वर्णाश्रम धर्म में व्यक्तिगत जीवन को 4 आश्रमों में बांटा गया है। गृहस्थ आश्रम सब सामाजिक कार्यों तथा व्यवस्था का प्रश्रय है। अन्य आश्रम उसी पर आश्रित हैं। वैदिक संस्कृति ने गृहस्थ आश्रम को परिवार से बांध दिया है। हम इसी में पैदा हुये, पले तथा बढ़े हैं। सो हमें इस प्रणाली की विशेषता यों ही नहीं दिखती है। अपितु यही है वह शाश्वत व्यवस्था, जिसने गये-गुजरे पराभव और पराधीनता तथा परवशता के युग में भी हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार तथा हमारी संस्कृति के ताने-बाने को बनाए रखा है।
ऋग्वेद में उद्घोष किया गया- प्रजाभिरग्ने अमृतत्त्वमश्याम्। प्रजा के प्रजनन में अमृत तत्व निहित है। आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्। और सन्तान नरक से तारती है। लोक में सन्तान नाम अमर रखती है। सन्तान ही विरासत का उत्तराधिकारी होती है। अंगादंगात्संभवसि हृदयादभिजायसे। सन्तान और पति-पत्नी के चारों ओर परिवार पूरा जाता है। वैदिक ग्रन्थों में पुत्र-पुत्री दोनों ही के लिए ‘पुत्र’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका भावार्थ है नरक से तारने वाला।
चाचा, बुआ-फूफा, दादा-दादी, नाना-नानी, मातुल, साले, साढू, बहनोई, श्वसुर-सास, मौसा आदि पारिभाषिक शब्द केवल संस्कृत आदि भारतीय भाषाओं में ही पाये जाते हैं। क्योंकि अपने इस रूप में परिवार भारतवर्ष में ही पनपता रहा है। पश्चिमी भाषाओं में तो इन शब्दों के अनुवाद प्राप्त हैं ही नहीं। वहाँ Uncle-Aunt-Grand तथा In-Law शब्दों में सब रिश्ते आ जाते हैं। इन रिश्तेदारों में कोई आजीवन मधुरता व आदान-प्रदान नहीं चलता है। गीता के प्रथम अध्याय में ये शब्द प्रयुक्त हुये हैं।
मनुस्मृति अध्याय 8 में श्लोक 181 से 186 तक एक रूपक इस प्रकार बांधा गया है- आचार्य ब्रह्मलोक के स्वामी हैं। पिता प्रजापति लोक के, ऋत्विज देवलोक के, भगिनी व पुत्रवधू अप्सरा लोक के, माँ व मामा भूलोक के, बालक आकाश लोक के स्वामी हैं। भ्राता पिता तुल्य तथा भार्या व सन्तान स्वशरीर के तुल्य हैं। पुत्रवधू देववधू के तुल्य, बान्धव विश्वेदेवा के समान और साले कामसुधादायक तथा शान्तिदाता हैं।
परिवार शान्ति का स्थान रहा है। परिवार मनुष्य को त्यागमय बनाने का प्रथम सोपान है, जहाँ सब अपनी शक्ति के अनुसार कार्य करते हैं। पर आवश्यकतानुसार फल संचित कमाई से पाते हैं। परिवार एक प्राकृतिक सहकारी संघ है। सामाजिक प्राणी होने के प्रथम पाठ व्यक्ति परिवार में ही पढ़ता है। परिवार भारतवर्ष की विशिष्ट पहचान है। इसकी प्रशंसा में वेदों में प्रशस्तियाँ हैं। परिवारों के वैदिक आदर्श भी हैं-
अनुव्रतः पितु पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्॥
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रयाः॥
येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः।
तत् कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः॥
परिवार त्याग का शिक्षणालय है। यहाँ कम आय में गुजारा होता है। मरने पर भी कृतज्ञ सन्तान सद्गुणों से तर्पण करती है। परिवारों द्वारा ही हाथ की खेती सम्भव रही है। बच्चों की शिक्षा और पारिवारिक उद्योग कला की शिक्षा परिवारों द्वारा सहज ही में होती आई है। परिवार में आनन्द है, मनोरंजन है। परिवार में धार्मिक कृत्य होते हैं। परिवार संरक्षक है, क्योंकि पुत्र के रूप में बुढ़ापे की रोटी निश्चित है। परिवार स्वर्ग है।
परन्तु हा हन्त! अब परिवार को समाप्त किया जा रहा है। समाप्त जान-बूझ कर किया जा रहा है। बेवेल ने साम्यवाद की परिभाषा करते हुये लिखा है-
It is in reality an entire world philosophy, in reliegion it is altruism, in the state a Democratic Republic, in industry a popular collectivism, in metaphysics materialism, in the home an almost loosening of family ties and the marriage bond.
एक ऐसे समाज का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें विवाह पवित्र बन्धन न होकर केवल रति-क्रिया-लाभ के अन्तर्गत किया जाने वाला क्षणिक Contract ठेका मात्र है। एक ऐसे प्राणी का सृजन किया जा रहा है जो कह सके Born in Hospital, brought up in Nursury, educated in College, living in Hostel, how am I concerned with family ?
अस्पताल में पैदा हुआ, नर्सरी में पला, पब्लिक स्कूल व कॉलेज में पढ़ा, होस्टल में रहा हुआ मैं परिवार को क्या जानूँ ? अक्षर पढ़ा टाइप का, पानी पिया पाइप का, दूध पिया डब्बा से, काम क्या अब्बा से? ऐसी व्यवस्था उत्पन्न कर दी गई है, जिसमें आतिथ्य-सत्कार तथा पारिवारिक त्याग की आहुति दे दी गई। लाभ की कसौटी वाले युग में यदि कृश गाय चारा बचाने के लिये काटी जाने का तर्क मान्य है, तो वृद्ध व कृश अनुत्पादक माता-पिता की बुढ़ापे में सेवा अपने ऐश में कमी करके भी करना मूर्खता करार दी जाने लगी।
व्यावसायिक क्रान्ति, नौकरियों का केन्द्रीकरण, शहरों की घनी बस्तियाँ और आंगन विहीन दो-दो कमरे के छोटे-छोटे घर, पारिवारिक नियंत्रण का विरोध, कैन्टीनों व होटलों का जाल जहाँ घर बिना गये ही भोजन प्राप्त है। रेड़ीमेट भोजन व बिस्कुट, स्त्रियों का जागरण और उनमें घर छोड़कर नौकरी के लिये घर से बाहर आने की प्रवृत्ति का प्रोत्साहन, अविवाहित रहने की प्रवृत्ति, परिवार नियोजन के नाम पर भ्रूण हत्या, परिवारों का छोटा होना, क्लब-थियेटर-सिनेमाहॉल द्वारा घर के बाहर सस्ते मनोरंजन की प्राप्ति, बाहरी स्त्रियों की सुलभ प्राप्ति, उत्तराधिकार के नये कानून, गोद सम्बन्धी कानून, दायादि के अनाधिकारित्व की बात, योजनायें, रुपया लगाने की सुरक्षित निधियाँ, इनकम टैक्स के कानून, विवाह सम्बन्धी कानून, सिविल मैरिज, लोगों का नौकरियों के लिये दूर-दूर बसना, नौकरियों के तबादले आदि सबके सब शस्त्र परिवार को समाप्त करने पर तुले हुये हैं। अनेक देशों में तो परिवार बनने ही नहीं दिये जाते। कौन किसकी स्त्री और कौन किसका पुत्र ! किसकी जायदाद और किसकी विरासत? किसका श्राद्ध व किसका तर्पण?
स्थिति यह है कि हम संक्रमणकाल में हैं। यदि हमें अपनी संस्थायें और संस्कृति तथा अपनत्व जिन्दा रखना है तो परिवार की इकाई को जिन्दा रखना पड़ेगा, अन्यथा विनाश ही विनाश है। सोचना पड़ेगा कि अनुदार कहलवा करके भी अपनत्व जिन्दा रखें या नये समाज की मृगमरीचिका में पड़कर अपनापन कुर्बान कर दें। झंझावात में पड़कर और दुःख उठाकर भी हमें चाहे वह किसी अवस्था में भी हो, परिवार प्रणाली को चालू रखना है।
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