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जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी

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आचार्य चाणक्य ने कहा है- प्रजासुखे सुखं राज्ञ:, प्रजानां च हिते हितम्। नात्मप्रियं राज्ञ:, प्रजानां तु प्रियं हितम्। अर्थात प्रजा (जनता) के सुख में ही राजा (शासक) का सुख है और प्रजा के हित में ही उसका हित है। राजा को जो कुछ अच्छा लगे वह उसे अपना हित न समझे, अपितु जो प्रजा के हित में हो उसे ही हमेशा अपना हित समझे। महान कूटनीतिज्ञ और राष्ट्रभक्त चाणक्य ने इसी भावना को केन्द्र में रखकर तत्कालीन समाज को एकजुट किया और इन्हीं प्रयासों को विस्तार देते हुए पूरे राष्ट्र को एकसूत्र में पिरो दिया।

आज इस भावना का लोप हो गया है। या यूं कहें कि ’परहित’ की भावना के स्थान पर ’स्वहित’ सर्वोपरि हो गया है। वर्तमान शासक राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीन हो गए हैं। उनके लिए राष्ट्र हित और समाज हित गौण हो गए हैं। इतना ही नहीं जो नेता जितना ज्यादा धूर्त और चालाक होता है, उसे चाणक्य की उपमा दी जाती है।

शासकों को जनता के हित से ज्यादा स्वहित और अपनी पार्टी के हित की चिन्ता रहती है। वह जल्दी से जल्दी पैसा कमाना चाहता है, पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा वोट प्राप्त करना चाहता है। इसी का परिणाम है कि आम आदमी का हित बहुत पीछे छूट गया। वर्तमान समय में स्थितियाँ ऐसी हो गई हैं कि जनता का सरकार से विश्‍वास उठ गया है। यह सब दो-पांच साल में नहीं हुआ है। लम्बी पीड़ा भोगने के बाद ही जनता इस निष्कर्ष तक पहुंची है।

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जनता के विश्‍वास को हमारे शासक पुन: जीत सकते हैं। लेकिन उसके लिए उन्हें सार्थक प्रयास करने होंगे, प्रबल इच्छा शक्ति दिखाना होगी। उनकी सोच जब सत्ता और वोट से हटकर जनता पर केन्द्रित होगी तो विश्‍वास की यह डोर फिर से जुड़ सकती है। क्यों नहीं हमारे नेता चाणक्य से प्रेरणा लेते हैं? क्यों वे शिवाजी महाराज के आदर्श अपने सामने नहीं रखते, जिन्होंने अपना संपूर्ण राज्य समर्थ रामदास की झोली में डाल दिया था और फिर उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाया।

ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही हो रहा है। कहीं-कहीं आशा की किरण भी दिखाई देती है। उजालों के दीप टिमटिमाते हुए भी नजर आते हैं, लेकिन आवश्यकता है इस प्रकाश के विस्तार की, जो पूरे समाज और देश को आलोकित कर सके। इसके लिए जनता को भी आगे आना होगा और इन दीपकों को पहचानना होगा, उन्हें ’स्वार्थी हवा’ के झोंकों से बचाना होगा।

अंत में यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी चौपाई का उल्लेख करना भी समीचीन होगा-जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी। अर्थात जिस शासक के राज्य में अथवा देश में जनता दुखी है, वह निश्‍चित ही नरक को प्राप्त होता है। - सम्पादकीय (दिव्ययुग- जून 2013)