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संस्कृतिः कल और आज

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वर्तमान युग में ’संस्कृति-संस्कृति’ सभी चिल्लाते हैं और सभी इसकी दुहाई देते हैं। परन्तु संस्कृति का क्या अर्थ है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, बहुत कम लोगों को ज्ञात है। प्रस्तुत लेख में संस्कृति की उत्पत्ति तथा विविध प्रयोगों को उपस्थित करते हुए यह बताया गया है कि जीवन की यात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व इसकी पहिचान और सच्चाई की परख लेनी चाहिए। आपके मस्तिष्क में भी यह विचार चक्कर लगा रहे होंगे। यदि मार्ग नहीं पाते, तो इस लेख को ध्यान से पढ़ डालिए। यह प्रकाशपुञ्ज आपको मार्गदर्शन करा देगा। ऐसा हमारा विश्‍वास है।

अंग्रेजी का कल्चर (Culture) शब्द लेटिन के कोलेरी (Colere) धातु से बना है, जिसका अर्थ है जोतना अथवा उपासना करना। इसका पहला अर्थ कल्चर शब्द में और दूसरा धर्म-विश्‍वास में निहित है। क्या दोनों अवस्थाओं में धातु एक ही है अथवा परिवर्तनों के साथ दो विभिन्न धातुओं में सादृश्य हो गया है? यह प्रश्‍न है जिस पर भाषाशास्त्र के अन्वेषकों को विचार करना चाहिए।

परन्तु Cult और Culture एक दूसरे से बहुत दूर नहीं हैं। जोतना और उपासना करना ये दो भिन्न प्रक्रियाएं दीख पड़ती हैं। परन्तु यदि हम उपासना के अर्थ पर जरा विचार करें तो हम देखेंगे कि जोतने और उपासना करने में एक प्रकार की समानता विद्यमान है, जिसको ज्ञात करना कठिन नहीं है।

कल्चर (Culture) शब्द एग्रीकल्चर (कृषि) Agriculture या Horticulture उद्यान-विद्या (बाग लगाना) शब्द का एक अंश है और यह किसी दशा में भी अप्रासांगिक नहीं कहा जा सकता। इस शब्द में कल्चर शब्द का वास्तविक अर्थ विद्यमान है। जुताई एक प्रकार की प्रक्रिया होती है, जिसके द्वारा बीज की तात्विक शक्तियाँ मूर्त्त रूप धारण करती हैं। बीज में वृक्ष होता है, भले ही वह अव्यक्त रूप में हो। एग्रीकल्चर भी एक प्रक्रिया होती है, जिसके द्वारा हम बीज की तात्विक शक्तियों को विकसित करते हैं।

सर्वोत्तम कृषक वह होता है, जो बीज की तात्विक शक्तियों में से किसी को भी अविकसित दशा में नहीं रहने देता। इसी प्रकार संस्कृति या कल्चर वह प्रक्रिया होती है जिसके द्वारा आत्मिक शक्तियों का सर्वाङ्गीण विकास किया जाता है। संसार एक बगीचे के सदृश है। जीवात्मा या चेतन जीव छोटे-छोटे बीज होते हैं जो उत्पादक शक्तियों से परिपूर्ण होते हैं। बीज के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक है कि भूमि उत्तम हो और माली सुयोग्य हो। इसी भाँति चेतन प्राणियों की शक्तियों के विकास के लिए कई प्रकार की अवस्थाओं और वातावरण का होना आवश्यक होता है।

प्रसन्नता की बात है कि संस्कृत में कल्चर शब्द का एक अत्युत्तम पर्याय विद्यमान है और वह है ‘कृषि’ शब्द, जिसका अर्थ भी जोतना है। एक दूसरा शब्द ‘कृष्टि’ है जो ‘कृषि’ शब्द से लिया गया है। वेदों में स्थान-स्थान पर इसका प्रयोग किया गया है। वेदों में ‘कृष्टि’ शब्द का अर्थ है- पूर्ण संस्कृत मनुष्य। कभी-कभी इसका अर्थ साधारण मनुष्य भी किया जाता है। परन्तु दोनों अर्थों का भाव एक ही है। अंग्रेजी का (Man) मैन शब्द संस्कृत के ‘मनु’ शब्द का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ मननशील प्राणी होता है। इसी भाँति ‘कृष्टि’ का वास्तविक अर्थ जिसका साधारण अर्थ मनुष्य किया जाता है, वह मनुष्य है जिसकी तात्विक शक्तियों का पूर्ण रूप से विकास हो गया है।

अब प्रश्‍न होता है कि कल्चर शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? कल्चर में आरम्भ से लेकर अन्त तक उन सब छोटी-बड़ी वस्तुओं का समावेश हो जाता है, जो चेतन प्राणी की बीज शक्ति के विकास में योग देती हैं। कल्चर बहुत सी वस्तुओं का समुदाय होती है, जो अपने-अपने स्थान पर काम करती हैं और जिनका एकमात्र कार्य पृथक् और सम्मिलित दोनों रूपों में बीज को पूर्ण वृक्ष के रूप में विकसित करना होता है। कृष्टि या मनुष्य ही वह वृक्ष होता है और वे सब छोटी-बड़ी वस्तुएँ जो मनुष्य के पूर्ण विकास में योग देती हैं सामूहिक रूप से कल्चर कही जाती हैं।

वर्तमान में हमें संस्कृति और संस्कृतियों के सम्बन्ध में चर्चा करने की आदत पड़ गई है। हम अर्द्धविकसित बच्चे को भी मनुष्य कहते हैं। दुष्ट से लेकर आदर्श सज्जन और मूर्ख से लेकर बुद्धिमान पर्यन्त सब मनुष्य कहे जाते हैं। ऐसा प्रयोग ‘मनुष्य’ शब्द के वास्तविक अर्थ की दृष्टि से नहीं, अपितु सामान्य दृष्टि से किया जाता है। मनुष्य का वास्तविक अर्थ है मननशील प्राणी, परन्तु विवेकहीन मूर्ख भी मनुष्य होता है। इसलिए नहीं कि उस पर मनुष्य शब्द का वास्तविक अर्थ चरितार्थ होता है, अपितु इसलिए कि इस शब्द के आन्तरिक अर्थ ने प्रथा के कारण बाह्य रूप धारण कर लिया है।

यही बात संस्कृति शब्द पर भी चरितार्थ होती है। खेती अच्छी भी होती है और बुरी भी। अच्छी खेती का अभिप्राय है वे सब प्रक्रियाएँ काम में आ जायें, जिनके द्वारा बीज का कोई अङ्ग नष्ट न हो और उसकी समस्त शक्तियाँ विकास में आ जायें। बुरी खेती से भी फसल तैयार होती है, पर बहुत बढ़िया नहीं। अनाड़ी किसान भी भूमि को जोतता है, बीज बोता है, पानी देता है और फसल काटता है। परन्तु जितनी पैदावार चतुर किसान को होती है, उतनी उसकी नहीं होती। इससे पता लगता है कि अनाड़ी किसान के ढङ्ग में कहीं कोई त्रुटि अवश्य थी। और भी अनेक कारण हो सकते हैं। पर हम कह देते हैं कि किसान अनाड़ी था। चतुर किसान अधिक सावधान होगा और उसके काम करने का ढङ्ग भी भिन्न होगा।

यही बात संस्कृति के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। संस्कृति-संस्कृति में भेद होता है। जो संस्कृति बिना किसी बाधा और बर्बादी के मनुष्य के उच्चतम विकास में योग देती है, वह सर्वोत्तम संस्कृति समझी जाती है। जो संस्कृति इस उद्देश्य को पूर्ण करने में असफल रहती है, वह उस अंश तक निकृष्ट संस्कृति मानी जाती है।

जिस तरह संसार में प्रत्येक प्रकार के अच्छे-बुरे और असावधान किसान हैं, उसी तरह नाना प्रकार की संस्कृतियाँ विद्यमान हैं, जो गुणों और संस्कारों दोनों की दृष्टियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्यों को उत्पन्न करती हैं।

जब कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, तो वह यह नहीं कहता कि हमें अमुक-अमुक प्रदेश वा अमुक-अमुक बाजार चाहिए। अपितु वह यह कहता है हम संस्कृति की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं, हमें मनुष्य समाज के एक भाग को सभ्य बनाना है। यह बहाना कहाँ तक ठीक है, यह बताना कठिन है। किन्तु बात स्पष्ट है कि आक्रान्ता को इस बहाने से अमित लाभ होता है। इससे उसके स्वार्थपरता पर पर्दा पड़ जाता है और वह संसार की सहानुभूति अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल हो जाता है। इससे अन्दर की कालिमा सफेद दिखने लगती है।

जहाँ तक युद्धरत दलों की घोषणाओं का सम्बन्ध है, समस्त युद्ध सांस्कृतिक बतलाये गये थे। दोनों दल युद्धों के उद्देश्य के रूप में संस्कृति की दुहाई देते रहे हैं। उनका कहना था कि हम मनुष्य के सर्वोत्तम विकास के लिये ही नरसंहार में प्रवृत्त हुए हैं। ओह! कलुषित स्वार्थपरता को सफेद संस्कृति का जामा पहनाकर दुःख, रक्तपात, विनाश और अराजकता से पृथ्वी के सौन्दर्य को नष्ट कर दिया जाता है। निश्‍चय ही संस्कृति की वास्तविक भावना को भूल जाने से ही ऐसा काण्ड होता है।

आज हम क्या देखते हैं? स्वार्थ सिद्धि के लिये खड़े हुए काल्पनिक फार्मूले सभ्यताओं के आकर्षक नामों से बाजार में बिकते हैं। कहावत है कि सभी चमकीली वस्तुयें सोना नहीं होती हैं, परन्तु सोने की चमक उसका माना हुआ लक्षण होता है और केवल उसी वस्तु की बाजार में बिक्री होती है। आज भड़कीले नामों वाले बहुत से संगठनों का उदय हुआ दीख पड़ता है। जैसे रिलीजन, जनहित, समाजवाद, मानव अधिकारवाद आदि। ये जोरशोर के साथ अपने माल का विज्ञापन करके उसको बेचते हैं और कहते हैं कि हमारे सिद्धान्त सर्वोत्तम हैं।

इतनी अधिक प्रकार की संस्कृतियों के प्रदर्शन से बेचारा ग्राहक परेशान हो जाता है। उसे यह नहीं सूझ पड़ता कि किसे ग्रहण किया जाये और किसे छोड़ा जाये! खरे और खोटे सोने की पहचान किस प्रकार की जाये? इस पर भी अन्धकार से आवृत्त क्षितिज पर प्रकाश की एक रजत रेखा दीख पड़ती है। संस्कृति की दुहाई दिये जाने पर यह जानना चाहिए कि संस्कृति क्या वस्तु है? थोड़े व्यक्तियों को थोड़े समय के लिये धोखा दिया जा सकता है, परन्तु अन्त में सत्य की ही विजय होती है। अपने कटु अनुभव के आधार पर हममें सत्य को जानने की और सत्य को खोज करने की भावना जागृत होनी चाहिए। - गंगाप्रसाद उपाध्याय

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