विशेष :

होलिकोत्सव

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मांगलिक पर्व होली
इस पर्व पर सब लोग ऊँच-नीच, छुटाई-बड़ाई का विचार छोड़कर स्वच्छ हृदय से आपस में मिलते हैं। यदि किसी कारणवश वैर-विरोध ने मनों को अपना आवास बना लिया है, तो उनको अग्निदेव की साक्षी में भस्मसात् कर लिया जाता है। अतः होली प्रेम प्रसार का पर्व है। यह दो फटे हृदयों को मिलाती है तथा एकता का पाठ पढ़ाती है। यह प्रेम में तन्मय हो जाने हेतु सबसे उत्तम साधन है। घर-घर वर्ष भर के बैरी एक-दूसरे को गले लगाकर फिर भाई-भाई बन जाते हैं। बाल-वृद्ध-वनिताओं की उछाह भरी उमंगें कलह-कालुष्य और वैमनस्य के विकारों का विलोप कर देती हैं। होली के शुभ अवसर पर भारत में हर्ष की कल्लोल-मालाएं उठती हैं। यह पर्व प्रत्येक हिन्दू के घर भारतवर्ष में इस सिरे से उस सिरे तक समान रूप में मनाया जाता है। होली का पवित्र पर्व वस्तुतः आनन्द और उल्लास का महोत्सव था। किन्तु काल की कराल गति से आजकल उसमें भी कदाचार और अभद्र दृश्य प्रवेश पा गये हैं। आजकल जिस प्रकार से होली मनायी जाती है, उसको देखकर क्या कोई भी बुद्धिमान धार्मिक पुरुष यह मान सकता है कि यह होली, जिसको देखकर शिक्षित और सज्जन विदेशी लोग हमें नीमबहशी (अर्द्धबर्बर) का खिताब देते हैं, हमारे उन्हीं पूर्व पुरुषों की चलाई हुई हो सकती है कि जिनकी विद्या और बुद्धि को देखकर सारा संसार विस्मित है और जिनके रचित ग्रन्थों तथा शिल्प-निर्माणों को देखकर क्या स्वदेशी और क्या विदेशी सभी सहस्र मुख से उनकी उच्च सभ्यता की प्रशंसा करते हैं। क्या आजकल होली में गाली-गलौज या बकवास और अश्‍लील शब्दों का उच्चारण हमारे उन ऋषियों और मनीषियों का चलाया हो सकता है, जिनके सिद्धान्त के अनुसार मन में भी ऐसे अश्‍लील और जघन्य विचारों का सोचना तक पाप समझा जाता है ! क्या आजकल की होली में बड़े भाइयों की स्त्रियों व भाभियों से होली खेलना वा दूसरे शब्दों में कुचेष्टाएं करना उन आर्य पुरुषों का चलाया हो सकता है, जो भाभियों को माता के समान समझते थे और उनको प्रणाम करते हुए भी उनके चरणों को छोड़कर उनके अन्य अंगों पर दृष्टिपात तक करना पाप समझते थे। देखिये, जिस समय श्री सीता को रावण अपहरण करके ले गया था, तब वे विलाप करती हुई अपने आभूषण और चीर मार्ग में फेंकती गई थीं। ये आभूषण एक पोटली में बंधे हुए सुग्रीव के महामन्त्री हनुमान ने उठाये थे। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड सर्ग 54, श्‍लोक 563-564 के अनुसार एक पर्वत पर बैठे हुए पांच वानरों को देख सीता ने अपना रेशमी दुपट्टा और मांगलिक आभूषण उतार दुपट्टे में बांधकर वानरों के मध्य इस आशा से फेंक दिये कि सम्भव है, ये राम को मेरा वृत्तान्त बता सकें। जल्दी के कारण रावण सीता के कार्य को देख नहीं सका।

आजकल भाभियों से होली खेलने के रसिया क्या उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण यति के कुल से होने का अभिमान कर सकते हैं कि जिनका चरित्र और व्यवहार इतना महान था? फिर आजकल होली में जो आर्य सन्तान मद्य, भांग आदि पीकर उन्मत्त होते हैं तथा दूध जैसे अमृत समान पदार्थ को भांग जैसे मादक और बुद्धिनाशक द्रव्य में मिलाकर अनर्थ करते हैं। वे बुद्धि जैसे उत्तम और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के देने वाले पदार्थ का नाश करके ईश्‍वर के अपराधी बनते हैं। उनसे बढ़कर और कौन पाप का भागी बन सकता है? बुद्धि जैसा बहुमूल्य और श्रेष्ठ पदार्थ इस संसार में कोई दूसरा नहीं है। यह ईश्‍वर की देनों में से सबसे उत्तम देन है। बिना बुद्धि के लौकिक और पारमार्थिक कोई भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धि की शुद्धि के लिए प्रत्येक वैदिक धर्मी नित्य गायत्री में ईश्‍वर से प्रार्थना करता हैं कि धियो यो नः प्रचोदयात्। अर्थात वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे। उस बुद्धि को होली में नशा पीकर भ्रष्ट और मलिन करने वाले क्या कभी ऋषि-मुनियों के मानने वाले और धर्मानुयायी हो सकते हैं, जिनके अग्रगन्ता महर्षि मनु ने अपने धर्मशास्त्र में मद्यपों के लिए यह प्रायश्‍चित बतलाया है कि-
सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णा सुरां पिबेत।
तथा स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्तः॥
मद्य पीने वाला पापी अग्नि से तपाई हुई मद्य पीकर स्वशरीर को नष्ट कर देवे।

इस प्रकार मद्यपान के लिए कठिन प्रायश्‍चित मनु भगवान् ने रखा है और उसकी महापातकों में गणना की है। समझा जा सकता है कि उससे बढ़कर कौन सा महापाप हो सकता है? कोई भंग़ेडी वा भंग पीने वाला शायद यह शंका करके मनु महाराज ने तो स्वनिषेध वाक्य में केवल सुरा=मद्य शब्द का प्रयोग किया है, इसमें भंग आदि का निषेध कहाँ से आ गया? ऐसी शंका करने वाले महाशयों को सुश्रुताचार्य का यह वाक्य भी ध्यान में रखना चाहिए- बुद्धिं लुम्पति यद्द्रव्यं मदकारि तदुच्यते। अर्थात् जो पदार्थ बुद्धि का नाश करे, उसको मदकारि वा ‘मद्य’ कहते हैं। विचार किया जा सकता है कि भांग आदि जितने भी नशे हैं उनमें क्या कोई बुद्धि को बढ़ाता भी है? यदि आप विचारेंगे और योरुप आदि विदेश के डाक्टरों तथा स्वदेश के वैद्यों तथा हकीमों की इस विषय में लिखित सम्मतियां देखेंगे, तो आपको विदित होगा कि सब नशे न केवल बुद्धि का क्षय ही करते हैं, किन्तु शरीर आदि का भी नाश कर डालते हैं।

कितने खेद और शोक की बात है कि जिन लोगों का मद्य और मांस जातीय आहार समझा जाता था, वे तो उसको छोड़ते जाते हैं और ऋषि सन्तान उनका ग्रहण करते हैं तथा होली जैसे पवित्र पर्वों और उत्सवों को उनके प्रयोग से कलंकित एवं दूषित कर रहे हैं। क्या हमारी होली की राक्षसीय लीलाओं को देखकर कोई भी विश्‍वास कर सकता है कि हम उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं, जिनकी विद्वत्ता, शूरवीरता, धर्मपरायणता का लोहा संसार मान रहा है। आज कल होली के अवसरों पर ग्रामों और नगरों में जो स्वांग भरकर जुलूस निकाला जाता है, क्या इससे बढ़कर भी कोई अमांगल्य और अभद्र दृश्य हो सकता है? हमारे धर्मपरायण राम, कृष्ण, भीष्म, विदुर, युधिष्ठिर आदि पूर्व पुरुषों की आत्माएं हमारे इन दुश्‍चरित्रों को देखकर क्या कहती होंगी ?

यह तो कुपढ़ों और निपट गंवारों अथवा अर्द्ध शिक्षितों की लीलाएं हुई। शिक्षित और सभ्य लोग भी हिन्दुत्व और हिन्दू त्यौहारों की रक्षा की दुहाई देते हुए होली में ऐसे हुल्लड़ मचाते हैं कि जिनको देखकर लज्जा को भी लज्जा आती है। वे अपने इष्टमित्रों-साथी-संगियों के वस्त्रों को लाल रंग से लथपथ करते हुए मुँह पर गुलाल लपेटकर तथा आँखों में अबरी झोंककर उनकी वह दुर्गत बनाते हैं कि उसको देखकर दया आती है। अब यह हुड़दंगापन नवीन सभ्यता के प्रचार से कुछ कम हो चला है, किन्तु आज भी हमारे तीर्थ-स्थान मथुरा, काशी, हरिद्वार आदि नगरों में तो किसी भले मानव पथिक को अपने बहुमूल्य श्‍वेत वस्त्र लाल रंग से अछूते लेकर निकलना असम्भव है। आइये! हम इस होली पर्व को प्राचीन पद्धति के अनुसार ही मनावें।

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