लोकनायक या जननायक ही वास्तव में राष्ट्रनायक होता है। श्रीकृष्ण अपने युग के ऐसे ही नायक थे। श्रीकृष्ण जिस युग में धरा पर अवतरित हुए थे, उस समय सत्ता के दो प्रमुख केन्द्र विद्यमान थे। एक था हस्तिनापुर और दूसरा था मथुरा। श्रीकृष्ण चाहे मथुरा में रहे या हस्तिनापुर में, कहीं भी सत्ता पर आसीन नहीं रहे। लेकिन उस समय विश्वभर के सत्ताधारी उनके इर्दगिर्द ऐसे मंडराते थे, मानो उनके चतुर्दिक् चक्र का वलय हो। श्रीकृष्ण ने अन्य लोगों को सत्ता सौंपी, लेकिन स्वयं सत्ता से विरक्त रहे। वास्तव में श्रीकृष्ण राष्ट्रनायक इसीलिए बन सके, क्योंकि उन्होंने लोकशक्ति को संगठित करने की महती भूमिका निभाई थी। तत्कालीन समाज में यदुवंश की जो तमाम शक्तियां बिखरी हुई थीं, उनको संगठित किया। उनमें चेतना का संचार किया। अत्याचार करने वाली तत्कालीन शक्तियों के विरुद्ध उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने का आह्वान किया। जो सत्ताधारी बिना कुछ किए समूची जनता का शोषण करके स्वयं राजवंश का कहलाकर इतराते रहते थे, श्रीकृष्ण ने उसका यथार्थ बोध कराया।
चाणक्य भी अपने युग के इसी तरह के राष्ट्रनायक रहे, जो पाटलिपुत्र के कुटीर में रहते हुए समूचे साम्राज्य का सूत्र संचालन करते थे। उनके इंगित मात्र पर चन्द्रगुप्त सिंहासन से उतरकर भागता हुआ उनकी पर्णकुटीर तक नंगे पाँव पहुंचता था। उनके तेवर ने नंद वंश को इस तरह धराशायी कर दियाथा कि उस वंश में आगे चलकर कोई पुनः राजसत्ता में आने के लिए सिर उठाने वाला नहीं रह गया। लेकिन स्वयं चाणक्य जीवन पर्यन्त सत्ता से दूर रहे । उनकी भृकुटि संचालन मात्र से अन्य आमात्यों का संचालन होता था। राक्षस और पर्वतेश्वर जैसे आमात्यों को उन्होंने अपनी नीति का सही पाठ सिखा दिया था। वह इसलिए नहीं कि चाणक्य के पास कोई सत्ता थी। हाँ, एक सत्ता थी उनके पास, लोकसत्ता! और किसी भी राष्ट्रनायक की वास्तविक पूंजी और शक्ति यही है।
जो समूचे जनमानस को इस तरह चेतना से से उद्वेलित कर दे कि जिस अभीष्ट दिशा में वह समूचे समाज को ले जाना चाहता है, उसी दिशा में सैलाब की तरह समूचा समाज चल पड़े और उसके प्रबल प्रवाह को उन्नत पर्वत शिखर भी न रोक सकें। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही राष्ट्रनायक थे, जिनके इंगित मात्र पर सभी गोप-गोपियाँ ब्रज छोड़कर तत्कालीन नरेश कंस के विरुद्ध एकजुट हो गए थे। मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास हालांकि सत्ता से कोसों दूर थे,लेकिन उनकी रामचरितमानस आज भी जन-जन की कंठहार बनी हुई है और आज भी किसी भी सत्तासीन राजा-महाराजा या सम्राट की अपेक्षा भारत में अधिकांश भागों में तुलसी का नाम गूंज रहा है। इसी प्रकार हाल में महात्मा गांधी सत्ता से बिल्कुल दूर थे। उन्होंने एक बार भी कांग्रेस का अध्यक्ष पद नहीं संभाला। यहाँ तक कि कांग्रेस के चवन्नी वाले सदस्य भी नहीं थे, जो कि उस समय कांग्रेस का सदस्यता शुल्क था। लेकिन अपने जीवनकाल में उन्होंने कांग्रेस को तथा तत्कालीन समाज को और समूचे राष्ट्र को दिशा दी थी। जयप्रकाश नारायण ने देश में सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करके सत्ता परिवर्तन कर दिया था। इसलिए नहीं कि वे सत्ता में थे, बल्कि उनके पास लोकसत्ता थी और इसीलिए वे ‘लोकनायक’ कहलाए। लोगों का उन्होंने अगाध विश्वास जीता था।
राष्ट्रनायक श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना सम्मोहक था कि मनुष्यों की कौन कहे, जब वे बांसुरी बजाते थे तो गायें भी दौड़कर उनके पास आ जाती थीं। वे उन्हें भी सम्मोहित कर लेते थे। सत्ता से जो व्यक्ति दूर रहता है और दूर रहते हुए भी समूचे राष्ट्र को दिशा देता है, वही सच्चा राष्ट्रनायक होता है। राष्ट्रनायक का जीवन त्यागमय होता है। उसके जीवन में पदलिप्सा नहीं होती। भगवान राम को उनके पिता दशरथ ने सिंहासन सौंपा था। उस सिंहासन पर वे बने रह सकते थे। लेकिन वे सत्ता से अनासक्त थे। श्रीकृष्ण भी उसी परम्परा से जुड़ते हैं। उनके अन्दर तीन गुण विशेष रूप से विद्यमान थे- त्याग, सत्ता से अनासक्ति तथा लोकशक्ति को संगठित करने की अद्भुत क्षमता। इन तीनों गुणों के कारण ही श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छानुसार युग परिवर्तन लाने में सफलता प्राप्त की। श्रीकृष्ण का वैचारिक धरातल व्यावहारिक धरातल से बहुत ऊंचा था। तथापि वे अपने वैचारिक और व्यवहारिक धरातल के बीच समन्वय इस तरह करते थे कि दोनों धाराएं एक-दूसरे में कहाँ विलीन होती हैं, उसका पता भी नहीं चलता था।
श्रीकृष्ण के जीवन में विभिन्न प्रकार के गुणों का ऐसा सुन्दर समन्वय था कि एक ओर जहाँ वे सामान्य जन में रम सकते थे, वहीं अपने हाथों से कुवलयापीड़ जैसे मदोन्मत्त हाथी के दांतों को भी उखाड़कर फेंक सकते थे। अद्भुत क्षमता का यह समन्वय श्रीकृष्ण को अन्य नायकों से बिल्कुल भिन्न पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है। वैचारिक और व्यावहारिक धरातल को समाविष्ट करने की श्रीकृष्ण की सार्थकता की जो धारा भारतीय समाज में अविछिन्न रूप से प्रवाहित हुई उसी को चाणक्य ने कूटनीति से, तुलसीदास ने भक्ति से, गांधी ने सेवा और जयप्रकाश ने जनजागरण के माध्यम से चिंतन की व्यावहारिक उपयोगिता को सिद्ध कर दिखाया। श्रीराम सत्तासीन रहते हुए भी सदैव उससे उसी प्रकार निर्लिप्त रहे, जैसे अहर्निश जल में रहते हुए भी कमल पत्र उससे लिप्त नहीं होता। राम की इसी परम्परा को श्रीकृष्ण ने और आगे बढ़ाया। श्रीराम तो अपने जीवन में कुछ समय सत्ता पर आसीन भी रहे, लेकिन श्रीकृष्ण हमेशा सत्ता से दूर रहे। उन्होंने अन्य लोगों को तो सत्ता पर बिठाया, लेकिन स्वयं आराधना करते रहे। उनकी विनम्रता इस सीमा तक थी कि राजसूय यज्ञ में जब सभी को काम सौंपा गया, तो श्रीकृष्ण ने लोगों की झूठी पत्तलें उठाने का जिम्मा खुद ले लिया। यह थी उनकी विनम्रता। इसी विनम्रता का परिणाम रहा कि सभी नरेशों के मुकुटमणि उनके चरणों पर अवनत होते रहे। उनके इन्हीं गुणों की वजह से आज भी हम उन्हें षोडशकलापूर्ण व्यक्ति मानते हैं। सम्पूर्ण भारत में प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक किसी अन्य व्यक्ति को यह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका।
श्रीकृष्ण के समग्र विचार दर्शन का संक्षेप में केवल एक संदेश है- कर्म। कर्म के माध्यम से ही समाज की अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का शमन करके उनके स्थान पर वरेण्य प्रवृत्तियों को स्थापित करना संभव होता है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व असीम करुणा से परिपूर्ण है। लेकिन अनीति और अत्याचार का प्रतिकार करने वाला उनसे कठोर व्यक्ति शायद ही कोई मिले। जो श्रीकृष्ण अपने सेे प्रेम करने वाले के लिए नंगे पांव दौड़े हुए चले जाते थे, वही श्रीकृष्ण दुष्टों को दण्ड देने के लिए अत्यन्त कठोर और निर्मम भी हो जाते थे। गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही कहा था कि मोह वश होकर रहने का कोई लाभ नहीं। ये सगे सम्बन्धी सब कहने को हैं, लेकिन तुम्हें अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए यहाँ युद्ध कर्म में प्रवृत्त होना पड़ेगा। उन्होंने गीता में जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति के प्रतिपादन पर बल दिया। श्रीकृष्ण के विषय में अनेक किम्वदन्तियाँ और मिथक प्रचलित हैं। लेकिन समकालीन संदर्भ में उनका उचित और युक्तिसंगत ऐतिहासिक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
श्रीकृष्ण भारत के तत्कालीन समाज में विद्यमान ज्ञान का अवगाहन कर चुके थे और गीता में उन्होंने उपदेश के रूप में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह तत्कालीन समाज के पूंजीभूत ज्ञान के मथे हुए घृत जैसा है। तभी तो गीता के बारे में कहा जाता है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।
यानी सभी उपनिषदें गाय सदृश हैं और गोपालनन्दन श्रीकृष्ण उन्हें दुहने वाले ग्वाल सदृश हैं। ऐसे गीतामृत का पान अर्जुन ने वत्स के रूप में किया।
वास्तव में श्रीकृष्ण उस कोटि के चिंतक थे, जो काल की सीमा को पार कर शाश्वत और असीम तक पहुंचता है। जब-जब अनीति बढ़ जाती है, तब-तब श्रीकृष्ण जैसे राष्ट्रनायक को अवतीर्ण होना पड़ता है। जैसा कि स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। अर्थात् अन्याय के प्रतिकार के लिए ही राष्ट्रनायक को जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है।
यदि हम भारत के वर्तमान परिदृश्य पर ध्यान से देखें तो हमें राष्ट्रनायक श्रीकृष्ण की याद आती है। आज हमें सत्ता से चिपकने वाले राजनेताओं की आवश्यकता नहीं है। इस समय हमें आवश्यकता है श्रीकृष्ण जैसे राष्ट्रनायक की, जो सत्ता से दूर रहते हुए भी सम्पूर्ण सत्ता का लोकहित में संचालन करता हो। ऐसा ही लोकनायक वास्तव में राष्ट्रनायक कहलाने योग्य होता है। (सन्दर्भ- जनज्ञान) - रामबिहारी विश्वकर्मा
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