एक बार फिर हम गणतन्त्र दिवस की वर्षगांठ मनाएंगे। यह भी कह सकते हैं कि मनाने की औपचारिकता पूरी करेंगे। क्या ऐसे किसी उत्सव या पर्व का कोई अर्थ रह जाता है, जिसका उत्साह और उल्लास लोगों के मन में नहीं हो। स्वतन्त्रता प्राप्ति को पैंसठ वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका है, लेकिन गणतन्त्र दिवस और स्वतन्त्रता दिवस का मतलब लोगों के लिए एक ’छुट्टी’ से ज्यादा कुछ नहीं हैं। हमारे नेता सरकारी कार्यक्रमों में या कुछ निजी संस्थानों में ध्वज लहराकर और बड़े-बड़े भाषण देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इन आयोजनों में आम आदमी की भागीदारी तो नहीं के बराबर होती है।
देश के कर्णधारों ने क्या कभी इस बात का चिन्तन किया है कि क्यों लोगों का इन राष्ट्रीय त्योहारों के प्रति भावनात्मक जुड़ाव नहीं है। दरअसल संविधान में लोगों के लिए जिस समानता और स्वतन्त्रता की बात की जाती है, वास्तविकता में वह दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ती। वर्तमान में देश के मुट्ठीभर लोगों को छोड़ दें तो महंगाई, कालाबाजारी, मिलावटखोरी, भ्रष्टाचार और बढ़ते अपराधों की वजह से लोगों का जीवन दूभर हो गया है। गरीब और गरीब होता जा रहा है तथा पूंजीपतियों की तिजोरियाँ दिनदूनी रातचौगुनी भरती ही जा रही हैं।
सरकारें लाख विकास की बातें कर लें, लेकिन क्या लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाई है? आम देशवासी आज तक भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो पाया। महिलाओं की अस्मिता न तो बाहर और न ही घर में सुरक्षित है। दुष्कर्म और छेड़छाड़ का विरोध करने वाली महिलाओं की हत्या तक हो जाती है। समाचार पत्रों में रोज इस तरह की खबरें सुर्खियाँ बनती हैं। और तो और हमारे भ्रष्टतन्त्र की आड़ में अपराधी सजा से बच जाते हैं और फिर छाती तानकर समाज में ही घूमते हैं तथा लोगों को डराते-धमकाते हैं।
आर्थिक वृद्धि दर को देशवासियों से ज्यादा अहमियत देने वाली सरकार ने हाल ही खुद माना है कि दुनिया में कुपोषण पीड़ित सर्वाधिक बच्चे भारत में पाए जाते हैं। भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमन्त्री ने राज्यसभा को बताया था कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, पांच वर्ष से कम उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है। क्या यह हास्यास्पद या शर्मनाक स्थिति नहीं है कि बच्चों के कुपोषण के मामले में बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान आदि देश हमसे ज्यादा अच्छी स्थिति में हैं। जहाँ बच्चों को दो समय पेटभर भोजन नहीं मिल पाता हो, वहाँ यह कैसे आशा की जा सकती है कि उन्हें दूध और अन्य पोषक तत्व मिल पाते होंगे।
...लेकिन इतना निश्चित है कि भारत को पुन: रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस जैसे देशभक्तों की आवश्यकता है, जो एक बार फिर स्वतन्त्रता की लड़ाई का शंखनाद करें। इस बार यह लड़ाई विदेशियों के विरुद्ध नहीं बल्कि अपनों के विरुद्ध होगी, जो संभवत: पहले से ज्यादा कठिन है। जब इस लड़ाई को हम जीत लेंगे तभी हमें राष्ट्रीय पर्वों का अर्थ समझ में आएगा और तभी हम इन्हें सही अर्थों में मना पाएंगे। क्या भ्रष्टाचार, घपलों और घोटालों में डूबे हमारे तथाकथित नेता बिस्मिल की इन पंक्तियों से कुछ सीख लेंगे-
यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्त्रों बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।
हे ईश ! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो॥ - सम्पादकीय(दिव्ययुग- जनवरी 2013)