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विजय की प्रेरणा का पर्व विजयादशमी

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Vijyadashmi

विजयादशमी है अन्याय, अत्याचार और अनाचार का पर्याय बन गए रावण पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की महान विजय का स्मृति दिवस। सहस्त्रों वर्ष पूर्व सम्पन्न हुआ राम का वह विजयी अभियान आज भी समग्र हिन्दुस्तान ही नहीं, अपितु जन-जन में जिन-जिनके हृदयों में वेद के प्रति आस्था विद्यमान है, उन सभी के लिए विजयादशमी पर्व स्वर्णिम अतीत की प्रेरक स्मृति और उज्ज्वल भविष्य के प्रति अडिग आस्था की चिरन्तन प्रेरणा भी प्रदान करता है।

स्वदेश में व्याप्त अद्भुत सी अनिश्‍चितता, भारतभूमि के महिमामंडित मुकुट कश्मीर की केसर क्यारियों में मजहबी उन्मादियों द्वारा बिखेरी जा रही साम्प्रदायिकता की आग, अपनों की दुत्कार परायों से प्यार के राष्ट्र रोग, तुष्टीकरण की चासनी में पगे पगों से देश की धरती पर खिंचती सी प्रतीत हो रही विभाजक लकीरें, देश के घटनाचक्र में रक्त का रंग भरती प्रतीत हो रही हैं। हाल ही में पूर्व से पश्‍चिम तक देश की एकता के सफल सृजक श्रीकृष्ण के जन्म दिवस को जन्माष्टमी के रूप में स्वदेश ने मनाया है, तो अब भारत की उत्तरी और दक्षिणी धुरी को मिलाने वाले श्रीराम की विजय की प्रेरक स्मृति को सहेजे यह विजयदशमी पर्व आया है। किन्तु महापुरुषों और ऋषियों की पद रज से पावन कश्मीर की माटी, वहाँ की सरिताएं और घाटी स्वदेश की अखण्डता को चुनौती देने वालों की गतिविधियों से अशान्त है। जबकि कुछ लोग श्रीराम की पावन जन्मभूमि और रामसेतु एक वस्तु के रूप में चित्रित करने में संकोच नहीं बरत रहे हैं। ‘आर्य सत्यानि‘ के उद्घोषक गौतम बुद्ध के अनुयायी होने में गौरव बोध के दावेदारों में से कुछ ऐसे भी हैं, जो क्षत्रिय कुलोत्पन्न युगद्रष्टा, शांति की सुधा का समाज के सभी वर्गों को भेदभाव रहित होकर बांटने वाले महामानव का नाम लेकर हिन्दुत्व की पुनीत गंगा के स्थान पर समाज के कुछ वर्गों में जाति और मत-मतान्तरों के आधार पर विष घोलने को आतुर हैं।

दूसरी ओर तथाकथित प्रगतिवाद के पुरोधा सोवियत संघ के खण्ड खण्डित और साम्यवाद के लौह दुर्ग के ध्वस्त और भस्मसात हो जाने के बावजूद अपने वैचारिक पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए इस देश में उपराष्ट्रीयता तथा विभिन्न संस्कृतियों तथा जातीय पहचान जैसे नारों को गुंजाने में संकोच नहीं कर रहे। तथाकथित साम्यवादियों ने ही मुस्लिम लीगियों के साथ मिलकर अखण्ड भारत को खण्डित कर पाकिस्तान की रचना के पाप में योगदान दिया था। आज वे कश्मीर और आतंकवाद की समस्याओं का समाधान भी लेनदेन की डगर अपनाना ही बता रहे हैं। इस विभ्रान्त, मदभ्रान्त, कलान्त परिस्थिति में भी यह महान देश विजयादशमी का प्रेरक पर्व मना रहा है। इस पर्व का परिपालन निराशा में आशा की एक ज्योति भी जगाता है। क्योंकि सि पर्व में निश्‍चय ही कुछ न कुछ ऐसा अवश्य है, जो हमें इसके परिपालन हेतु आकृष्ट करता है।

यह पावन पर्व इस तथ्य की पुनीत स्मृति हमें कराता है कि हिन्दुत्व किसी नदी का द्वीप नहीं, एक सतत प्रवाहिनी अजस्र अमर जलधारा है। यह हमें इस तथ्य की अनुभूति कराता है कि इस जलधारा में समय और परिस्थितियाँ भेद-विभेद के कितने ही भंवर क्यों नहीं उठाते रहें, फिर भी इस राष्ट्र का अतीत सांझा है। हमारी स्मृतियाँ सांझी है, तो इस महान राष्ट्र का भविष्य भी सांझा है। न्याय, विवेक और वीरता के हमारे प्रतीक सांझे हैं। इन प्रतीकों पर इतिहास की गर्द ने चाहे जितनी भी परतें जमा दी हों, यह प्रतीक धुव्र तारे के समान प्रकाशमान रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे। पावन वैदिक संस्कृति और इस देश की महान संस्कृति का यही सर्वाधिक सशक्त बंधन है, जो जाति-पंथ-वर्ण-मत-मतान्तरों के घटाटोप में भी भेद-विभेद के बांधों को तोड़कर एकसूत्रता की मंदाकिनी बहाता है। असत्य के प्रतीक पर सत्य के प्रेरक की विजय हेतु समस्याओं के सागर पर अदम्य विश्‍वास के सेतुबन्ध का निर्माण कराता है। यह बन्धन ही तो क्षत्रिय राम द्वारा अन्याय के पथ पर बढ़े और स्वयं को ज्ञान-विज्ञान का आगार मानने वाले ब्राह्मण रावण के मान-मर्दन पर बड़े से बड़े विप्रकुल अभिमानी को भी रावण के प्रतीक पुतलों के दहन पर हर्षित होने को प्रेरित करता है। साथ ही वनवासी हनुमान, सुग्रीव, अंगद और जाम्बवंत के बल-वैभव और निषादराज की सेवाभावना के समक्ष क्षत्रिय कुलावतंश होने में गौरव की अनुभूति करने वाले पात्रों के समक्ष नतमस्तक होने की प्रेरणा देता है।

विजयादशमी के इस प्रेरक पर्व पर अगड़े-पिछड़े, ब्राह्मण-अब्राह्मण, क्षत्रिय और तथाकथित दलित-गिरिजन-वनवासी सभी रामलीला मंचन में शबरी की रामभक्ति के दृश्य को निहारकर समान रूप से पुलकित होकर धन्य-धन्य कह उठते हैं। इस दृश्य से हिन्दुत्व के सर्व समावेशक रूप का विश्‍व को साक्षात्कार हो जाता है।

विजयादशमी के महानायक राम की जगगाथा आदिकवि बाल्मिकी ने रामायण के माध्यम से, सन्तु तुलसी ने रामचरित मानस के रूप में स्तुति की थी, तो दक्षिण में महाकवि कम्ब ने भी उनका यशगान मुक्तकंठ से गाया था। पड़ोसी राष्ट्र नेपाल में उन्हीं श्रीराम की विजयगाथा को नेपाली के आदि कवि भानुभक्त ने राम प्रेमानुरक्त होकर अपनी लेखनी से अमर बनाया था।

हिन्दुस्तान ही नहीं अपितु जहाँ-जहाँ भी कभी वैदिक संस्कृति का प्रचार हुआ राम की प्रेरक तथा जन-जन में रसी और रमी तथा सहस्त्रों वर्ष के कालखण्ड में उठे अनेक झंझावातों और आघातों को झेलकर आज भी जन-जन में मन में यथावत् बसी है।

स्वदेश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशी आक्रान्ताओं से जूझने वाले यशस्वी स्वातन्त्र्य सेनानियों के प्रेरक भी श्रीराम ही बने थे और उन्हें प्रेरणा दी थी श्रीराम के इस महान सन्देश ने जननी जन्मभूमिश्‍च स्वर्गादपि गरीयसी। इसी सूत्र को महामति ब्राह्मण चाणक्य ने तथाकथित शद्र चन्द्रगुप्त को अपनी प्रखर शैली में समझाकर विदेशी यूनानी सत्ताधीशों से स्वराष्ट्र को मुक्त कराने के लिए प्रेरित किया था। शकारि विक्रमादित्य और महान् विजेता समुद्रगुप्त के प्रेरणा स्रोत श्रीराम ही थे। तुर्कों, मुगलों और अब्दालियों से टक्कर लेने वाले महान राष्ट्रनायकों की प्रेरणा का स्रोत भी राम का स्वातन्त्र्य और राष्ट्र निर्माण का पावन दर्शन ही था। प्रणवीर प्रताप, महावीर शिवाजी, दशमेश पिता गुरु गोविन्दसिंह, महान बलिदानी बंदा बैरागी, वीर छत्रसाल तथा अपना कोमल-कोमल तन स्वधर्भ और स्वदेश की वेदी पर सहर्ष समर्पित करने वाले बालवीर हकीकत, अजीत और जुझार के प्रेरणा पुरुष भी श्रीराम ही थे।

ब्रिटिश राज्यसत्ता के विरुद्ध क्रान्ति का रणनाद करने वाले क्रान्तिकारियों को लन्दन में भी विजयादशमी पर्व का परिपालन सतत स्मरण रहा, तो महात्मा गांधी ने भी स्वदेश की स्वतंत्रता के बाद भारत में राम राज्य आने की ही कल्पना की थी। राम को हर मनीषी, चिन्तक और विचारक ने अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार चित्रित भले ही किया हो, फिर भी अन्याय का प्रतिकार, मर्यादा का बोध और प्रबल पराक्रम उन सभी को मान्य ऐसे सांझे तत्व हैं, जो राम को श्रीराम ही रखते हैं। राम मात्र सद्वृत्ति का ही प्रतीक नहीं थे, सद्गुणों की खान ही नहीं थे, वह तो एक ऐसे युग-स्रष्टा थे कि जो सद्गुण विकृति की प्रवृत्ति से सर्वथा मुक्त परम पराक्रम के साथ सत्य और न्याय को प्रतिष्ठित करने वाले महान् युगपुरुष थे।

उनका प्रेरक जीवनवृत्त हमें आज भी यह सन्देश दे रहा है कि मात्र अच्छाई को चाहना और स्वयं अच्छा बन जाना ही पर्याप्त नहीं है। यदि कोई बुरा है, असत्य पथगामी है, अन्याय का प्रेरक और प्रसारक है अथवा अपनी सीमा का अतिक्रमण करता है तो उसे राह पर लाना भी आवश्यक है। राम मात्र आर्यपुत्र ही नहीं अपितु ‘कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम्’ के महान् वैदिक आह्वान के प्रति मनसा-वाचा-कर्मणा आस्थावान भी थे।

श्रीराम ने इस सत्य को अपने जीवन वृत्त में साकार किया था कि अनेक कार्य परिस्थिति विशेष में ‘सद’ होते हैं तो परिवर्तित परिस्थितियों में ‘असद्’ बन जाते हैं। पराक्रम के स्वरूप में भी काल और स्थिति के अनुसार जनसाधारण के विचार-प्रवाह में बदलाव आता रहता है। यद्यपि उसके मूल में निहित अदम्य मानवीय चेतना चिरन्तन और अक्षुण्ण रहती है। इसे ही तो हम रामत्व कह सकते हैं, पौराणिक बन्धु जिसे ‘देवत्व’ की संज्ञा प्रदान करते आये हैं। यह रामत्व ही मानव जीवन का सहस्त्रों वर्षों से चिरन्तन आदर्श रहा है। गौतम बुद्ध, महावीर, नानक, गुरु गोविन्दसिंह सभी ने रामत्व का यही आदर्श अपने-अपने चिन्तन और मनन के अनुरूप वर्णित किया है। महर्षि दयानन्द ने राम की प्रतिमा का मान स्तवन भले ही नहीं किया, किन्तु उनकी दृष्टि में भी राम एक आदर्श आर्य शासक का प्रेरक प्रतिमान थे। जैन, बौद्ध और सिख मतावलम्बियों ने तो अपनी गाथाओं और कथाओं में मर्यादा पुरुषोत्तम की विरुदावलि और महिमा गायी ही, अब्दुल रहीम खानखाना भी जब राम भक्ति में अनुरक्त हुए तो उनके मधुरकंठ से गूंज उठा था- “चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश’’। सन्त कबीर के दोहों और साखियों में भी श्रीराम यशोगान को नया आयाम मिला था। आज राम की जन्मभूमि को कतिपय मजहबी भले ही वाद-विवाद का विषय बना रहे हों, परन्तु जब भारत पर अंग्रेजी राज था, तब नजीर जैसे अनेक मुस्लिम कवियों ने मुक्त कंठ से श्रीराम की महिमा के गान गाए थे। देश के स्वाधीनता संग्राम में एक क्रान्ति की चिंगारी दहकाने वाले अमर हुतात्मा मदनलाल ढींगरा को भारत की परतन्त्रता में राम का अपमान दिखायी दिया था। राम को स्वातन्त्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर और पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा ने क्रान्ति पथिकों को स्वातन्त्र्य समर में जूझने के लिए तैयार करने हेतु प्रेरणा का स्रोत बनाया था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर हिन्दू राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने का सपना संजोने वाले आद्य सरसंघचालक डॉ. केशवराव बलिराम ने भी अपने संगठन यज्ञ का सूत्रपात सन् 1925 में नागपुर में विजयादशमी के पावन दिवस पर ही किया था।

विजयादशमी का यह पर्व हमें प्रेरणा दे रहा है कृत्रिम भेदभाव, सम्प्रदायवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद को विभ्रान्तियों से मुक्त होकर इस महान देश को सबल और सुदृढ़ बनाने की, जो विश्‍वभर में अन्याय और शोषण की शक्तियों को चुनौती दे सके। और हमें स्मृति दिला रहा है इस तथ्य की कि इस महान हिन्दू जाति ने अतीत में वीरों की अनन्त टोलियों को गोद में खिलाया है। यह राष्ट्र आज तक भी अपने उस गौरवपूर्ण युग की पावन स्मृति को अपने हृदय में संजोए हुए हैं कि उसने यूनान और रोम, फरोहा तथा इन्काओं जैसे राष्ट्रों को नष्ट कर देने वाली शक्तियों को भी मान मर्दन करने का बल विक्रम प्रदर्शित किया था। यह पर्व हमारे मन में आस्था जगाता है कि हमारा भविष्य निश्‍चय ही उज्ज्वल है। एक दिन अवश्य ही ऐसा आएगा जब मानव जाति इस राष्ट्र की महान शक्ति के दिव्य रूप का दर्शन करेगी। यह भी सुनिश्‍चित है कि जब कभी यह राष्ट्र उपरोक्त अवस्था को प्राप्त कर विजयादशमी का एक और पर्व मनाएगा तथा विश्‍व को उसके सन्देशों पर कान धरना होगा, तो इस महान राष्ट्र का सन्देश यही होगा कि धरती के सब मनुष्यों और अन्य सर्वप्राणियों को परमपिता परमात्मा ने ही उत्पन्न किया है। परमात्मा ही हम सबका पिता और माता है, अतएव हम सभी परस्पर भाई हैं। वेद का यही तो उद्घोष है कि यह भूमि हमारी माता है और हम सभी इसके पुत्र हैं। - पण्डिता राकेशरानी

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