संसार का समस्त बुद्धिजीवी समुदाय एक स्वर से यह स्वीकार करता है कि ऋग्वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है। पूर्वाग्रहों से ग्रस्त कुछ विदेशी विद्वानों एवं तदनुवर्ती कतिपय भारतीय जनों द्वारा वेदों के सम्बन्ध में दिए गए तर्कों पर मिल बैठकर विचार करें, तो बड़ी सरलता से यह सिद्ध किया जा सकता है कि चारों ही वेद सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वरीय ज्ञान के रूप में प्रकट होने के कारण संसार की ग्रन्थ-राशि में सबसे प्राचीनतम हैं। यद्यपि आज कुछ लोग अन्य भी कई ग्रन्थों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, लेकिन ईश्वरीय ज्ञान के रूप में वेदों को जो सम्मान व गौरव मिला है, वह अन्य किसी ग्रन्थ को नहीं मिला। यह सच हो सकता है कि अन्य ग्रन्थों को ईश्वरीय ज्ञान मानने वालों की संख्या अधिक हो और लोकतान्त्रिक-पद्धति का सहारा लेकर वे लोग किसी ग्रन्थ-विशेष को ईश्वरीय ज्ञान के रूप में स्वीकार कर-करा लें, लेकिन क्या सत्य को संख्या बल के सहारे प्रमाणित किया जा सकता है? अगर ऐसा होता तो विज्ञान का विकास सम्भव नहीं था, क्योंकि विज्ञान के बढ़ते कदमों ने सृष्टि के जिन सत्य सिद्धान्तों को उद्घाटित किया, वे बहुमत की समझ से आज भी बहुत दूर हैं, जबकि जन सामान्य नित्य कर्मों में उनका प्रयोग बड़ी सहजता से कर रहा है। विज्ञान के निरन्तर अबाध गति से बढ़ते हुए कदम सिद्ध करते हैं कि सत्य को जानकर मुट्ठी भर मानव भी पूरी निष्ठा व शक्ति के साथ उस सत्य को आत्मसात करते हुए संसार में फैलाने के लिए कमर कस लें तो वह सत्य जनमानस में ओत-प्रोत हो ही जाता है। इस संकल्प से अनुप्राणित होकर हमें यह सत्य संसार के कोने-कोने में फैलाना होगा कि वेद ही एकमात्र ईश्वरीय ज्ञान है और वेद ही सम्पूर्ण मानव जाति के एकमात्र धर्म ग्रन्थ हैं।
मानव का स्वभाव है कि सत्य को जान लेने के बाद वह उसे स्वीकार कर ही लेता है। सत्य से आँखें चुराना मानव-स्वभाव का अपमान है, जिसे वेद की भाषा में ‘आत्म-हनन’ कहते हैं। कोई भी विवेकशील पुरुष अपने स्वभाव का अपमान व ‘आत्म-हनन’ करना नहीं चाहेगा। वेद को ईश्वरीय ज्ञान व मानव जाति का धर्म ग्रन्थ सिद्ध करने के पीछे हमारा यही उद्देश्य है कि सच को जानकर कुछ सत्यशील सज्जन पुरुष इसे विश्व के उर्वर जनमानस में पिरोने का सत्संकल्प लेकर एक विशाल अभियान प्रारम्भ करें। उनका यह सत्प्रयास मानवता की सबसे बड़ी सेवा होगी। महर्षि दयानन्द जी महाराज के अनुसार ‘सत्योपदेश के सिवाय मनुष्य के कल्याम का और कोई उपाय नहीं है।’ वैदिक ऋषियों की मान्यता रही है कि ‘तर्क प्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धि न तु कथनमात्रेण’ अर्थात् किसी वस्तु की सिद्धि तर्क और प्रमाणों से होती है, कथन मात्र से नहीं। तर्क और प्रमाणों की कसौटियों पर परखे बिना और सत्य सिद्ध हुए बिना हमारे वैदिक ऋषियों ने कहीं कुछ भी नहीं लिखा। हमें अगर कहीं कुछ ऐसा मिलता भी है तो वह हमारे मध्यकाल के अधकचरे आचार्यों के प्रक्षिप्त लेख हैं, वैदिक ऋषियों के नहीं। ऋषियों ने वेद को ईश्वरीय ज्ञान व मानव जाति का एकमात्र धर्म-ग्रन्थ इसीलिए कहा है, क्योंकि वेद ऐसा है। हम पहले तर्कों द्वारा यह सिद्ध करके कुछ विश्वसनीय प्रमाण भी प्रस्तुत करेंगे।
आगे बढ़ने से पहले ईश्वरीय ज्ञान वेद की आवश्यकता एवं उपयोगिता को स्पष्ट करना अति आवश्यक प्रतीत होता है। न्याय व्यवस्था का एक मानवीय पक्ष यह है कि अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित का ज्ञान कराये बिना किसी को दण्ड देना न्याय-संगत नहीं कहा जाता। उस सर्वोच्च सत्ता के लिए भी यह परमावश्यक है कि वह अपनी कर्मफल व्यवस्था व दण्ड नीति के प्रचलन से पूर्व मानव मात्र को उससे सम्बन्धित सिद्धान्तों की समुचित जानकारी अवश्य दे। भलाई-बुराई का बोध कराये बिना दण्डित करना अपने आप में घोर अन्याय है और परमेश्वर जो सबका पिता व परम दयालु है वह सम्पूर्ण मानव जाति के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकता। उसने सृष्टि के प्रारम्भ में लगभग दो अरब वर्ष पूर्व ही अपनी कर्मफल व्यवस्था के मूल सिद्धान्त वेदों के माध्यम से मानव मात्र के लिए प्रकट कर दिये थे, हम उन्हें न पढ़ें, तो इसमें दोष हमारा है, ईश्वर का नहीं।
तर्कों द्वारा वेदों को ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध करना बहुत सरल है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी सिद्ध करने में कठिनाई कैसी? यह काम वही कर सकता है, जिसे उस वस्तु का सच्चा व सम्पूर्ण ज्ञान हो। वेदों को ईश्वरीय ज्ञान आदि काल से ही माना जाता रहा है।
हर मनुष्य के पास दो प्रकार की आँखें होती हैं, जिन्हें शास्त्र की भाषा में ‘चर्म-चक्षु’ और ‘प्रज्ञा-चक्षु’ कहते हैं। ‘चर्म-चक्षु’ अर्थात् सामान्य आँखों के लिए ईश्वर ने जैसे सूर्य को बनाया है, वैसे ही ‘प्रज्ञा-चक्षु’ अर्थात् बुद्धिरूपी आँखों के लिए परमेश्वर ने वेदों के माध्यम से ज्ञान का प्रकाश दियाहै। हमारी दार्शनिक परम्परा में ज्ञान और प्रकाश को पर्यायवाची मानने के मूल में यही दृष्टि रही है। जैसे सूर्य के प्रकाश में आँखें हर दिशा में दूर-दूर तक देख सकती हैं, वैसे ही वेदों के ज्ञान आलोक में हमारी बुद्धि चतुर्दिक-चिन्तन के साथ-साथ बहुत आगे तक देखने व सोचने की शक्ति पा लेती है। जैसे सूर्य को परमेश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में बना दिया था, वैसे ही वेदों का ज्ञान भी सृष्टि की पहली पीढ़ी के रूप में प्रादूर्भूत अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा नाम के चार ऋषियों के आत्मा में प्रकाशित कर दिया था। ईश्वर को मानने वाले सभी लोग यह भी मानते हैं कि यह संसार ईश्वर ने ही बनाया है। यह भी कहा जाता है कि ईश्वर ने जो ज्ञान दिया है, वह संसार के सम्बन्ध में और संसार में रहने के लिए ही दिया है। यह सच है तो वह ईश्वरीय-ज्ञान सृष्टि के प्रारम्भ में दिया जाना चाहिए, ताकि उससे कोई वञ्चित न रहे।
दूसरी बात वह ईश्वरीय सृष्टि के नियमों के विपरीत नहीं होना चाहिए। विज्ञान के विरुद्ध ढेर सारी बातें जिन ग्रन्थों में भरी पड़ी हों, उन्हें ईश्वरीय ज्ञान कैसे कहा जा सकता है? ईश्वरीय-ज्ञान पूर्ण होना चाहिए अधूरा नहीं। ईश्वरीय-ज्ञान की भाषा अपने आप में पूर्ण वैज्ञानिक होनी चाहिए। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि वेद ही एकमात्र ऐसे ग्रन्थ हैं, जो इन सभी कसौटियों पर खरे सिद्ध होते हैं। चारों वेदों में सृष्टि-सिद्धान्तों व वैज्ञानिक नियमों के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। गणित विद्या से लेकर शरीर-विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, राजनीति,न्याय-विधान, समाजशास्त्र, जीव-विज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, गान विद्या, विद्युत विद्या, विमानशास्त्र और खगोल विद्या तक मानव जीवन को सुखी, समृद्ध व सम्पूर्ण बनाने के लिए जो-जो विद्याएँ प्रचलित हैं, उन सबका मूल स्रोत वेद ही है। भाषा के सम्बन्ध में सभी जानते हैं कि संसार के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद की संस्कृत भाषा आज के नवीनतम आविष्कार कम्प्यूटर के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वेदों में प्राप्त विद्याएँ ही भाषा विकासवाद के काल्पनिक सिद्धान्त को शीर्षासन कराने के लिए पर्याप्त हैं। वेदों के अतिरिक्त संसार के किसी ग्रन्थ में ये गुण नहीं, जिनके आधार पर उसे ईश्वरीय-ज्ञान कहा जा सके।
वैसे तो हम वेदों को स्वतः प्रमाण मानते हैं और संसार के अन्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता भी उनके वेदानुकूल होने में है। ईश्वरीय-ज्ञान वेद को मानवीय बुद्धि के सहारे प्रमाणित करने की क्या आवश्यकता? क्या सूर्य को दीपक या मानव-निर्मित अन्य विद्युत लैम्प के प्रकाश में देखा जाता है? प्राचीन काल से लेकर देश-विदेश के निष्पक्ष विद्वानों ने वेदों के बारे में जो गौरवपुर्ण वाक्य कहे हैं, उनमें से कुछ वाक्य यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं- मानव धर्मशास्त्र के प्रथम प्रणेता महर्षि मनु वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। मनु लिखते हैं- धर्म जिज्ञासमानानां परमं प्रमाणं श्रुतिः। धर्म जिज्ञासुओं के लिए वेद परम प्रमाण हैं। मनु कहते हैं कि पितर, देव, और मनुष्यों का मार्गदर्शक प्राचीन काल से वेद ही है। महर्षि याज्ञवल्क्य के शब्दों में- निःसृतं सर्वशास्त्रं तु वेद शास्त्रात् सनातनात्, अर्थात् सनातन वेदों से ही सब शास्त्र निकले हैं।
महात्मा बुद्ध को लोगों ने अनजाने में वेद-विरोधी के रूप में प्रचारित कर दिया है। लेकिन महात्मा बुद्ध ने स्वयं ब्रह्मचर्य धारण करके, गुरुकुल में रहकर वेद पढ़े थे ऐसा उनके जीवन-चरित्र ‘ललित-विस्तर’ में आता है। सुत्तनिपात में कई स्थानों पर वेदज्ञ की उन्होंने खूब प्रशंसा की है। गुरु नानक देव वेदों को ईश्वर का ज्ञान मानते थे। ‘ओंकार वेद निरमये’, ’हरि आज्ञा होये वेद पाप-पुन्न विचारिआ’। जपुजी में लिखा है- ‘असंख्य ग्रन्थ मुखि वेद पाठ’। योरोप के ईसाई विद्वानों यहाँ तक कि अनेक पादरियों ने खुले हृदय से वेद को ईश्वरीय-ज्ञान स्वीकार किया है। मुसलमान मत के कई विद्वानों के वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने सम्बन्धी प्राचीन व नवीन नाम कवि लॉवी से लेकर वर्तमान में अनवर शेख तक लिये जा सकते हैं। इन सब तथ्यों से स्पष्टतः सिद्ध है कि वेद ही एकमात्र ईश्वरीय ज्ञान एवं मानव मात्र के धर्म-ग्रन्थ हैं। जिस प्रकार ईश्वर के बनाए हुए सूर्य, चन्द्रमा, वायु और जल आदि पर मनुष्य का समान अधिकार है, उसी प्रकार वेदों पर सबका समान अधिकार है। हर मनुष्य वेद पढ़ और सुन सकता है चाहे वह किसी देश, जाति या मत-पन्थों का मानने वाला हो। जिस दिन मनुष्य इस सत्य को स्वीकार कर लेगा उसी दिन से मानव जाति की अधिकांश समस्याएँ दूर हो जाएँगी। - रामनिवास ‘गुण ग्राहक’
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