पराजित मौर्य गण की राजमाता ने अपने पुत्र चन्द्र से कहा- “चन्द्र, तुझे नन्द से प्रतिशोध लेना ही है तथा तुझे देश का प्रभावशाली व्यक्ति भी बनना है, जिस पर भारतवासी गर्व कर सकें। तुझे इस योग्य तैयार करने के लिए एक महान् मार्गदर्शक मेरी दृष्टि में है। उनका नाम है आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य और वे इस समय तक्षशिला शिक्षा केन्द्र में दण्डनीति शास्त्र (राजनीति) के प्रमुख आचार्य हैं। तू उनके पास जा और नम्रतापूर्वक प्रणाम कर उनका शिष्यत्व स्वीकार कर।’’ बालक चन्द्र बड़े उत्साह से व्यापारी दलों के साथ तक्षशिला पहुँचा और आचार्य से मिला। चर्चा द्वारा समस्त जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् आचार्य श्री ने चन्द्र से कहा, “पुत्र, आचार्य के शुल्क की क्या व्यवस्था होगी?’’ चन्द्र ने अपने कमर से लटकती हुई तलवार निकालकर ऊपर करते हुए कहा, “आचार्यश्री! मैं इस तलवार के बल से आचार्य का शुल्क चुका दूंगा। आप मुझे अपनी अभिलाषापूर्ति का साधन बना लीजिए।’’ और चन्द्र ने स्वयं को उनके चरणों में समर्पित कर दिया। विद्यार्थी-समूह के साथ चन्द्र का शिक्षण प्रारम्भ हुआ। उस शिक्षण में शास्त्र-ज्ञान के साथ व्यावहारिकता का समावेश था। समर्पित शिक्षार्थी चन्द्र, ऋषितुल्य महान् शिक्षक आचार्य चाणक्य और आर्यत्व के लक्ष्य साध्य को समर्पित शिक्षा का यह प्रयोग अन्ततोगत्वा भारत का गौरव बन सका। ऐसा गौरव जिसने न केवल भारत को एक विशाल साम्राज्य के माध्यम से एकता के सूत्र में ही बांधा, बल्कि अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रभाव से सम्पूर्ण राष्ट्र के चरित्र को आर्यत्व के श्रेष्ठ भावों से परिपूर्ण कर दिया। सुनकर हृदय श्रद्धा से नतमस्तक हो जाता है कि उस समय लोगों को चोरी का भय नहीं था। अतः घरों में ताले नहीं लगाए जाते थे। नारी सम्माननीय होती थी। राष्ट्रीय स्वाभिमान सर्वोपरि था। महान् शिक्षक आचार्य चाणक्य का बोधवाक्य सबके मन-मस्तिष्क की निधि बन गया था- ‘नत्वेवार्यस्य दास भावः’ आर्य में दासत्व का भाव नहीं होता।
आज कहाँ है वह शिक्षा? कहाँ गए चन्द्रगुप्त जैसे समर्पित शिक्षार्थी ? और कहाँ लुप्त हो गई वह शिक्षा, जिसमें मातृसंस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव निहित था? आगे चलकर राष्ट्रीय स्वाभिमान के दर्शन महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी आदि में होते दिखाई देते हैं। आचार्य चाणक्य, समर्थ रामदास स्वामी और महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे मार्गदर्शक अब कहाँ हैं। स्वतन्त्रता-संग्राम के मध्य हमें इसी राष्ट्रीय स्वाभिमान के दर्शन महान् सेनापति नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आजाद-हिन्द सेना में होते हैं, जो स्वतन्त्रता को संग्राम के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे। सरदार भगतसिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा तथा अनेक क्रान्तिकारियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान के दर्शन होते हैं। ये महान् विभूतियाँ समझौता विहीन स्वतन्त्रता-संग्राम में विश्वास करती थीं। इन क्रान्तिवीरों के मार्गदर्शकों में पं. गणेशंकर विद्यार्थी, स्वामी सोमदेव तथा और भी प्रभावशाली मार्गदर्शक थे, जिनकी प्रेरणा इन क्रान्तिवीरों की प्रेरक शक्ति थी। इन्हीं के साथ बाल गंगाधर तिलक, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर आदि श्रद्धेयवर स्मरणीय हैं।
आज कहाँ है वह राष्ट्रीय-स्वाभिमान की प्रेरक शिक्षा? उसके अभाव में व्यक्तिगत स्वार्थ ने जन्म ले लिया है। वर्तमान शिक्षा इसी स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन गई है। इसी की उपज है धर्मनिरपेक्षता। इसी की शिला के नीचे दबा पड़ा है राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सांस्कृतिक गौरव। वर्तमान शिक्षा डॉक्टर, इंजीनियर आदि तो तैयार कर सकती है, यही इसका लक्ष्य भी है। परन्तु मानव को मानवता प्रदान करने में असमर्थ है। आज आवश्यकता है भारत को उस राष्ट्रीय शिक्षा की जो भारतीयों मे मातृभाव जगा सके। कहाँ है वह सत्य सनातन वैदिक धर्म पर आधारित शिक्षा, जो मातृशक्ति को जगा सके तथा मनुष्य को मानवता और आर्यत्व के संस्कारों से संस्कारित कर सके। वेदकालीन वह शिक्षा जो जीवन जीने की कर्मसाधना के साथ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के भाव जगाने में समर्थ थी और जो मातृसंस्कृति और मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण करने के संस्कार डालती थी, कहाँ है वह शिक्षा और कहाँ हैं तत्वदर्शी शिक्षक और कहाँ हैं समर्पित शिक्षार्थी। आइए, हम सब मिलकर इसकी खोज करें। - प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी
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