विशेष :

हम प्रभु से दूर न हों

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ओ3म् उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि॥ ऋग्वेद 1.1.7 ॥

शब्दार्थ- हे दोषावस्तः अग्ने= रात-दिन जगमगाने वाले अग्निदेव ! वयम् = हम दिवे दिवे = दिन प्रतिदिन नमः भरन्तः = नमन भाव से भरकर धिया = बुद्धिपूर्वक त्वा = आपके (उप + आ + इमसि = समीप आते हैं।

व्याख्या- हे अग्निवत् प्रसिद्धदेव ! प्रकाशमान प्रभो ! आप बाह्य प्रकाश और आन्तरिक ज्ञान रूपी प्रकाश कभी-कभार ही नहीं अपितु रात-दिन देते हो। आपका प्रत्येक प्राकृतिक कार्य लगातार चलता रहता है। अतः हम आपकी इन कृपाओं, आभारों को प्राप्त करके अनुभव करते हैं कि केवल यदा-कदा ही नहीं, कि आज शिवरात्री है या जन्माष्टमी है, अतः आपका स्मरण करें। अपितु हम तो अनुभव करते हैं कि आप प्रतिदिन प्रतिक्षण हमें लाभान्वित करते हो। अतः हम भी प्रतिदिन प्रातः-सायं सत्कार, श्रद्धा, नमन भाव से भरकर आपका स्मरण करें। जैसे कि किसी वृक्ष पर जैसे-जैसे फल बढता जाता है, वैसे-वैसे वह कृतज्ञता के रूप में झुकता जाता है। ऐसे ही हम भी आपकी कृपाओं का अनुभव करते हुए अपनी पूरी विचार शक्ति, सोच से पूरी तरह से आपकी निकटता से निकटता को प्राप्त हों, अनुभव करें।

परमदेव ! आप तो अभौतिक हैं, पूरी तरह से पूर्णकाम, आप्तकाम, संसारी इच्छा से दूर, रजे-पुजे हैं। आप ही सबकी कामनायें पूर्ण करते हैं। फिर आपको भौतिक पदार्थों में क्यों उलझायें? अपनी मनस्तुष्टि के लिए भौतिक पदार्थों से उपासना क्यों करें? तेरी समीपता, अनुभूति हम हार्दिक भावों, मानसिक विचारों, बौद्धिक तरंगों से ही करें। क्योंकि भौतिक पदार्थ अपनी भौतिकता (अंगरूप में या उनकी अपेक्षाओं) की साज-सज्जा में उलझाये रखते हैं। अर्थात् भौतिक को ही भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा होती है। प्रभु हर प्रकार से अभौतिक है। अतः ईश्‍वर की उपासना की वेला में हम स्थूल चीजों की व्यवस्था, व्यवहार में ही न उलझे रहें। सदा विचारों, भावनाओं द्वारा आपसे जुड़ने का प्रयास करें।

हे आधारों के आधार, विचारों के धाम! जब हम विचारशील प्राणी हैं, तो हमारी उपासना का यह कार्य केवल रिवाज पूरा करने के लिए ही नहीं हो, अपितु पूरी तन्मयता से हम विचारों, भावनाओं से भरकर उपासना करें।

हे अन्तर्यामिन्! आप तो हमारे साथ हृदय देश में भी विराज रहे हैं- हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता- 18.61)। अतः हमें ऐसी भावनायें दो कि हम सदा-सर्वथा आपको अंग-संग अनुभव करें। आप तो पूरी तरह से हमारे मित्र, हितचिन्तक, सर्वरक्षक रूप में हर स्थान पर प्रत्येक समय हमारे साथ हैं। अतः जब भी विपत्ति या घबराहट अनुभव करें, तब-तब आपका ही स्मरण करें। यतोहि संसार विविधताओं, विपरीत परिस्थितियों से भरपूर है। यहाँ मैं ही अकेला नहीं रहता। अतः आपा-धापी, मैं पहले के कारण संघर्ष, स्पर्धा होना स्वाभाविक है। अतः ऐसी स्थिति में भोजन की तरह शक्ति प्राप्त करने के लिए आत्मिक आहार रूपी उपासनार्थ आपसे जुडूं। आपकी निकटता की अनुभूति के लिए भक्ति की तरंग से तरंगित होने का यत्न करूँ। इस प्रकार आत्मिक आहार से शक्ति प्राप्त करके जीवन संघर्ष में सफल होने का यत्न करूं। कभी भी आपसे दूर न होऊं। अपितु निकट से निकट होने का ही उपासना से प्रयास हो।

विशेष- केवल किसी वस्तु की प्राप्ति का ही महत्व नहीं है, अपितु उस-उस वस्तु को प्राप्त करके उसके सदुपयोग का विशेष महत्व है। जैसे भोजन शक्ति देता है, स्वादु होता है। पुनरपि हर समय उसका सेवन किया जाए, यह बात महत्व की नहीं है। विशेष बात तो यह होती है कि उस भोजन को पचाकर शक्ति जहाँ प्राप्त की जाए, वहाँ उस शक्ति का सदुपयोग भी हो। तभी सार्थकता एवं कीर्ति प्राप्त होती है। भक्ति, उपासना आत्मिक आहार है। अतः उसमें भाव-विभोर होने से व्यक्ति दुर्भावनाओं व दुश्‍चिन्तन से बचा रहता है। पर स्वस्थता की दृष्टि से दिनचर्या की व्यवस्था, व्यस्तता भी विशेष अपेक्षित है।

अग्नि अति प्रसिद्ध है। उसको सब जानते हैं। अतः परिचय की अपेक्षा नहीं, उसके अनेक रूप प्रचलित हैं। तभी मुहावरों में अग्नि शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे कि हमारी भाषाओं में अग्नि-आग से जुड़े अनेक शब्द प्रचलित हैं। लोकोक्तियों में प्रयुक्त ये शब्द प्रकरण के अनुरूप विविध अर्थों को दर्शाते हैं। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद मार्ग कल्याणकारी | वेद कथा - 100 | क्रन्तिकारी प्रवचन | Introduction to the Vedas | Ved Katha