ओ3म् वयं सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः।
प्रजावन्तः सचेमहि॥ ऋग्वेद 10.57.6
ऋषिः बन्धुः सुबन्धु आदयः॥ देवता विश्वेदेवाः॥ छन्दः-गायत्री॥
विनय- हे सोम! तुम्हारा दिया हुआ तुम्हारी महाशक्ति का अंशभूत मन हमारे शरीरों में विद्यमान है। इस मन का, इस तुम्हारी अमूल्य देन का हमें गर्व है। इस मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। इस मनशक्ति के कारण ही हम पशुओं से ऊँचे हुए हैं। तो क्या अपने शरीरों में मन जैसी प्रबल शक्ति को धारण किये हुए भी हम लोग तुम्हारे व्रत में न रह सकेंगे? बेशक तुम्हारे व्रत का पालन करना बड़ा कठिन है। तुमने जगत् में जो उन्नति के नियम बनाये हैं, ठीक उनके अनुसार चलना बड़ा दुःसाध्य है। पर जहाँ तुमने ये कठिन नियम बनाये हैं, वहाँ तुमने ही हममें मन की अतुल शक्ति भी दी है। अतः हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अपनी मनःशक्ति के प्रयोग द्वारा सदा तुम्हारे व्रत में ही रहेंगे, कभी इसको भंग न करेंगे। कठिन से कठिन प्रलोभन व विपत्ति के समय में भी मनःशक्ति द्वारा हम व्रत में स्थिर रहेंगे।
पर यह सब व्रतपालन किसलिए है? यह तुम्हारी सेवा के लिए है। यह तुम्हारा दिया मन इसी काम के लिए है। हम चाहते हैं कि केवल यह हमारा मन ही नहीं, किन्तु हमारे मन की प्रजा भी तुम्हारी सेवा में ही काम आवे। मन में जो एक रचनाशक्ति है, उस द्वारा प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह कुछ रचना कर जावे, कुछ निर्माण कर जावे। यह रचना ही मन की प्रजा है। यदि हम, हे सोम! सर्वथा तुम्हारे व्रत में होंगे तो हमारी यह रचना (प्रजा) भी निःसन्देह तुम्हारी सेवा के लिए ही होगी, इसी में व्यय होगी। इस प्रकार हम और हमारी प्रजा सदा तुम्हारी सेवा में रहें, तुम्हारी सेवा में ही अपना जीवन बिता देवें। अब यही संकल्प है, यही इच्छा है, यही प्रार्थना है।
शब्दार्थ- सोम=हे सोमदेव! तनूषु=अपने शरीरों में मनः=मन को, मनःशक्ति को बिभ्रतः=धारण किये हुए वयम्=हम लोग तव व्रते=तुम्हारे व्रत में हैं, तुम्हारे व्रत का पालन करते हैं और प्रजावन्तः=प्रजा-सहित हम लोग सचेमहि=तुम्हारी सेवा करते रहें। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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