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सुराज की अब भी प्रतीक्षा

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सदियों के संघर्ष के पश्‍चात 15 अगस्त 1947 को भारतवर्ष परतन्त्रता की शृंखलाओं को ध्वस्त कर स्वतन्त्र हुआ। देशवासियों ने खुली हवा में सांस ली, उत्सव मनाए। लेकिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने इसके लिए कितना मूल्य चुकाया, इसका या तो लोगों को पता नहीं है या फिर वे उसे भुला चुके हैं। यह पीड़ा न तो काल्पनिक है और न ही इसके पीछे कोई पूर्वाग्रह है। स्वतन्त्रता दिवस राष्ट्रीय पर्व तो अवश्य है, लेकिन लोगों के लिए यह मात्र अवकाश का दिन बनकर रह गया है। इस दिन होने वाले अधिकतर समारोह चाटुकारिता का माध्यम बनकर रह गए हैं। ऐसा भी नहीं है कि देश ने प्रगति नहीं की है। लेकिन प्रश्‍न यह है कि क्या समाज के हर वर्ग को इसका लाभ मिला है? क्या लोग भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त हुए हैं? क्यों हमारा अन्नादाता किसान आत्महत्या करने को विवश है? क्यों रोजगार के अभाव में एक युवक फांसी के फंदे पर झूल जाता है? इन प्रश्‍नों के उत्तर में हमारे नेता कई तर्क दे सकते हैं, लेकिन इससे वास्तविकता को झुठलाया तो नहीं जा सकता। क्या इसी दिन के लिए हमारे क्रान्तिकारियों ने अपना आत्मोत्सर्ग किया था? कदापि नहीं। उन्होंने स्वप्न देखा था सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का, जिसमें प्रत्येक देशवासी प्रसन्न रह सके, खुशहाल रह सके, अभावों से मुक्त रह सके, स्वाभिमान से अपना जीवन यापन कर सके।

भारत युवाओं का देश है, लेकिन अधिकांश युवा भ्रमित और दिशाहीन हैं। दिशाहीन वर्तमान से उज्ज्वल भविष्य की कामना कैसे की जा सकती है! इसके लिए सिर्फ व्यवस्थाओं और परिस्थितियों को दोष नहीं दिया जा सकता। इसके लिए हमें भी उद्यम करना होगा, अपने अधिकारों को जानना होगा और उन्हें यत्नपूर्वक प्राप्त करना होगा। महान क्रान्तिकारी भगतसिंह ने कहा था- उठो, अपनी शक्ति को पहचानो, संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिशें किए बिना कुछ भी नहीं मिल सकेगा। स्वाधीनता चाहने वालों को स्वयं यत्न करना होगा।

भारतीय समाज की विषमताएं भी किसी से छिपी नहीं हैं। विविधता में एकता का नारा अवश्य दिया जाता है, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर लोग सम्प्रदाय, जाति, वर्ग आदि के नाम पर बंटे हुए दिखाई देते हैं। इसके साथ ही आम आदमी की स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। तत्कालीन व्यवस्था और जनता की स्थिति पर कवि दिनकर ने कहा था-
मानो जनता हो फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में।
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के, जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में॥
वर्तमान में भी स्थितियाँ प्रकारान्तर में वैसी ही हैं। जनता की हैसियत वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं है। देश में जनतन्त्र है, लेकिन तन्त्र जन से विमुख है और उस पर मुट्ठीभर लोगों का कब्जा है तथा वे ही हमारे भाग्यविधाता बने हुए हैं। ऐसे में यह सुराज तो नहीं हो सकता। सुराज के लिए तो हमें जागना होगा, अपनी शक्ति को पहचानना होगा और सिंहनाद करना होगा। हमें इसके लिए दिनकर जी से सुर मिलाना होगा कि -
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
तो अब उठ जाइए । देशहित में न सही स्वहित में ही, अव्यवस्था के विरुद्ध शंखनाद कीजिए और पूर्ण कीजिए उन क्रान्तिकारियों का स्वप्न, जिन्होंने हमारे लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। जय हिन्द! जय भारत !! - वृजेन्द्रसिंह झाला

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