ओ3म् अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम।
सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः॥ यजुर्वेद 7.14॥
अर्थ- (देव) हे दिव्य शक्तियों के भण्डार (सोम) सब प्रकार के ऐश्वर्य और शान्ति के निधि प्रभो! हम (अच्छिन्नस्य) निरन्तर अबाध होकर बहने वाले (ते) तेरे (सुवीर्यस्य) सुवीर्य और (रायस्पोषस्य) ऐश्वर्य और उससे प्राप्त होने वाली पुष्टि के (ददितारः) देने वाले (स्याम) बनें। वह सुवीर्य और रायस्पोष कौन-सा है अथवा कहाँ से आता है ? कहते हैं (विश्ववारा) सबके वरण करने योग्य (सा) वह (प्रथमा) सबसे पहली (संस्कृतिः) वैदिक संस्कृति है। इस संस्कृति का उद्गम स्थान कौन है ? कहते हैं (सः) वह (प्रथमः) सबसे पहला (वरुणः) वरण करने योग्य अथवा पाप से बचाने वाला (अग्निः) सबको गर्मी और प्रकाश देकर आगे ले जाने वाला (मित्रः) सबका हित चाहने वाला मित्र तू ही है।
भगवान् वरुण हैं। वे सबके वरण करने योग्य हैं। उनकी प्राप्ति से बढ़कर कोई और चीज मनुष्य के लिये हितकारी नहीं हो सकती। मनुष्य सारी उन्नति और तरक्की इसीलिए करता है कि वह सुखी होना चाहता है। पर उसकी यह पूर्ण सुखी होने की हार्दिक इच्छा जगत् में पूरी नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी ही आश्चर्यजनक सांसारिक उन्नति कर ले। इस सांसारिक उन्नति से उसके सुख की मात्रा थोड़ी-बहुत बढ़ सकती है, पर पूर्ण आनन्दवान् होने की उसकी इच्छा यहाँ पूरी नहीं हो सकती। कोई भी सांसारिक जीवनचर्या का गम्भीर निरीक्षण करने वाला इस सच्चाई का अनुभव कर सकता है। पूर्ण सुखी होने की मनुष्य की इच्छा प्रभु को प्राप्त करने पर ही पूरी हो सकती है। क्योंकि एकमात्र प्रभु ही पूर्ण सुखी हैं, आनन्दस्वरूप हैं। इसलिये प्रभु ही सबके सबसे अधिक वरणीय हैं। वह प्रभु पाप के निवारण करने वाले भी हैं। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के कल्याण के लिये दिये गये अपने ज्ञान-राशि वेद के द्वारा वे मनुष्य के आगे पाप से बचने के लिये धर्म का स्वरूप खोलकर रख देते हैं। जो प्रभु के साथ अपना गाढ़ा सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, उनके हृदयों में पाप मार्ग से बचने के लिये प्रेरणा भी प्रभु करते रहते हैं। जो पाप-मार्ग को छोड़कर धर्म- मार्ग पर चलते हैं, उन्हें एक न एक दिन आनन्द-धाम प्रभु का साक्षात् हो ही जाता है।
प्रभु अग्नि हैं। वे गरमी और रोशनी को देकर सबके जीवनों को उन्नति के मार्ग में आगे ले जाते हैं। धर्म के मार्ग में उन्नति करने के लिये गरमी और रोशनी की जरूरत है। अज्ञानी और ठण्डा पड़ गया मनुष्य उन्नति नहीं कर सकता। धर्म के मार्ग में तो और भी नहीं कर सकता। प्रभु हमें ज्ञान का प्रकाश देने वाले हैं। वेद द्वारा और प्रभु के लिये आत्मार्पण कर चुके हृदयों में प्रेरणा द्वारा प्रभु का प्रकाश मिलता है। बल भी हमें प्रभु की कृपा से ही मिलता है। इसे कोई भी संसार का और अपना गम्भीर निरीक्षण करने वाला आसानी से समझ सकता है। परन्तु प्रभु के लिये आत्मार्पण कर देने वाले भक्तों के हृदयों में जो बल का अथाह और असीम समुद्र हिलोरें लेने लगता है, वह किसी भी पहुँचे हुए प्रभुभक्त के जीवन में स्पष्ट देखा जा सकता है। इन लोगों में युगान्तर उपस्थित कर देने की शक्ति पैदा हो जाती है। प्रभु सचमुच में अग्नि हैं।
साथ ही वह प्रभु मित्र भी हैं। प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता हमारे लिये किस काम की, यदि वे हमारे लिये न हों। पर प्रभु तो हमारे मित्र हैं, हमारा परम हित चाहने वाले हैं। उनका सब कुछ हमारे हित और कल्याण के लिये है। वे हमारे मित्र होकर खुले हाथों अपनी वरणीयता और अग्निरूपता लुटा रहे हैं। जो चाहे लेकर अपने को निहाल कर लें।
पर हमें तो प्रभु की वरणीयता और अग्निरूपता कहीं लुटती नजर नहीं आती, कहाँ जाकर उसे लें? कहा कि संसार के आरम्भ में मनुष्य मात्र का ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र का कल्याण करने के लिये प्रभु ने जो वैदिक संस्कृति दी थी उसका अध्ययन करो, मनन करो और उसे समझो तथा फिर करो उसके अनुसार अपना आचरण। फिर देखो क्या होता है! तुम्हें प्रभु की वरुणरूपता भी समझ में आ जायेगी और अग्निरूपता भी। तुम्हारे पास न बल और पराक्रम की कमी रहेगी,न धन-दौलत की। बल और पराक्रम कैसा? सुवीर्य। उससे किसी का अनिष्ट और बिगाड़ नहीं होना चाहिए। उसका उपयोग सबकी भलाई और कल्याण में होना चाहिये। फिर धन-दौलत कैसी ? जिससे तुम्हें पुष्टि भी मिलती हो। वह खाली ‘रै’ न होकर रायस्पोष हो, पुष्टि देने वाली हो। फिर इस सबके स्वीकार करने योग्य संस्कृति के अध्ययन, मनन और तदनुकूल आचरण से खाली इस दुनिया की धन-दौलत ही नहीं मिलेगी, तुम सबसे कीमती, सबसे प्यारी, सबसे स्थायी दौलत के अधिकारी हो जाओगे। तुम पूर्ण सुख के धाम आनन्दस्वरूप भगवान् के प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अधिकारी हो जाओगे, जिसके सम्बन्ध में स्वयं वेद ने कहा है- ‘रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः’। (अथर्ववेद 10.8.44) वह रस से तृप्त है, उसमें रस की कहीं कुछ कमी नहीं है।
वैदिक-संस्कृति का अनुशीलन करने वाले और उसके फलस्वरूप अपने को आनन्द धाम प्रभु के साक्षात्कार के योग्य बना लेने वाले भक्त! उस बल-पराक्रम और रायस्पोष को प्राप्त करके ही सन्तुष्ट न हो जाना, यहीं न ठहर जाना। उस बल-पराक्रम और रायस्पोष की धारा को औरों के लिए भी बहाते रहना और ऐसा प्रबन्ध कर जाना कि यह धारा तुम्हारे पीछे भी, तुम्हारी सन्तति के द्वारा भी निरन्तर अबाधित रूप में अच्छिन्न होकर बहती रहे। वेद के शब्दों में तुमने प्रभु से ‘अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम’ यह और प्रतिज्ञा की है। इसे कार्यरूप में लाते रहना। वैदिक संस्कृति की धारा सदा बहाते रहना तेरा कर्त्तव्य है। तेरे द्वारा अपने इस कर्त्तव्य के पालन से ही संसार में शान्ति की धारा बह सकेगी।
भगवान् सोम हैं, शान्ति के समुद्र हैं। मनुष्यों को परम शान्ति तथा परम आनन्द की गङ्गा में स्नान कराते रहने की भावना से ही प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में वेद की संस्कृति का, मांजकर पवित्र कर देने वाली वेद की शिक्षा का उपदेश दिया था। ‘सोम’ प्रभु से मिलने वाली संस्कृति ही संसार में वास्तविक शान्ति ला सकती है। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति
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