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‘तन्त्र’ का बन्धक ‘गण’

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हर बार की तरह इस वर्ष भी हम गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं और आगे भी इसी तरह राष्ट्रीय पर्व मनाने की औपचारिकता पूरी करते रहेंगे। क्या हमने कभी यह चिन्तन भी किया है कि जनवरी 1950 से लेकर अब तक के वर्षों में हमने क्या प्राप्त किया है और क्या हमसे छूट गया है या फिर ‘श्मशानी वैराग्य’ की तरह गणतन्त्र दिवस और स्वतन्त्रता दिवस जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर एक दिन या मात्र कुछ समय के लिए राष्ट्रभक्ति के गीत सुनकर और राष्ट्रध्वज लहराकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि भौतिकता की अन्धी दौड़ में शामिल होकर हमने अपने सामाजिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। आज हर चीज का सोच-विचार हम अपने ‘स्वार्थ’ को ध्यान में रखकर करते हैं। नैतिकता, ईमानदारी, राष्ट्रीयता, प्रेम आदि मानवीय गुण तो जैसे भूतकाल की बात हो गई है। हाल ही में राजस्थान के एक मन्त्री को इसलिए अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था, क्योंकि उनका भंवरी देवी नामक एक महिला से कथित तौर पर अवैध सम्बन्ध था। आशंका इस बात की भी है कि इस महिला की हत्या हो चुकी है। मन्त्री जी (अब पूर्व) खुद भी अपने सम्बन्धों की बात स्वीकार कर चुके हैं। आश्‍चर्य तो तब हुआ जब राजस्थान के इस नेता की पत्नी ने सार्वजनिक रूप से यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं किया कि किसी से सम्बन्ध रखना कोई अपराध नहीं है।

स्वतन्त्रता का पैसठ वर्ष का समय हो चुका है। इस अवधि में एक और महत्वपूर्ण चीज को भी हमने खोया है और वह है भारतीयता या राष्ट्रीयता की भावना। जिस राष्ट्रीय ध्वज को लेकर स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपनी छाती पर विदेशियों और विधर्मियों की गोलियाँ खाई थीं, आज उन्हीं राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान पर हमारा खून नहीं खौलता। आज अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कमजोर करने के लिए सभी तरह के हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं। उनकी ईमानदारी को लेकर प्रचार माध्यमों में परिचर्चाएं और बहस होती हैं। लेकिन राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान को साम्प्रदायिक करार देने वाली अरुन्धती राय के विरोध के लिये कोई भी ‘राष्ट्रभक्त’ सामने नहीं आता। विरोध के स्वर तब भी नहीं उठते, जब अरुन्धती राय राष्ट्रीय राजधानी में ही यह कह देती है कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं।

भारतीयता को हमने इसलिए भी खोया है, क्योंकि वर्तमान में हम किसी भी मुद्दे अथवा घटना पर भारतीय बनकर नहीं सोचते। हमारी सोच कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल से प्रभावित होती है। सत्ता में मौजूद किसी दल की नीति का समर्थन या विरोध हम अपनी विचारधारा को ध्यान में रखकर करते हैं। वास्तविकता से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। अर्थात् हम भारतीय बनकर नहीं बल्कि पार्टी बनकर सोचते हैं। आज देशवासी महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की मुसीबत सामने है, लेकिन कई लोग इसके पक्ष में भी तर्क गढ़ते मिल जाएंगे। हम अंग्रेजों से तो आजाद हो गए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि अपने ही बन्धक बनकर रह गए हैं। - वृजेन्द्रसिंह झाला

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