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वोट देना आपकी राष्ट्रीय सेवा है

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राष्ट्र हमारा है, हम सब भारतवासी हैं और इस देश के नागरिक हैं। इस नाते देश में चुनाव के समय बहुत ध्यान देकर प्रत्याशी चुनना भी प्रथम कार्य और राष्ट्र-भक्ति है। अपने सारे दैनिक कार्यों के साथ राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य भी जोड़ लें। इधर भी नजर रहेगी, कोई अयोग्य व्यक्ति इन महत्वपूर्ण ओहदों पर नहीं आ सकेगा। पांच साल बाद चुनाव आने पर ही कुछ बदलाव आने की गुंजाईश रहती है, बार-बार नहीं। विचार करें और स्वयं निर्णय लें।

महंगाई बढ रही है, लोग परेशान भी दिखाई देते हैं और केवल सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। यह नहीं सोचते कि हमारे द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही तो सरकार चला रहे हैं, कोई विदेशी तो हैं नहीं। काफी लोग उदासीन हैं। सारा दिमाग बाल-बच्चों की पढाई और परिवार चलाने में लगा है। इधर क्या ध्यान दें। यह काम केवल संस्कारवान और स्वदेशी प्रेमी ही कर सकते हैं। जिनकी अपनी इच्छायें कम होंगी, वही औरों की तरफ देख सकते हैं। अपने विवेक बुद्धि से विचार करने पर पहले से काफी फर्क आयेगा। सत्य यह है कि वोटिंग के दिन प्रायः यह भी ठीक से मालूम नहीं होता कि कौन-कौन से प्रत्याशी खड़े हैं। बस दो तीन पार्टियां हैं, जिनका नाम देखकर और लोगों से पूछकर, दफ्तर-दुकान बंदी की वजह से वोट डालने जाते हैं और इस कार्य की यहीं पर इतिश्री कर देते हैं।

प्रत्याशी का चुनाव अपनी विवेक बुद्धि से ही करें- चुनाव आते हैं। जिनका जितना ज्यादा हो हल्ला होता है, जिसका टैम्पो हाई होता है, उधर खुद भी झुक जाते हैं। यह ठीक-ठाक है, तभी इसका इतना नाम है और उसी को वोट देकर अपनी पीठ थपथपा लेते हैं। क्या इतना ही दायित्व है। क्या ये ही लोकतन्त्र की आधारशिला है? क्या वोट देने का इतना ही महत्व है? वोट देना है, साथ में विवेक बुद्धि से विचार-विमर्श करके वोट देना है।

ज्यादातर लोग जाति व सम्प्रदाय को आधार मानकर और अपना भाई कहकर उसकी तरफ झुक जाते हैं और सोचते हैं कि हमारा भाई हो जायेगा, हमारे काम आयेगा। वैसे कोई किसी के काम नहीं आता। केवल-साफ सुथरा और संस्कारी व्यक्ति तो एक बार कुछ काम आ भी सकता है, बाकी सब तो अपनों के बीच फंसकर रह जाते हैं और अपनों को पोसने और सही करने में ही सारा समय लगा जाते हैं।

राष्ट्र प्रेम सर्वोपरि है। कितने बलिदानों के बाद आजादी मिली है, लोकतन्त्र की व्यवस्था बनी है, इसी व्यवस्था से देश को आगे बढाना है और उसके लिए प्रत्येक नागरिक का दायित्व बनता है कि अपने सभी आवश्यक कार्यों के साथ इधर भी पूरी नजर रखे।

क्योंकि स्थिति यह है- व्यापारी है, कलाकार है, उद्योगपति है या कोई भी अच्छी आमदनी का स्रोत है तो जरा सी भी शह मिलने के बाद किसी पार्टी का चुनावी टिकट लेने के इच्छुक हो जाते हैं और पैसा क्या सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। एक दम से हममें बदलाव आ जाता है। हम कैसे नागरिक हैं? केवल अपने नाम के लिए क्या ऐसा करना उचित है? देश के लिये गद्दारी ही तो है।

बूढे हैं, सत्तर के आस-पास क्या पिचहत्तर भी पार कर रहे हैं, तमाम तरह की परेशानियां हैं, बगैर सहारे मंच पर भी जाने में दिक्कत है, खुद चलने में असमर्थ हैं। भाषणों में देश को चलाने की बात करते हैं, हांफ तक जाते हैं, पता नहीं हमारी कितनी हवश है, किसी युवा को आने नहीं देना चाहते। क्या-क्या वायदे तक कर जाते हैं कि उन्हें खुद भी याद नहीं रहता। अन्य लोगों की कितनी निन्दा कर जाते हैं, भूल जाते हैं।

युवा हैं, शरीर बलिष्ठ और सुन्दर है, परिवार साथ है और सब प्रकार के सम्पन्न हैं, कभी भी राजनीति में रहे नहीं, बस अपने क्षेत्र में अपने को असरदार दिखाने के लिये खड़े हो जाते हैं। जबकि एक सही समाजसेवी और कर्मठ कार्यकर्ता धनाभाव व सेटिंग न होने से रह जाता है। सोचें! अपने देश के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं? हम उन शरीदों की आत्माओं को कितना कष्ट दे रहे हैं।

राजनीति का पूरा ज्ञान है, पूरी उम्र इसी में लगा दी है, सभी दलों में रह चुके हैं, ऊंचे से ऊंचे पदों पर रह चुके हैं और अब अपनों का ही दंश झेल रहे हैं, बाकी सब उनसे आगे निकलना चाहते हैं और कदम-कदम पर अपमानित होते रहते हैं और काफी कुछ गलत होने के बाद भी उसी को सही कहकर बोलते रहते हैं और विपक्षी की हर समय निन्दा करते हैं।

अपने दल को टूटने-चिटकने से बचाने में सारी शक्ति लगी है, मानो एक बहुत बड़ी बिल्डिंग को बल्लियों के सहारे टिकाये हैं, बल्लियों को सम्भालते रहते हैं। यह कब तक सम्भव है? राजनीतिज्ञ हैं तो दूरदर्शी भी होंगे। कुछ तो सोचें कि हम ऐसा करके कितना बड़ा रिस्क ले रहे हैं। कब तक, कैसे पार्टी जीवित रहेगी? जबकि तमामों पार्टियां टूटती भी दिखाई देती हैं।

पार्टी को जिताऊ प्रत्याशी चाहिये, प्रत्याशी को जीतती हुई पार्टी चाहिये, सारी श्रम-ऊर्जा इसी में लगी है, बाकी देश में क्या हो रहा है, यह वर्तमान सरकार का काम है, हमसे कोई मतलब नहीं। सब अपने-अपने स्वार्थ में लगे हैं, केवल अपने और अपनों को देख रहे हैं। सब कुछ जीत जाने के बाद भी संसद जाते नहीं, जाने के लिये चुनाव लड़ते भी नहीं, केवल रुतबा चाहते हैं, चले भी गये तो कुछ बोलते नहीं, अपने स्वयं के कारोबार और झंझटों से फुर्सत नहीं, बस चुनाव लड़ने के लिये समय निकाल लेते हैं। कभी सोचे! एक सीट अपने नाम करके हमें क्या मिला? इस महत्वपूर्ण पद को निर्जीव करके जनता की भावनाओं पर कितना बड़ा कुठाराघात किया।

किसी कारण से स्वयं नहीं खड़े होने की स्थिति में पत्नी को खड़ा कर देते हैं और सीट हासिल कर लेते हैं। फिर सब कुछ अपने संचालन में करके अपना एकाधिकार बनाये रखते हैं। सारी बुद्धि एवं श्रम अपने और अपनों के कल्याण में लगी है।

आज ऐसा भी है कि बहुत लोग वोट देना अति आवश्यक नहीं, आवश्यक नहीं, वरन् समय को नष्ट करना समझते हैं और फिर आने वाली सरकार की नीतियों में दोष निकालते हैं। यह नहीं सोचते कि क्या सरकार को चुनने में हमने अपनी विवेक बुद्धि लगायी? हमें स्वयं दोषी को भी दण्ड देना चाहिये। इस पर भी ध्यान दें। क्योंकि हमारे पास राष्ट्र की नागरिकता है, हम उसकी ईकाई हैं और अपने देश को हृदय से चाहते हैं।

सब अलग-अलग दृष्टिकोण है। थोड़ा समय राष्ट्र प्रेम के नाते अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए इधर भी देखें। एक तो वोट अवश्य दें, पूरी विवेक बुद्धि से दें और लोगों को भी वोट का महत्व बतायें ताकि अधिक से अधिक लोग वोट दें और अन्य लोगों को भी उत्साहित कर वोट डलवाने का प्रयास करें।

हमारे देश की युवा सोच का पूरा आंकलन हो जायेगा और आने वाले समय में इससे फायदा ही नहीं, बहुत बड़ा फायदा होगा। युवावर्ग के वोट का बहुत महत्व है। - गोपालचन्द अग्रवाल

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