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संयुक्त परिवार का महत्त्व

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संयुक्त परिवार की आवश्यकता प्रारम्भ हो गई है। हाल ही में महानगरों में यह देखने में आया कि लोग अब परिवार को संयुक्त रखना चाहते हैं। भारत की विशेषता रही है संयुक्त परिवार। इस ओर लौटना शुभ संकेत है। साथ-साथ रहना हमारी प्रवृत्ति नहीं बल्कि प्रकृति है। प्रकृति के विरुद्ध हमें नहीं जाना चाहिए। इससे अनेकों नुकसान उभरकर सामने आए हैं। खुशी इस बात की है कि लोग संयुक्त परिवार की धारणा को कमजोर करने के दुष्परिणाम से धीरे-धीरे अवगत होने लगे है। ‘परिवार‘ से अलग होकर परिवार ही बनता है, पर उस परिवार का महत्त्व परिवार सा नहीं होता। अलग होने पर टूटने का दर्द भी बना रहता है। उस दर्द का एहसास उस परिवार को हर पल बना रहता है।

संयुक्त परिवार में चिन्ता हो या चिन्तन हो, दोनों में संयुक्त भाव रहता है। जब चिन्तन संयुक्त होगा और चिन्ता में सामूहिकता होगी तो वह स्वयं बँट जाती है। चिन्तन में सभी के विचार से उत्पन्न चिन्तन परिवार को बान्धता है। वही चिन्ता जब सामूहिक होती है तो वह भी मिट जाती है।

संयुक्त परिवार में सबसे बड़ी बात यह है कि परिजनों से जीवन्त सम्पर्क और सम्बन्धों में मधुरता रहती है। कटुता का कोई स्थान नहीं होता। ‘परिवार‘ में जो एक भाव अपनत्व का स्वयं प्रेरणा से आता है, उसी से सारा परिवार बन्धा रहता है। दूसरी बात संयुक्त परिवार में ‘लिहा+ज‘ का महत्त्व ब+ढ जाता है। बड़ों का लिहा+ज तथा छोटों से स्नेह का वातावरण बहुत मजबूत हो जाता है।

एक दूसरे की परस्पर चिन्ता सदैव बनी रहती है। पूरे परिवार के सम्बन्ध चिरायु बने रहते हैं। दीदी-भाई, काका-काकी, दादा-दादी, बुआ-फुफा, भतीजा-भतीजी, पोता-पोती, मुन्ना-मुन्नी, लल्ला-लल्ली सभी एक दूसरे के चाहे वो फिर वह देवरानी हो या जेठानी हो सभी को सभी के बच्चे अपने ही लगते हैं। हर सम्बन्ध की परिभाषा स्वयं संयुक्त परिवारों में परिभाषित होती रहती है। कभी घर खाली नहीं लगता। घर सुनसान नहीं होता है। घर में किलकारी बनी रहती है। माधुर्य भाव सदैव बना रहता है। किसी ची+ज की कमी महसूस नहीं होती। समाज पर संयुक्त परिवार का प्रभाव भी अच्छा पड़ता है।

संयुक्त परिवार में ‘अपना-तुपना‘ नहीं चलता। खेल में, पढाई में, घर के कामों में, बाजार जाने में, बीमारी आदि में तथा सगे-सम्बन्धियों के बीच में संयुक्त परिवार का प्रभाव शानदार रहता है। निज विश्‍वास के बजाय संयुक्त विश्‍वास का महत्त्व ज्यादा रहता है। काका-काकी या घर का जो बड़ा है, उसके बड़प्पन और जो छोटा रहता है उसके अल्हड़पन में सदैव तालमेल बना रहता है।

बचपन से ही एकमेव-एकता के सूत्र में पूरे परिवार को चलाना निश्‍चित दिशा तो देता ही है साथ ही ‘एकता‘ की प्रबलता को और भी प्रागट्य करता है। बाँट-चिटकर कार्य करना, सामूहिक रूप से भोजन करना इन सभी संस्कारों का जागरण होता रहता है। दु:ख भी बाँटना है और सुख भी। संयुक्त परिवार में दायित्वबोध का जागरण होता है। एक-दूसरे के लिए दायित्वों को समझना संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी देन है। नामकरण-मुण्डन से लेकर विवाह तक के संस्कारों का जो स्वरूप मिलता है, उसकी चर्चा गांव से लेकर शहरों में भी होती है। सकारात्मकता संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी देन है। यह भाव प्रारम्भ से ही पनपने लगता है।

‘संयुक्त परिवार‘ में एक-दूसरे का साथ देना दायित्व समझा जाता है, न कि किसी को उपकृत करना। एक-दूसरे के पूरक होकर रहने की क्षमता भी बढती है। संयुक्त परिवार के आंगन में संस्कार सदैव पलते रहते हैं। आज सबसे महती आवश्यकता है संस्कारों की जो धीरे-धीरे घर-परिवार और समाज में से लुप्त होते जा रहे है।

संयुक्त में ‘युक्त‘ यानि जोड़। सदैव जुड़े रहने का भाव संयुक्तता में बना रहता है। आज इन भावों के विपरीत हर कार्य हो रहा है। संयुक्त परिवार में बच्चों के ही नहीं बड़ों की भी प्रात: जागने से लेकर सोने तक की चिन्ता पूरा परिवार करता है। इतना ही नहीं यदि कोई कमजोर भी पड़ता है या हो जाता है तो वह संयुक्त परिवार की मजबूती में दिखता ही नहीं है। सभी उसकी चिन्ता करते हैं। सतत चलते रहना परिवार का स्वभाव हो जाता है। पूरे परिवार में ‘उदारता‘ का भाव नित्य उत्पन्न और मजबूत होता रहता है। जहाँ उदारता वहाँ नही रह सकती दरिद्रता, यह कहावत संयुक्त परिवार में चरितार्थ होती है।

आज भटकाव आ गया है। लोग तत्काल अलग रहने की योजना बनाने लगते हैं। स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि परिवार में मुखिया जब खुद समझदार होते हैं तो वह घर-द्वार बाँटने लगते हैं। कमरा तक अलग कर लेते हैं। हर घर का अलग स्वभाव, अलग चलन जो बहुत खतरनाक सा लगता है। न आने का समय, न जाने का समय। संयुक्त परिवार में प्रात: के पूजन में यदि सब शामिल न हो सकें तो सन्ध्या की आरती सभी की उपस्थिति का मानक बन जाती है। आज तो स्थिति बद से बदतर हो चली है। कितना अकेले रह सकते हैं और कितनी जल्दी अकेले हो सकते हैं, उसमें लोग महारथ हासिल कर रहे हैं। स्वयं और स्वयं से जना परिवार ही अपना परिवार मानने वाले लोग अधिक हो गये हैं। ऐसे वातावरण में व्यक्ति सदैव अकेला सा और ठगा सा रहता है। यदि कहीं जाना है तो या तो परिवार के साथ जाओ या फिर उसे दीवारों के भरोसे छोड़कर!

‘संयुक्त परिवार‘ बोझ लगता होगा, पर एकाकी परिवार उससे भी बड़ा बोझ हो जाता है। छोटी-छोटी बातों पर ‘अकेलापन‘ आड़े आता है । परिणाम दिनभर अकेले। अगर पति-पत्नि दोनों नौकरी पर हैं तो बच्चे अकेले! सब कुछ अलग-थलग पड़ जाता है । अगर कोई बीमार पड़ जाये तो भी कष्ट में। ये दर्द संयुक्त परिवारों में नहीं होता। अकेले और संयुक्त परिवार से अलग रहने के एक नहीं अनेक नुकसान सामने आते हैं। सबसे पहले अपने परिजनों के सम्बन्ध ही भूल जाते हैं। न काका-काकी, न दादा-दादी, न बुआजी, न भाईजी, न दीदी, न भैया। सब कट जाते हैं और हम दो हमारे दो में सभी सम्बन्धों की तिलांजलि हो जाती है। सम्बन्धों के स्मरण नहीं, विस्मरण का क्रम चलने लगता है।

यह खतरनाक होता जा रहा है। जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी, भौजी-भैया जैसे सम्बन्धों में कमी आ जाती है और हम सम्बन्धों की उपेक्षा करने लगते हैं। धीरे-धीरे हम अकेले रह जाते हैं। जीवन में अकेले रहने से एकाकीपन का भाव मन पर पत्थर से ज्यादा भारी होने लगता है। दर्द भी बाँटना नहीं और सुख का भी आनन्द नहीं ले पाते। आंगन का एक होना पूरे परिवार के मन को एक कर देता है। बच्चे के सिर पर दादी के हाथों की सोने से पहले की थाप और छोटी-छोटी पौराणिक कहानियाँ बिना किसी पाठ्यक्रम के ज्ञान से भर देती थीं। सभी सम्बन्धों का बचपन में शरीर में स्पर्श एहसास कराता था कि हम सभी के हैं। एक छोटी सी कथा है-‘‘एक ने एक के जन्म पर पूछा कि बताओ मनुष्य के जन्म और जानवर के जन्म में क्या अन्तर होता है? इस प्रश्‍न का उत्तर देते समय कहा गया कि मनुष्य जब जन्म लेता है तो वह किसी का बेटा/बेटी, भाई या बहिन होता है अथवा किसी का चाचा होता है परन्तु जानवर किसी का कुछ भी नहीं होता है।‘‘ मनुष्य रिश्ते को जन्म देता है। परन्तु जानवर रिश्ते को जन्म नहीं देता। इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता। हम यहाँ दो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, उससे ‘संयुक्त परिवार क्यों?‘ की दिशा-दशा स्पष्ट हो जाएगी।

संयुक्त परिवार के दो ताजे उदाहरण जो अपने आप में मिसाल कायम कर रहे हैं, यहाँ प्रस्तुत हैं। ग्वालियर में एक परिवार है जिसमें तीन भाई साथ रहते हैं। इनके माता-पिता भी साथ ही रहते हैं । एक चूल्हे पर ही पूरे परिवार का भोजन बनता है। पूरे परिवार में लगभग दस बच्चे हैं। सभी एक साथ रहते हैं। उस परिवार की एकता और संयुक्तता का एहसास इसी से हो जाएगा कि बीच वाले भाई के बच्चे की तबियत खराब हुई तो बड़े भाई की पत्नी (ताईजी) बड़ी माँ की तरह उसका मुम्बई में इलाज करवाती रही । माँ ग्वालियर में रहीं और ताईजी मुम्बई में। घर के संयुक्त परिवार कर यह विश्‍वास देखते ही बन रहा था। ऐसे स्नेह के वातावरण में भगवान की कृपा से वह बालक जो ब्लड कैंसर से पीड़ित था पूरी तरह ठीक हो गया। संयुक्त परिवार की एकता-प्रतिबद्धता के आगे सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। इससे बड़ा उदाहरण और कहाँ मिल सकता है! तीनों भाई दुकान बन्द करके आते हैं तो वे एक-एक दिशा में स्थित भगवान के दर्शन कर घर लौटते हैं, पर घर पहुंचकर बड़े भाई को नगद (कैश) दे देते हैं। उसके बाद माँ को पूरी जानकारी देते हैं। फिर तीनों भाई एक साथ ही थाली में भोजन करते हैं। इस तरह का यह अनूठा संयुक्त प्रेम देखते ही बनता है।

इसी तरह इन्दौर का एक परिवार है जो सात भाई हैं। सातों ने एक सीरीज में मकान बनवाया है। सभी एक साथ रहते हैं। अलग-अलग मकान होने के बाद भी पूरा घर एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। एक संयुक्त हॉल है, उसी में एक बड़ा सा टीवी लगा हुआ है। सभी भाई व सभी बच्चे उसी हॉल में रहते हैं। साथ-साथ बैठते-उठते हैं। सभी का चौका एक-दूसरे के जाने लायक बना हुआ है । सभी आते-जाते हैं। एक-दो भाई प्रवास पर (बिजनेस दौरे पर) रहते हैं। उसके बाद भी घर पर चार-पांच भाई बने रहते हैं। एकता की ऐसी मिसाल बहुत कम जगह देखने को मिलती है।

‘संयुक्त परिवार‘ नैतिकता का अटूट बन्धन होता है। एकाकीपन या अकेले रहना परिजनों से दूर रहने जैसा अभिशाप ही हो जाता है। संयुक्त परिवार आज के भौतिकतावादी युग में परम आवश्यक है। संयुक्त परिवार में भारत बसता है । हमारी संस्कृति, परम्परा और मर्यादाएं बसती हैं। दिक्कत यह है कि अकेले रहने वाले इण्डिया में भारी तकलीफ से रहा जाता है। परन्तु एकता के सूत्र में बन्धे रहने वाले संयुक्त परिवार में कोई कष्ट नहींहोता। सच्चाई यही है कि भारतीय जीवन शैली का नाम ही है ‘संयुक्त परिवार‘। आइये! हम और आप इस ओर पहल प्रारम्भ करें।• प्रभात झा (दिव्ययुग - मार्च 2014)