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जीवन के पञ्चशील और उनसे आगे

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सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक अनेक मत एवं सम्प्रदाय चले, बहुतेरी सभाएं और समितियां बनीं। विविध दल और मण्डल स्थापित हुए। प्रश्‍न है, क्यों? इन सबका प्रादुर्भाव मनुष्यों के बीच में हुआ। इससे स्पष्ट है कि मानवता के प्रश्‍न को सुलझाने के लिये, मानव जीवन की समस्याओं को पूरा करने के लिये अर्थात् मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन, गृहस्थ जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और आध्यात्मिक जीवन सुखी बने, श्रेष्ठ हो, ऊँचा उठे, यह है उद्देश्य इन सब मतों, सम्प्रदायों, सभाओं, समितियों, दलों और मण्डलों का। जिसका यह उद्देश्य न हो उसे संसार से समाप्त हो जाना चाहिये।

जीवन का प्रश्‍न जिस समय हमारे सामने आता है, हमें सर्वप्रथम संसार में दो प्रकार के जीवन मिलते हैं- 1. चेतन जीवन 2. जड़ जीवन। चेतन जीवन में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि प्राणी वर्ग। जड़ जीवन में वृक्ष, पौधे, लता-तृण आदि वनस्पति जीवन है।

प्रथम जड़ जीवन को देखते हैं। कोई वृक्ष जहाँ लगा है, यदि वहाँ उसके लिये खाद्य (खाद) न मिले तो मर जाता है। वर्षा धारा के तीव्र प्रताप से (मुसलाधार वर्षा से) पौधा गल जाता है। गर्मी के तीक्ष्ण ताप से पौधा सूख जाता है, शीत के घोर हिमपात से पौधा पीला पड़ जाता है, मर जाता है, अपने को बचा नहीं सकता। कोई मनुष्य उसका पत्ता तोड़े, फूल तोड़े, शाखा तोड़े, समूल ही नष्ट कर दे, उससे भी बचने की उसमें शक्ति नहीं है। यह जड़ जीवन है। जिस व्यक्ति, जिस समाज और जिस राष्ट्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की शक्ति नहीं, वह जड़, निकम्मा और निरर्थक है।
वियुज्यमाने हि तरौ पुष्पैरपि फलैरपि।
पतति छिद्यमाने वा तरुरन्यो न शोचते॥
किसी वृक्ष के फूल आने बन्द हो जाएं, फल आने बन्द हो जाएं, गिर जाने पर या काट दिये जाने पर पास का खड़ा वृक्ष उसके सम्बन्ध में कुछ सोच नहीं सकता, चिन्ता नहीं करता। सहानुभूति हीन जीवन जड़ जीवन है, चाहे वह व्यक्ति हो, समाज हो या राष्ट्र हो। जड़ जीवन यानी निष्क्रिय जीवन।

इसके आगे चेतन जीवन के दो विभाग हैं। 1. मनुष्यों का जीवन। उसे मानव जीवन के नाम से कहेंगे। 2. मानव से अतिरिक्त प्राणियों का जीवन।उसे जान्तव जीवन के नाम से कहेंगे।

कोई गधा, घोड़ा या बैल जहाँ रहता है, यदि उसके लिये वहाँ चारा न मिले तो दूसरे स्थान पर चारा लेता है। दूसरे स्थान पर न मिले तो तीसरे स्थान पर लेता है। यदि वहाँ भी न मिले तो अपने लिए चारे को खेती करके उपजा नहीं सकता। वर्षा से बचने, गर्मी से बचने, ठण्डी से बचने के लिये किसी बने-बनाये भवन (मकान) का आश्रय लेकर अपना बचाव कर सकता है। यदि ऐसा स्थान कहीं न मिले, तो मकान बनाने में वह असमर्थ है। कोई आक्रमणकारी आक्रमण करे तो उसका उत्तर सींग, दांत और पञ्जों से दे सकता है। दूर खड़े आक्रमणकारी से अपना बचाव नहीं कर सकता। सहानुभूति भी जान्तव जीवन में थोड़ी मात्रा में होती है। जब उसके शिशु (बच्चे) समर्थ हो जाते हैं, तब उनसे सहानुभूति भी हट जाती है।

जान्तव जीवन है सक्रिय जीवन। परन्तु इसकी क्रियाओं के दो विभाग हो जाते हैं। अति दीनता या अति क्रूरता। ग्राम-नगर के पशुओं में अति दीनता पाई जाती है। किसी घोड़े, गधे, बैल को लें। उस पर बोझे पर बोझा लादते चले जायें और डण्डे पर डण्डा लगाते चले जायें, वह अतिदीन है। जङ्गल के पशुओं में अतिक्रूरता पाई जाती है। सिंह आदि पशुओं को मार-मारकर खा जाते हैं। यह अतिदीनता मनुष्यों के अन्दर आ जाये तो दास बन जाता है। अतिक्रूरता आ जाये तो दस्यु बन जाता है। मानव को दस्यु और दास नहीं बनना चाहिये, न बनने देना चाहिये।

मानव अपने भोजन (आहार) के लिये पृथ्वी से नाना प्रकार के बीजों का संग्रह करता है। उन्हें कृषिविद्या, उद्यानविद्या के द्वारा पुष्ट अन्नों और फलों के रूप में प्राप्त करता है। पाकविधि से भोजन बनाकर स्वास्थ्य सुख का लाभ लेता है। ऋतुओं के कोप से बचने के लिए ऋतु-ऋतु के अनुसार प्रासाद (मकान) बनाकर जीवन यात्रा सुख से निर्वाहित करता है। किसी आक्रमणकारी से बचने के लिए दण्ड, तलवार, बन्दूक आदि से अपने को बचाता है। सहानुभूति भी यदि कहीं पूर्ण स्थान लेती है तो मानव-हृदय में लेती है। जो ग्रह-तारे-नक्षत्र-सितारे इन आँखों से स्पष्ट नहीं दीखते, उन्हें दूरवीक्षण (दूरबीन) से साक्षात करता है। इन्द्रियों का सुख बिना विपत्ति के कैसे मिल सके, इसके लिए भी उपाय करता है। शरीर में क्या रोग है, इसका निदान करके औषधिज्ञान से चिकित्सा करता है। नाना प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करके मनोविकास और मानसिक कल्याण को प्राप्त करता है। अध्यात्म मार्ग परमात्मा की उपासना से परमानन्द, परमशान्ति और मोक्ष को पाता है। यह है मानव जीवन। जो अपनी रक्षा में स्वतन्त्र और विकासी जीवन है, ऐसे जीवन को परम सफल और श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों में पञ्चशील बताए गए हैं-
1.स्वावलम्बन की भावना-
स्वयं वाजिंस्तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व।
महिमा तेऽन्येन न सन्नशे॥
यजुर्वेद 23.15॥

हे (वाजिन्) शक्तिशाली जीवात्मन् मनुष्य! (स्वयं तन्वं कल्पयस्व) स्वयं अपने तनु=शरीर को समर्थ बना। शरीर के समस्त साधनों अर्थात् कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों और अन्तःकरण को समर्थ बना। पैरों में चलने की शक्ति है, इसे मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न किया है। बालक ने उठ-उठकर गिर-गिरकर चल-चलकर स्वयं शक्ति को उत्पन्न किया है। उसके अन्दर उठने और चलने की भीतरी इच्छा और भीतरी प्रयत्न होता था। यदि भीतरी इच्छा और प्रयत्न से काम न लिया जाये तो कोई मनुष्य अपने घर से कहीं भी जाने में समर्थ न होता। यह देखा गया है कि हठयोगी साधु अपनी एक भुजा को ऊपर किये रहते हैं। भीतर इच्छा और भीतरी प्रयत्न से काम नहीं लेते, इसलिए भुजा सूख जाती है। इसी प्रकार नेत्रों में देखने की शक्ति और मन में समझने की शक्ति भी मनुष्य स्वयं उत्पन्न करता है। इन साधनों को समर्थ बनाकर (स्वयं यजस्व) स्वयं किसी कार्य क्षेत्र में लगा। (स्वयं जुषस्व) स्वयं उनका फल प्राप्त कर। जो कर्त्ता है सो भोक्ता है। (महिमा तेऽन्येन) तेरी यह त्रिविध महिमा अन्य के द्वारा (न सन्नशे) नष्ट नहीं की जा सकती।
जो व्यक्ति, जो समाज और जो राष्ट्र स्वावलम्बी होता है, वह संसार में उठ जाता है, उन्नत होता है। जो दूसरे के आश्रय पर निर्भर रहता है, उसका उन्नत होना दुर्लभ है।

2. आशावाद -
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
गोजिद् भूयासमश्‍वजिद् धनञ्जयो हिरण्यजित्॥ (यजुर्वेद 7.50)
कर्म मेरे दाएं हाथ में, जय-विजय फिर बाएं हाथ में हैं। मेरे दोनों हाथ भरे हुए हैं, रिक्त नहीं हैं, खाली नहीं हैं। शेखचिल्ली की भांति हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला मैं नहीं हूँ। इसलिए मैं गौवों और भूमि का विजेता बनूं, घोड़ों और राष्ट्रों का विजेता बनूं, धन और सम्पत्ति का विजेता बनूं। इस प्रकार मनुष्य को कर्मशील होते हुए आशावादी होना चाहिए।

3. कर्मण्यता -
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। (यजुर्वेद 40.2)
मनुष्य को निरन्तर कर्म करते हुए 100 वर्षों और अधिक से अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। एक कर्म समाप्त हुआ तो दूसरा आरम्भ कर देना चाहिए। दूसरा समाप्त हुआ तो तीसरा प्रारम्भ कर देना चाहिए। यावज्जीवन निरन्तर काम करते रहने से निष्काम कर्म होगा। सकाम कर्म तब होगा जब कर्म करते हुए रुक जायेगा, उसके फल की टटोल में पड़ेगा। कर्म का फल तो ईश्‍वर की व्यवस्था से अनिवार्य है। निरन्तर कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए। मरने की इच्छा करना पाप है। यह इससे सूचित होता है। आत्म-हत्या तो महापाप है।

मनुष्य दीर्घायु तक जीने के लिए अनेक रसायनों और औषधियों का सेवन करता है। पर यहाँ वेद में औषधि बताई है- निरन्तर कर्म करने की। दो पहिये की सायकिल में जब निरन्तर कर्म अर्थात् क्रिया होती है, तो वह सवार को बिठाये हुए आगे बढ़ती चली जाती है। जब क्रिया बन्द हो जाती है तो सायकिल और सवार धड़ाम से नीचे गिर जाते हैं। निरन्तर कर्म या क्रिया संकट तक से बचाती है। मोटर सायकिल का खेल करने वाला लोहे की पत्तियों के बहुत ऊंचे गोल पिञ्जरे में अपने साथी को नीचे खड़ा करके मोटर सायकिल ऊपर-नीचे चलाता है। उसके पहिए ऊपर की पत्तियों को छूते हैं और सिर नीचे होता है, फिर भी वह गिर नहीं पाता। मोटर सायकिल में निरन्तर कर्म या क्रिया होने से गिरने का अवकाश नहीं है। अपने साथी को नीचे इसलिए खड़ा करता है कि जब गति बन्द करे तब नीचे का पता लग जाए।

इस मन्त्र में एक विशेष बात कही गई है जो ‘कुर्वन्’ शब्द से स्पष्ट होती है। यह पद व्याकरण शैली से शतृ प्रत्ययान्त है, जो क्रिया के लक्षण हेतु इन अर्थों में होता है- लक्षणहेत्वौः क्रियायाः (अष्टाध्यायी 3.2.126) जैसे जब यह कहा जाये कि विद्यार्थी खादन् विद्यालयं गच्छति, विद्यार्थी खाता हुआ विद्यालय जाता है। यह ’जाना’ क्रिया का लक्षण है। और जब यह कहा जाए कि विद्यार्थी पठन् विद्यालयं गच्छति, विद्यार्थी पढ़ने के हेतु विद्यालय जाता है। यह ’हेतु’ हुआ। ऐसे ’कुर्वन्’ शब्द भी दो अर्थों में आता है। कर्मों को करता हुआ जीने की इच्छा करे। यह जीने की क्रिया का लक्षण हुआ और (शतं समाः जिजीविषेत्) मनुष्य 100 और उससे भी अधिक वर्षों तक जीने की इच्छा करे। हेतु क्यों? कर्माणि कुर्वन्। कर्मों के करने के हेतु। मानव का जीवन जीने मात्र के लिए नहीं है, किन्तु कर्मों के करने के हेतु है। जीने मात्र के लिए कर्म तो चोरी आदि पाप कर्म भी हो सकते हैं। इसीलिए जीना तो ऊंचे कर्मों के करने के हेतु है, जो मानव को ऊंचे स्तर पर ले जाने वाले हैं। आज के युग में मानव का जीवन जीने मात्र के लिए समझ लिया गया है। इसीलिए सर्वत्र अशान्ति है। जो रोटी मनुष्य के द्वारा खाई जाने वाली थी, आज वह मनुष्य को खा जाने वाली हो गई है। इसलिए ऊंचे स्तर पर कर्म करने की शीलता मनुष्य में होनी चाहिए।

4. यशस्वी होने की भावना -
यशो मा द्यावापृथिवी यशो मा इन्द्रा बृहस्पती।
यशो भगस्य विन्दतु यशो मा प्रतिमुच्यताम्।
यशस्वयस्याः संसदो अहं प्रवदितः स्याम॥ (सामवेद पूर्वार्चिक 6.3.13.10)
मेरे माता-पिता मेरे यश का कारण हों। द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्। मैं माता पिता की आज्ञा का पालन करूं, जिससे मेरा यश हो! मेरा आचार्य मेरे यश का कारण हो। जैसे विरजानन्द का शिष्य विरजानन्द के यश का कारण है। मैं आचार्य के आदेश का ऐसा पालन करूं, जैसे स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के आदेश का पालन किया।

विद्या समाप्ति पर दयानन्द उनके लिये लौंग ले जाते हैं। विरजानन्द ने पूछा- मेरे लिये क्या भेंट लाये हो? दयानन्द ने लौंग बताई। विरजानन्द ने कहा, अरे! मैंने तुम्हें लौंगों के लिए पढ़ाया था। दयानन्द ने कहा कि मेरे पास तो और कोई वस्तु भेंट देने के लिए नहीं है। विरजानन्द ने कहा कि मैं उस वस्तु को मांगता हूँ जो तुम्हारे पास है, बोलो दोगे? दयानन्द ने देना स्वीकार किया। विरजानन्द ने कहा, संसार में अवैदिकता, अनार्षता और भ्रष्टाचार फैला हुआ है। उसके निवारण के लिये तुम अपने प्राणों को दे दो। दयानन्द ने इस प्रकार इनके निवारण के लिए प्राण दे दिये। इससे उनका यश है।

भग ऐश्‍वर्य मेरे यश का कारण हो। ऐश्‍वर्य मनुष्य के पास आता और चला भी जाता है। सम्पत्तियाँ गाड़ी के पहिये की भांति आवर्त्तन करती रहती हैं। भूमि बदलती रहती है। आज किसी की सम्पत्ति कल किसी के पास चली जाती है। परसों तीसरे के पास चली जाती है। सम्पत्तियों या ऐश्‍वर्य का लाभ तो उसका दानादि में सदुपयोग करके यश लेना है। संसार में यह शरीर नहीं रहेगा, परन्तु अच्छे कार्यों के कारण नाम रह सकता है। इस समाज का मैं यशस्वी वक्ता बनूं। मेरे मुख से जो कथन, वचन और प्रवचन निकले, वह उसके हित में निकले। वेद में उदाहरण के रूप में यश के स्थान बताये गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य को यश प्राप्त करना चाहिये। यह मानव जीवन की सफलता है।

5. आस्तिक भावना -
ओ3म उत स्वया तन्वा संवदे तत्कदान्वन्तर्वरुणो भुवानि।
किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृलीकं सुमना अभिख्यम्॥ ऋग्वेद 7.86.2॥
हाँ! मैं अपनी (तनु) देह से संवाद करता हूँ। पूछता हूँकि ऐ मेरी देह! तु मुझे यह बतला कि कब मैं वरने योग्य, वरने वाले परमात्मा में अपने को विराजमान हुआ देखूं? देह से संवाद इसलिये है कि जो जन्म से मरण पर्यन्त साथ देती है। पर ऐ मेरी देह! एक दिन तू भी मेरा साथ छोड़ देगी। तू तो मेरे रहने की कुटिया है। टूटने-फूटने वाली है। तो अपने टूटने-फूटने के पहले मेरे वरुण के अन्दर मुझे बिठाती जा। वह मेरी किस भेंट को स्वागत से स्वीकार कर सके? मैं कब उस सुखस्वरूपानन्द रूप परमात्मा को अच्छे मन वाला होकर देख सकूं। देह से संवाद क्या करना। इससे तो संघर्ष करना, लड़ना-झगड़ना है। ऐ मेरी देह! क्या तू सदा संसार के भोग विलासों में जहाँ-तहाँ फैलाने के लिये है? नहीं-नहीं, तू इस काम के लिये नहीं है। परन्तु तू उस प्रभु परमात्मा के सत्संग में ले जाने, उसकी शरण में पहुंचाने के लिये है। जिस मनुष्य में उस प्रभु परमात्मा के लिये आस्तिक भाव नहीं है, अपनी आत्मा का झुकाव नहीं है, ऐसा मनुष्य संसार में दस-बीस वर्ष रोटियाँ खाकर चला गया, ऐसा रूखा-सूखा जीवन तो प्राणी मात्र का है। मानव जीवन की सफलता तो इसी में है कि वह पूर्ण आस्तिक बने। और परमात्मा की उपासना करे।

मानव जीवन के भी दो विभाग हो जाते हैं। 1. साधारण जीवन और 2. दिव्य जीवन। नक्षत्र-तारा जीवन जो लाखों मनुष्यों में किसी विरले का होता है। उसके अन्दर दिव्यता निहित होती है, जो थोड़े से संस्पर्श या संघर्ष से जाग उठती है। जैसे दयानन्द का जीवन। शिवरात्रि की रात्रि में दयानन्द के सामने छोटी सी घटना आती है। शिवलिङ्ग पर छोटा सा चूहा चढ़ जाता है और खाने-पीने के पदार्थ को खा-पी लेता है तथा ऊपर से मूत्र-पुरीष की भी कुचेष्टा कर जाता है। यह छोटी सी घटना दयानन्द के सामने होती है। दयानन्द सोचते हैं कि कथा में तो सुना था कि शिव संसार का रक्षक है। यह तो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर पाता। यह शिव नहीं है। उस रात्रि में दयानन्द जागा, सचमुच जागा। स्वयं जागा और मानव समाज को भी जगाया।

जागता वही दीपक है जिसमें जागने की शक्ति है, घृत के रूप में या तेल के रूप में। जिस दीपक में घृत नहीं, तेल नहीं उसका क्या जागना और जगाना। जगाया, किञ्चित् टिमटिमाया और बुझ गया। ऐसी क्षणिक टिमटिमाहट तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर हो जाती है। जब कोई मनुष्य मर जाता है, उसे श्मशान ले जाते हैं, काष्ठ चिता पर रख देते हैं, दाहकर्म आरम्भ हो जाता है, अग्नि की ज्वाला जलने लगती है, उस समय प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वैराग्य की टिमटिमाहट हो जाती है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता है, क्या है इस जीवन का ठिकाना, दो दिन का जीवन क्यों पाप कमाना? परन्तु यह टिमटिमाहट मात्र है, जो घर जाते ही बुझ जाती है।

एक वह मानव है जो अपने प्रासाद (महल) से गाड़ी में बैठकर चलता है। चलते हुए वह देखता है कि कुछ लोग कुछ उठाये जा रहे हैं। वह सारथि से पूछता है कि ये लोग क्या उठाये लिये जा रहे हैं? वह उत्तर देता है कि ये लोग शव अर्थात् मुर्दे को लिए जा रहे हैं। फिर पूछता है कि शव या मुर्दा किसे कहते हैं? सारथि उत्तर देता है कि यह मनुष्य मर गया है, यह चल नहीं सकता, हाथों से पकड़ नहीं सकता, बोल नहीं सकता और समझ नहीं सकता। फिर पूछता है कि इस मुर्दे का क्या बनेगा? सारथि कहता है कि भस्म बना दी जायेगी। वह फिर पूछता है कि यह स्थिति मनुष्य मात्र की है क्या? सारथि कहता है कि जो जन्मा है उसकी अन्तगति यही होती है। फिर वह पूछता है कि क्या मेरे लिए भी? सारथि उत्तर देता है कि हाँ आपकी भी अन्तगति यही होगी। फिर वह सारथि से कहता है कि गाड़ी लोटाओ, मुझे सैर नहीं करनी है। अपने महल पर पहुंचकर उसे सदा के लिए त्यागने की इच्छा पैदा हुई। वे मानव महात्मा बुद्ध थे। उनकी इस वैराग्य की ज्योति पर एक कालिमा की रेखा, धुएं की रेखा आ गई। उनका नवजात पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसका आगे राहुल नाम प्रसिद्ध हुआ था। सोचा, उसका मुख तो देखता चलूं। पुत्र के मुखदर्शन का सुख गृहस्थों को होता है, यह सब जानते हैं। किन्तु वैराग्य की ज्योति फिर तीव्र हो उठी। उसने धुएं की रेखा को खा लिया। बुद्ध के अन्दर विचार आया कि इस थोड़ी सी बात के लिए अपने लक्ष्य से पीछे हटता है, लौटता है तो फिर न जाने जीवन में कितनी बार लौटना पड़ेगा। इसी प्रकार दयानन्द के जीवन में भी मृत्यु को देखकर वैराग्य की ज्योति जाग गई थी। प्यारी बहन का देहान्त उनके सामने हुआ, प्यारे चाचा का देहान्त उनके सामने हुआ।
अन्त समय को देख दयानन्द घर से बन को जाता।
निश्‍चय अपना किया जगत् में किससे किसका नाता?

इस प्रकार दयानन्द के वैराग्य की ज्योति पर कोई धुएं की रेखा नहीं आयी। चलते समय उनके अन्दर यह विचार नहीं आया कि मैं फिर से घर चलूं? जैसे ही वैराग्य की ज्योति को धारण करके ग्राम को छोड़ा, न फिर पीछे मुंह मोड़ा।

दिव्य जीवन बनाने के लिए वेद का उपदेश है कि मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् (ऋग्वेद 10.53.3) दिव्य जीवन बनाने के लिए तू मनु हो जा, अपने मूल में चला जा अर्थात् मननशील हो जा। यह इस प्रकार से दिव्य जीवन बनाने का सन्देश है, जो साधारण लाखों मनुष्यों में किसी का नक्षत्र-तारा जीवन होता है। वेद और भी आगे बढ़ने का सन्देश देता है। लाखों दिव्य जीवनों या नक्षत्र-तारा जीवनों में कोई विरला सोम जीवन होता है, चांद जीवन होता है। वेद में कहा है-
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
तयोर्यत्संत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्॥ (ऋग्वेद 7.104.12, अथर्ववेद 8.4.12)
समझदार मनुष्य के लिए यह भली-भाँति समझने योग्य है कि सत्य-असत्य वचन परस्पर स्पर्धा करते हैं, एक दूसरे के विरुद्ध चलते हैं। इन दोनों में सत्य वह है जो अत्यन्त ऋजु है, सरल से सरल है। उसकी सोम रक्षा करता है और असत् का हनन करता है, खण्डन करता है। विद्वान के सामने सत्य-असत्य विरोधी प्रतीत होते हैं। जो यह कहते और मानते हैं कि यह धर्म भी सत्य है, वह धर्म भी सत्य है, वे विद्वान नहीं हैं। विद्वानों में भी जो सत्य का रक्षण अर्थात् मण्डन करता है और असत्य का खण्डन करता है, वह उनसे भी ऊंचा है। सोम नाम से कहलाने वाला चन्द्र जीवन है।

ऐसे विद्वान् भारत और विदेशों में थे, जिनके सम्मुख सत्य और असत्य अलग-अलग प्रतीत होते थे। परन्तु वे सत्य को सत्य कहने के लिए और असत्य को असत्य कहने के लिए उद्यत नहीं थे। उनकी वाणी पर पक्ष का, भय का और लोभ का ताला लगा हुआ था। किन्तु दयानन्द की वाणी पर पक्ष, भय और लोभ का ताला नहीं लगा था। उसे किसी पक्ष ने फंसाया नहीं, किसी डर ने डराया नहीं और किसी लोभ ने लुभाया नहीं। लाहौर में ब्रह्मसमाजियों ने अपने यहाँ ठहराया। व्याख्यान हुआ वेद के महत्व पर। उन्होंने उनको वहाँ से हटा दिया और कहा कि तुमने हमारे धर्म की प्रशंसा नहीं की, अपितु वेद की प्रशंसा की। फिर डॉ. रहीम खाँ ने उन्हें अपनी कोठी पर ठहराया। भाषण दिया इस्लाम की आलोचना पर। लोगों ने कहा कि आप यह क्या करते हैं? इन्होंने आपको स्थान देकर आपका उपकार किया और आप इन्हीं की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहा कि ठीक है, इन्होंने मेरे ऊपर उपकार किया। मैं भी प्रत्युपकार करता हूँ। जो मनुष्य अन्धेरे में जा रहा हो उसे हाथ पकड़कर लाना भी मेरा काम है। ईसाई लोग चर्च में बुलाते हैं व्याख्यान देने को। वहाँ वे व्याख्यान देते हैं बाईबिल की आलोचना पर। ऐसा निराला वक्ता जिसे किसी पक्ष ने नहीं फंसाया, न उनको किसी डर ने डराया। अनेक बार विष के प्याले पिये और प्रहार सहे।

हमने देखा कि आजकल के जो बड़े-बड़े नेता हैं, गुरुकुलादि संस्थाओं में जाते हैं तो सन्ध्या-हवन की आलोचना, वेद की आलोचना कर जाते हैं। किन्तु हमने न देखा न सुना कि किसी नेता ने मस्जिद में जाकर नमाज की आलोचना या कुरान की आलोचना कीहो। उन्हें गला कटने का भय और अपने पक्ष में न होने का सन्देह रहा।

दयानन्द को किसी लोभ ने नहीं लुभाया। महाराणा उदयपुर ने कहा कि आप क्यों संसार के साथ अपना मस्तिष्क थकाते-दुखाते फिरते हैं, यह लाखों रुपयों का मन्दिर आपका है, इसको सम्भालो, बैठो। ऋषि ने उत्तर दिया कि यह मन्दिर तो क्या, जितना आपका राज्य है, चाहूं तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ। परन्तु मैं अपने ऊपर उसको राजा मानता हूँ जो विश्‍वराट् परमात्मा है। उसकी आज्ञा का पालन न करके और सत्य का प्रचार न करके किस कोने में जाऊंगा। इसलिए मुझे मन्दिर नहीं चाहिए। वेद और भी मुझे आगे बढ़ने को कहता है। लाखों चांद जीवनों में कोई बिरला जीवन सूर्य का जीवन होता है। वेद में कहा है कि ब्रह्मचर्य्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत (अथर्व 11.5.19) ब्रह्मचर्य रूप तप से देव लोग मृत्यु को परास्त करते हैं। यह तो हुआ ब्रह्मचर्य का फल। किन्तु के देवाः? देव कौन हैं? उत्तर- ये ब्रह्मचर्येण मृत्युमपाघ्नन्ति। जो ब्रह्मचर्य-तप से मृत्यु को परास्त करते हैं वे देव हैं। वेद में सूर्य को ब्रह्मचारी कहा है- ब्रह्मचारीषणं चरति रोदसी उभे तपसा पिपर्ति। (अथर्व. 11.5.1)

सूर्य ब्रह्मचारी होता हुआ आकाश में विचरता है। द्युलोक, पृथ्वीलोक को अपने प्रकाश रूप तप से पूरित करता है। दयानन्द भी आदित्य ब्रह्मचारी थे। उन्होंने घर पर रहते हुए बहन और चाचा की मृत्यु को देखा। घर-परिवार के जन सब रो रहे थे। परन्तु वह नहीं रो रहा था। सब लोग कह रहे थे कि कितना निष्ठुर कठोर बालक है, जरा भी आँखों में आंसू नहीं हैं। परन्तु कौन जानता था कि यह बालक अन्दर ही अन्दर रो रहा है और मृत्यु की औषध को खोज रहा है। वेद ने बताया, इसका औषध है ‘ब्रह्मचर्य’। ऋषि ने इस औषध को वेद से प्राप्त कर गटागट पान कर लिया। उनके जीवन में ब्रह्मचर्य आपूर-भरपूर हो गया, जैसे किसी नदी लहर में जब जल आपूर-भरपूर हो जाता है तो उछल-उछलकर किनारों से बाहर भी बिखरता है। विरोधियों ने एक वेश्या को बहकाकर उनके पास भेजा कि वह उनको पतित करे? वेश्या ने कहा कि आप जैसा अपने अन्दर पुत्र चाहती हूँ। ऋषि ने उत्तर दिया- आज से मैं तेरा पुत्र और तू मेरी माता। ऋषि के इतना कहने पर वेश्या के अन्दर ब्रह्मचर्य की धारा दौड़ गई, उसकी काया पलट गई। गिड़गिड़ाकर कहने लगी- मैंने अनेक साधु देखे, पर तेरे जेसा नहीं। तूने तो मेरा जीवन सुधार दिया। उसने आयुभर वेश्या कर्म छोड़ दिया। ऋषि को ब्रह्मचर्य ने मृत्युञ्जय बना दिया। दिवाली की अमावस्या उनका मृत्युञ्जय दिवस है। उस दिन ऋषि कहते हैं कि एक मास पीछे आज सुख का दिन है।

संसार से उनके प्रस्थान का दिन है। विष के कारण अंग-अंग में छाले-फफोड़े पड़े हुए थे। आँखों की पुतलियों में छाले-फफोड़े पड़े थे। डाक्टर लोग चकित थे कि इतने अपार दुःख में भी यह साधु हाय-हाय नहीं करता और न ही घबराता है। अजमेर से बाहर के दर्शक और भक्त आये हुए थे। उनमें पं. गुरुदत्त जी वैज्ञानिक विद्वान् थे। उन्होंने ऋषि दयानन्द के सम्मुख ईश्‍वर सम्बन्धी प्रश्‍न रखे थे। ऋषि ने उनका उत्तर दिया था। गुरुदत्त ने कहा था कि मेरे सारे प्रश्‍न हल हो गये, परन्तु मुझे ईश्‍वर पर विश्‍वास नहीं हुआ। ऋषि ने कहा कि मेरा काम तुम्हारे प्रश्‍न उत्तर देना था। विश्‍वास तो अन्दर की वस्तु है। अन्दर से ही उपजेगा। पं. गुरुदत्त ऋषि के जीवन काल में ही नास्तिक रहे। प्राणान्त के समय ऋषि ने उन्हें कहा कि तुम ऐसे स्थान पर पर खड़े हो जाओ, जहाँ तुम मुझे देखते रहो और मैं तुम्हें न देख सकूं। इस प्रकार सब दर्शकों और भक्तों को अन्दर बुलाया और कहा- वैदिक धर्म का कार्य निरन्तर करते रहना। यह बात पं. गुरुदत्त भी सुन रहे थे। आश्‍चर्य कर रहे थे कि यह बात तो ऐसी है जैसे परदेश जाने वाला पीछे रहने वालों को सन्देश दे जाया करता है। फिर ऋषि मुण्डन कराते हैं। पं. भीमसेन जो उनके लेखक हैं, को बुलाते हैं और कहते हैं 200 रुपए और दुशाला तुम्हारे लिये भेंट है। पीछे आनन्द में रहना। फिर आत्मानन्द शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं- बोलो, तुम्हें क्या दिया जाये? आत्मानन्द कहते हैं- महाराज! आप स्वस्थ हो जायें, मेरी यही इच्छा है। ऋषि ने कहा “यह शरीर क्षणभङ्गुर है, इसका क्या स्वस्थ होना। अब अन्त है।’’ ये बातें सुन-सुनकर पं. गुरुदत्त आश्‍चर्य में पड़ रहे थे। फिर ऋषि ने सबकी ओर दृष्टि डालकर आँखें बन्द कर लीं। समाहित हो गये। ध्यानमग्न हो गये। कुछ देर पश्‍चात् ऋषि ने संस्कृत में प्रार्थना की, फिर हिन्दी में की। अन्त में बोले- ईश्‍वर! तूने अच्छी लीला की। क्या तेरी यही इच्छा है? सचमुच तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो। ऐसा कहकर श्‍वांस को लम्बा करके छोड़ दिया और छोड़ दिया सदा के लिये।

हंस हंस हंस उड़ा एक उड़ान में।
परब्रह्म में केवल में व्योम समान में॥
पं. गुरुदत्त जी इस दृश्य को देखकर मन में सोचने लगे- क्या यह मृत्यु का अभिनय है? ऐसा मरण कभी देखने को नहीं मिला। उनके अन्दर यह भावना आई कि ऋषि दयानन्द जा रहे हैं, यह कहते हुए जा रहे हैं- क्यों गुरुदत्त! अब भी ईश्‍वर है या नहीं? गुरुदत्त का हृदय भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे- ऋषि! ऋषि!! प्यारे ऋषि!!! हाँ, मैं समझ गया। है, वह ईश्‍वर है। वह अमर ज्योति जिसके जीवन वह जो ईष्टदेव होता है, उसका अन्त समय में भी उपदेश देता हुआ चला जाता है। - स्वामी ब्रह्ममुनि

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