ओ3म् अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शौकैर्ग्रह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून्॥ (अथर्ववेद 3.2.5)
इस मन्त्र में पापवृत्ति को सम्बोधन करके कहा गया है कि (अप्वे परा इहि) हे व्याधि और भय! पापवृत्ते! हमारे यहाँ से चली जा। (अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती) इन शत्रुओं के चित्तों को मोहित करती हुई (अङ्गानि गृहाण) उनके शरीरों को जा पकड़ अर्थात् हमें मूढ़ न बना और हमारे शत्रुओं के शरीरों को विमोहित करदे और उनको (शोकैः निर्दह) शोक से भस्म कर डाल। (ग्राह्या तमसा शत्रून् विध्य) निरुद्यमवृत्ति से और अन्धकार से शत्रुओं को वध डाल, विनाश कर दे।
मनुष्य पाप से डरता है और इसलिए उससे छुटकारा चाहता है। मनुष्य पाप से क्यों डरता है? उसके शत्रु कौन से हैं जिनका विनाश चाहता है और उसके साधन क्या हैं, यह देखना है।
मनुष्य और पशु संसार को देखने में बड़ा भेद प्रतीत होता है। एक वे पशु-पक्षी हैं जो परतन्त्र हैं। एक वे जड़ पदार्थ हैं जो यन्त्रवत् हैं जैसे सूर्य आदि, जो उस देव के नियमों का पालन करते हैं। एक वे जीव हैं जो मुक्त स्वतन्त्र हैं, स्वेच्छाचारी हैं। परन्तु मनुष्य को क्या कहें! यह बात ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य के अन्दर जो आत्मा है वह एक विशेष आत्मा है। पशु का बच्चा पैदा होते ही एक घण्टे के बाद फुदकने और कूदने लग जाता है। भैस का बच्चा और कुतिया का पिल्ला तो जल में तैरने भी लग जाता है। स्वयं जाकर माता के स्तनों से चिपट जाता है और अपनी क्षुधा की निवृत्ति करता है। परन्तु मनुष्य का बच्चा पैदा होते ही निस्सहाय और परतन्त्रता के पाश से ग्रस्त होता है। यह तो जन्म से हर एक बात में शिक्षा और सहायता का मोहताज है। पशु के बच्चे को शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं। वह भक्ष्याभक्ष्य को जानता है, शत्रु और मित्र में पहचान कर सकता है, शत्रु से कभी मित्रता नहीं गांठता। परन्तु मनुष्य का बच्चा ऐसा नहीं कर सकता। बच्चा पैदा हो, उसकी झिल्ली दूर की जाने के बाद साफ स्वच्छ करके बच्चे को जहाँ लिटा दिया जाए पड़ा रहेगा। भूख लग रही हो तो रोवेगा पर दौड़कर माता के स्तनों को नहीं चिपटेगा। छाती पर पड़ा हुआ भी स्तनों को नहीं पकड़ सकता, जब तक कि माता स्वयं कृपा कर और दया से द्रवित होकर उसे स्तनों से न लगाये।
बच्चे को बैठना, चलना-फिरना, कूदना आदि हर प्रकार की शिक्षा देनी पड़ती है। इस सर्वशिक्षा के होते हुए भी विरले मनुष्य ही मनुष्य बनते हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि पशु तो जन्म से पशु पैदा होता है, मरण पर्यन्त पशु रहता है और पशु का काम करता है। परन्तु इस सृष्टि को उत्पन्न हुए 1,97,49,29,000 वर्ष के लगभग बीत गये। मान लो कि एक जन्म में एक सौ वर्ष आयु बीती तो दो कोटि जन्म मिलने पर भी हम अभी मुक्त नहीं हुए और न इससे पूर्व सृष्टि में मुक्त हुए। हमारी उन्नति तो यह हुई कि हम मनुष्य भी न बन सके, नहीं तो वेद हमें न कहता ‘मनुर्भव’ मनुष्य बन। बनना तो हमें देवता था। पर हम मनुष्य ही न रह सके। यह अवनति क्यों हुई? विचार करने से पता चलेगा कि यद्यपि प्रभु ने अपार कृपा करके हमें एक विशेष जन्म दिया और हमें सब योनियों से जिनकी संख्या 84 लाख बताई जाती है, श्रेष्ठ बनाया और श्रेष्ठता का साधन दिया बुद्धि। परन्तु हमने अपनी बुद्धि का विकास न किया और भूल करते गये। जैसा कहा गया कि पशु अपने शत्रु से मित्रता नहीं करता। पर एक मनुष्य ही है जो अपने शत्रुओं से मिलता रहता है और उनकी मित्रता में वास्तविक बात को भूल जाता है। परमात्मा ने इस वेदमन्त्र में आदेश कर दिया कि ऐ मनुष्य! पापवृत्ति से दूर रह और साधन भी बता दिया। हमने आचरण न किया, इसमें परमात्मा का क्या दोष है?
प्रभु ने सूर्य बना दिया कि संसार भर को प्रकाश दे। सूर्य तो प्रकाश करता है, परन्तु यदि उल्लू आँखें मून्दकर दिन के प्रकाश को देखे तो इसमें सूर्य का क्या दोष है?
मनुष्य अल्पज्ञ है, इसलिए भूल तो उसने करनी है। अंग्रेजी में कहा है- To err is human. भूल करना मनुष्य का स्वभाव है। भूल सात्विक, राजसिक और तामसिक तीनों वृत्तियों वाला करता है। सात्विकवृत्ति वाला भूलता है संसार की विषय वासनाओं को और भूलता है अपनी की हुई नेकी को और दूसरों की बुराई को। राजसिकवृत्ति वाला भूलता है अपने मित्र सम्बन्धियों को जब यह निर्धन बन जाते हैं। तामसिकवृत्ति वाला भूलता है भगवान् को, धर्म और श्रेष्ठ कर्म को। परन्तु बड़ी भूलें जो सर्वसाधारण में एक जैसी पाई जाती हैं वे पांच हैं-
1. हम मौत (मृत्यु) को भूल गये।
2. किये हुए पापों को भूल गये।
3. अपने जन्म के अन्दर भोगे हुये दुःखों को भूल गये।
4. ईश्वर की दया और न्याय को भूल गये।
5. सुख सम्पत्ति जो हमें मिली उसके साधन और कारण को भूल गये।
यदि मनुष्य अपने अन्दर से यह भूलें निकाल दे तो बस वह देवता है और ईश्वर प्राप्ति उसके लिए सुगम है। अतः क्रमशः एक-एक भूल का तनिक विचार करते हैं।
शास्त्रकारों ने कहा है- हेयं दुःखमनागतम्। आने वाले दुःख का प्रतिकार करो। जो दुःख बीत गया वह गया, जो बीत रहा है वह चला जायेगा। जो अभी नहीं आया उसका विचार और चिकित्सा करो। आने वाला दुःख तो मृत्यु है जो पुनः हमें जन्म देता है। यही आवागमन का चक्र दुःख ही तो है। हम मृत्यु को भूल गये।
महाभारत में एक कथा आती है कि युधिष्ठिर को जंगल में प्यास लगी तो उसने भीमसेन से कहा कि भ्राता कहीं से जल लाओ। भीम ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो एक स्थान पर हरे-हरे वृक्षों का समूह प्रतीत हुआ, उस ओर चल दिया। एक ताल था, ताल से जल लेने लगा तो यक्ष ने ललकारा कि भीमसेन! सचेत! यदि जल लेना है तो मेरे प्रश्नों का पहले उत्तर दो, उत्तर सन्तोषजनक होने पर जल पी सकते हो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो मूर्च्छित कर दिये जाओगे। भीम बली था, अपने बल के आगे उसे किसी की परवाह नहीं थी। इस चेतावनी की उपेक्षा करके जल लेने लगा तो मूर्छित होकर गिर पड़ा। एक-एक भाई बारी-बारी उस तालाब पर आया और भीम की सी अवस्था को प्राप्त हुआ। सबसे अन्त में युधिष्ठिर आया, युधिष्ठिर ने देखा चारों भाई मूर्छित पड़े हैं। चकित हो गया। प्यास बुझाने के लिए आगे बढ़ा तो यक्ष की आवाज को सुना। धर्मात्मा था। मन में विचार किया कि यक्ष की सम्पत्ति का उपयोग उसकी आज्ञा बिना नहीं हो सकता तो कहा कि महाराज! फरमाइये क्या प्रश्न है? तो यक्ष ने बहुत प्रश्नों में से एक यह पूछा ‘किम् आश्चर्यम्’ आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरे।
अपरे स्थातुमिच्छन्ति किमाश्चर्य्यमतः परम्॥
अर्थात् हम प्रतिदिन देखते हैं कि मरे हुए प्राणी यमालय में जाते हैं और शेष स्थिर रहने की इच्छा करते हैं। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य है?
भक्त कबीर ने कहा हैः-
इक बिन्से इक स्थिर माने।
अचरज लखियो न जाई॥
साधो रचना राम रचाई।
अर्थात् प्रभु की यह सृष्टि विचित्र है। हम देखते हैं एक मर जाता है, दूसरा समझता है मैंने तो सदा के लिये यहाँ रहना है। कितना आश्चर्य है! भगवान् वेद ने तो बड़े सुन्दर शब्दों में चेतावनी रूप में मानव जीवन का सार तथा उसको सफल बनाने के साधनों का वर्णन किया है-
अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो दसतिष्कृता।
गोभाज इत् किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्॥ (यजुर्वेद12.79)
हे मनुष्यो! औषधियों के समान (यत्) जिस (वः) तुम्हारा अश्वत्थे कल रहे वा न रहे ऐसे शरीर में (निषदनम्) निवास है और (वः) तुम्हारा (पर्णे) कमल के पत्ते पर जल के समान चलायमान संसार में ईश्वर ने (वसतिः) निवास (कृता) किया है इससे (गोभाजः) पृथिवी को सेवन करते हुए (किल) ही (पूरुषम्) अन्न आदि से पूर्ण देह वाले पुरुष को (सनवथ) औषधि देकर सेवन करो और सुख को प्राप्त होते हुए (इत्) इस संसार में (असथ) रहो॥
भावार्थ- मनुष्यों को ऐसा विचारना चाहिए कि हमारे शरीर अनित्य और स्थिति चलायमान है। इससे शरीर को रोगों से बचाकर धर्म-अर्थ-काम तथा मोक्ष का अनुष्ठान शीघ्र करके अनित्य साधनों से नित्य मोक्ष के सुख को प्राप्त होवें। जैसे औषधि और तृण आदि फल-फूल-पत्ते-तना और शाखा आदि से शोभित होते हैं वैसे ही रोग रहित शरीर से शोभायमान हों।
इस उदाहरण का भाव केवल यह है कि मनुष्य मृत्यु को भूल गया है। मृत्यु को भूल जाने का कारण कामदेव है जो हमारा बड़ा शत्रु है। एक धनी सेठ का नवयुवक बालक मर गया। अब जिस सेठ का सिर किसी के आगे नहीं झुकता था, आज शोक की अवस्था में सबके सामने झुक जाता है। स्त्री-पुरुष दोनों रोते चिल्लाते हैं। खाना-पीना अच्छा नहीं लगता। कार्य व्यवहार भी छूट जाता है। परन्तु अभी एक वर्ष ही बीता कि पुत्रोत्पत्ति की बधाई मिलती है। यह पुत्र कहाँ से आ गया? यदि मृत्यु याद होती तो एक पुत्र का शोक देख चुका था, स्त्री संग न करता। परन्तु नहीं, कामदेव ने मृत्यु को भुलवा दिया। वह सब कामदेव की कृपा है। जिसने काम को अपना शत्रु समझा और शत्रु से दूर रहा तो वह मृत्यु के पंजे से बच गया। निस्सन्हेदह आवागमन का मूल कारण दूसरी भूल ‘किये हुवे पापों को भूल जाना है।’ पापों को भुला देने का कारण लोभ देवता है। हम देखते हैं कि व्यक्ति ब्लैक मार्केट करता है, पकड़ा जाता है, दण्ड पाता है। परन्तु छूट जाने पर भी बाज नहीं आता, वही काम करता है। इसी प्रकार चोर चोरी का दण्ड भुगत करके लोभवश चोरी से नहीं डरता।
एक दरजी बड़ा कारीगर था। हर प्रकार के वस्त्र तैयार करता था। बड़ा अच्छा काम चला हुआ था। दैवयोग से रोगग्रस्त हो गया। रोग बढ़ता गया, क्लेश भी बढ़ता गया, दुःखी हुआ। एक दिन दरजी को बीमारी में स्वप्न आया। स्वप्न में क्या देखा कि एक बड़ा ऊँचा झण्डा है और उस पर सब प्रकार के टुकड़े रंग-बिरंगे जो वह चुरा लेता था लगे हुवे हैं। बड़ा भयभीत हुआ और परमात्मा से रुदन करके प्रार्थना करने लगा कि भगवान्! इस बार अवश्य कृपा करके स्वस्थ कर दो, यह पाप नहीं करूँगा। परमात्मा ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। स्वस्थ हो गया और दुकान पर जब आया तो शिष्यों से कह दिया कि किसी के वस्त्रों को न चुराया करो। जब वह (स्वयं) भी ऐसा काम करने को हो तो उसे याद दिला दें। कुछ दिनों तक यही रीति प्रचलित रही। एक दिन किसी व्यक्ति ने कोट का एक बहुमूल्य वस्त्र सिलवाने के लिये दिया। वस्त्र जहाँ मूल्यवान था वहाँ रूपवान् भी था। दरजी के मन में लोभ आ गया कि इस कोट से बच्चे की एक बण्डी भी तैयार हो सकती है। वस्त्र को कैंची उठाकर टेढा काटना चाहा कि शिष्य ने स्मरण करा दिया। रख दिया कि कल काटेंगे। दूसरे दिन भी वैसे ही हुआ। तीसरे दिन शिष्य की अनुपस्थिति में लोभ देवता ने याद दिलाया कि अब समय है, वस्त्र उठाया, आँखों के सामने यह ध्वजा भी प्रतीत हुई जिस पर पहले किये पाप की काटें लगी हुई थीं पर लोभ प्रबल था। वस्त्र को इच्छानुसार यह कहते हुये काट ही लिया कि- ईं हम बर अलम्। अर्थात् यह भी उस ध्वजा पर, जहाँ पर सहस्त्रों पाप किये हैं, वहाँ एक यह भी।
तीसरी भूल है अपने जन्म के अन्दर भोगे हुवे दुःखों को भूल गये। इसका मूल कारण है मोह। इसका प्रमाण शरणार्थी हैं। पश्चिमी पंजाब में जब मार-धाड़ हुई तो प्रत्येक व्यक्ति ऐसी आपत्ति में प्रभु को स्मरण कर रहा था और प्रार्थना कर रहा था कि भगवन्! धन सम्पत्ति आदि सब कुछ ले लो इन तीन ही वस्त्रों में सुरक्षित भारत में पहुंचा दो। उस समय पुत्र परिवार नौकर चाकर पशु माया की कुछ चिन्ता न थी, एक शरीर के साथ मोह था और इसके लिये भगवान् के दरबार में सच्चे दिल से पुकार थी, प्रभु ने सुनी परन्तु जब भारत पहुंचे तो सब भोगे हुवे दुःखों को भूल गये और अपनी उदरपूर्ति के लिये माया संग्रह में इतने ग्रस्त होते गये कि ईश्वर को भी भुला दिया और मोह से मित्रता कर ली।
चौथी भूल है परमेश्वर की दया और न्याय को भूल गये। वैज्ञानिक तत्त्ववेत्ता कहते हैं कि मनुष्य चौबीस घण्टे में 21600 श्वास लेता है। यदि परमेश्वर केवल मनुष्य जन्म ही दे देता और श्वास न देता तो हम क्या करते अथवा यदि एक श्वास का एक पैसा देना पड़ता तो सौ श्वास के एक रुपया नौ आने देने पड़ते, सहस्त्र के पन्द्रह रुपये दस आने। 21600 के लगभग 350 रुपया देना पड़ता। बड़े-बड़े धनी-मानी सेठ भी शीघ्र असमर्थता प्रकट करते और फिर जिसके परिवार में आठ-दस व्यक्ति हों वह बेचारा कैसे हजारों का बिल अदा करता? एक पाई मूल्य होता तो लगभग 120 रुपया प्रतिदिन देना पड़ता। एक कौड़ी प्रति श्वास दाम हो तो साढे तीन रुपया प्रतिदिन का बिल होता। परन्तु यह प्रभु की दया है कि दाम कुछ नहीं लेता और फिर दूसरी दया यह कि हम श्वास अपने अन्दर लेते और निकालते हैं। यह काम बिना किसी इच्छा के होता है। यदि हमें श्वास लेने के लिए इच्छा करनी पड़ती तो हम सारा दिन शूं-शूं ही करते रहते। श्वास आने जाने के लिए नासिका बना दी। कान का काम सुनना, आँख का देखना, वाणी का बोलना और चखना, त्वचा का स्पर्श नियत कर दिया। एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय का काम नहीं हो सकता। जिस इन्द्रिय का दुरुपयोग करेंगे वह इन्द्रिय छीन लेगा। आँख से बुरा देखेंगे तो अगले जन्म में अन्धे पैदा होंगे। इस प्रकार शेष इन्द्रियों को समझ लीजिए, यह उसका न्याय है।
हम भोजन खाते हैं, पेट में जाकर उसका रस, रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, वीर्य बनता और केश, अनायास बाहर निकलते हैं। हमें इनके लिये कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता। यदि हमें अपने भोजन को रस आदि में परिवर्तित करने के लिये भट्ठी तपानी पड़ती तो न जाने क्या दुर्दशा हमारी होती? हम सो रहे हों, बैठे हों, चल रहे हों, श्वास आ-जा रहा है, भोजन का रस आदि में परिवर्तन होकर शरीर बन रहा है।
इस दया और न्याय को भुलाने का मूल कारण अहंकार है। अहंकार में आकर मनुष्य किसी के उपकार को नहीं मानता।
पांचवी भूल है सुख सम्पत्ति आदि के साधन का कारण भूल गये। इस भूल का मूल कारण क्रोध है। बच्चा अभी गर्भ से बाहर नहीं आता कि माता के स्तनों में दूध आ जाता है। गर्भ से बाहर आने पर मटके भरे तैयार हैं। भोग उपस्थित है। यदि दूध मोल लेकर बच्चे का पालन किया जाता तो निर्धन से बढ़कर और कौन दुःखी होता ? परन्तु नहीं, प्रभु ने बच्चे के साधन माता को अनायास दे दिए। अन्न खाए, फल खाए, जो भी खाये, उसका दूध के रुप में रस बन जाता है। और जब भूखा हो, मटके खोल दे। ज्ञान इन्द्रियाँ हमें दीं। हम इन बातों को समझें, उपकारी का उपकार मानें। परन्तु हमने ज्ञान इन्द्रियों का दुरुपयोग किया। उपकार करने वाले से भी द्वेष करने लगे। यह द्वेष तब बढ़ता है जब क्रोध आता है। क्रोध से द्वेषवृत्ति जागती है। दूसरे के गुण और समृद्धि को देखकर मनुष्य जल जाता है, ईर्ष्या करता है। यह नहीं सोचता कि वह किस कर्म से बढ़ा है और दूसरे के अवगुण को देखकर उससे घृणा करता है, इसलिए इस क्रोध के कारण से सुख सम्पत्ति के साधन के कारण को भूल जाता है।
हमने देखा कि काम, लोभ, मोह, अहंकार और क्रोध वास्तव में हमारे शत्रु हैं और हमने इनके साथ मित्रता कर रखी है, मानो सुख की लुटिया स्वयं अपने हाथों में डुबो दी है और कष्ट पर कष्ट उठा रहे हैं।
प्रभु करें कि हमे बुद्धि आए कि हम इन भूलों को समझें और शत्रुओं से मित्रता न करके पाप से मुक्त हो जायें। यही वेद मन्त्र का आशय है। - महात्मा प्रभुआश्रित जी महाराज
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