्षसी

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इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता।
ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः॥ अथर्ववेद 19।9।3॥

अर्थ- (इयं) यह (या) जो (परमेष्ठिनी) बहुत अधिक ऊँची स्थिति वाली (वाग्) वाणी है वह (ब्रह्म-संशिता) वेदज्ञान से अथवा ब्रह्मज्ञान से माँजी हुई (देवी) देवी बन जानी है (यया) जिस वाणी से (एव) ही (नः) हमारे लिये (शान्तिः) शान्ति (अस्तु) होवे।

वाणी की व्यक्ति और समाज के जीवन में बहुत अधिक ऊँची स्थिति है। हमारे सारे व्यवहार इस वाणी की शक्ति के ऊपर ही चल रहे हैं। यदि कुछ समय के लिए संसार से वाणी जाती रहे तो संसार का सभी व्यवहार रुक जावे। अगर हमारे पास भाषित और लिखित वाणी न रहे तो हमारा कार-बार, ज्ञान-विज्ञान, सभा-समाजें तथा सभी प्रकार के सामाजिक और वैयक्तिक संगठन बात की बात में बैठ जावें। इसलिए इस बात को बहुत समझाकर बताने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे जीवन में वाणी की कितनी अधिक ऊँची स्थिति है।

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यह शक्तिशालिनी वाणी संसार का कल्याण और अकल्याण, भला और बुरा दोनों ही कर सकने का सामर्थ्य रखती है। वाणी के भाषित और लिखित दोनों ही प्रकार की वाणी के प्रयोग से संसार को स्वर्ग और इसमें बसने वाले मनुष्यों को देवता भी बनाया जा सकता है और उसी के प्रयोग से संसार को नरक और उसके निवासियों को नरक-कीट भी बनाया जा सकता है। वाणी संसार को बसा भी सकती है और उजाड़ भी। वाणी जगत् के लिये अमृत भी बरसा सकती है और जहर भी उगल सकती है। वाणी का साधु प्रयोग करके संसार के शिक्षक और लेखक उसे उठा भी सकते हैं और उसी का असाधु प्रयोग करके गिरा भी सकते है। वाणी के प्रयोग से विश्‍व को जिस रंग में रंगना चाहो रंग लो। उसके द्वारा मृदु, मीठे, सुन्दर, रसीले कल्याणकारी कर्म भी किये जा सकते हैं और इनसे उलटे घोर कर्म भी किये जा सकते हैं।

जब वाणी ‘देवी’ होगी तब वह सुन्दर कर्म करेगी और जब उसे ही ‘राक्षसी’ बना दिया जायेगा तब वह घोर कर्म करेगी।

वाणी को देवी बनाने का एक ही उपाय है। वह यह कि उसे ब्रह्मसंशिता कर दो। ब्रह्म के दो अर्थ हैं। वेद और ईश्‍वर। वाणी को वेद के ज्ञान से अथवा ब्रह्म-ज्ञान से माँज दो, चमका दो वह देवी बन जायेगी। क्योंकि वेद का भी अन्तिम और सबसे बड़ा लक्ष्य ईश्‍वर ही है। इसलिये ब्रह्म शब्द का दोनों में से कोई भी अर्थ लेने पर भाव एक ही रहता है। देवी बनने के लिये आवश्यक है कि वाणी ब्राह्मी हो, उसमें आध्यात्मिकता की पुट लगी हुई हो। जब तक वाणी ब्राह्मी नहीं बनती, उसमें आध्यात्मिकता की पुट नहीं लगती, जब तक वह पार्थिवा बनी हुई है, संसार की धन-दौलत, महल-माड़ी और राज-पाट आदि ही उसके अन्तिम और सबसे बड़े लक्ष्य हैं, जब तक इन चीजों को किसी और ऊँची चीज का साधन नहीं प्रत्युत स्वयं साध्य समझा जाता है और इसी उद्देश्य को लेकर हमारा सारा व्यवहार चलता है, तब तक हमारी वाणी देवी नहीं बन सकती और घोर कर्म करना नहीं छोड़ सकती। आज संसार में अशान्ति क्यों है? इसीलिये कि हमारी वाणी देवी या ब्राह्मी नहीं है, वह राक्षसी बनी हुई है और इसीलिये वह अपने लिखित और भाषित दोनों रूपों द्वारा संसार में महान घोर कर्म करवा रही है। आज मनुष्य मनुष्य को और जातियाँ जातियों को खा जाना चाहती हैं। सारी धरती एक महान सूनागृह बना हुआ है। इस स्थिति से संसार का उद्धार नहीं हो सकता जब तक हम सबकी शिक्षकों, प्रचारकों, लेखकों और व्यापारियों, सबकी- वाणियाँ ब्राह्मी और इसीलिए देवी नहीं बन जाती हैं।

प्रभो! हमारी वाणी को देवी बनाइये, उसे ब्राह्मी कीजिये, ताकि उससे हमें कुछ भी घोर न मिले, प्रत्युत वह हमारे लिये मधुर, शान्ति की वर्षा करने वाली हो। मनुष्य! उठ, अपनी वाणी को ब्राह्मी बना। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)