प्रकाश का पर्व दीपावली। ज्योति की उपासना का पर्व दीपावली। इस पर्व की पृष्ठभूमि में कई कथाएं और मान्यताएं प्रचलित हैं, लेकिन भाव सबका एक ही है। वह रावण पर राम की विजय के उल्लास का प्रतीक हो या फिर हजारों अबलाओं को नरकासुर की कैद से मुक्त कराकर उनके जीवन में प्रकाश की नई किरण लाने का प्रसंग हो, भाव या फिर उद्देश्य एक ही है और वह है असत्य का नाश, अन्धकार का अन्त, अहंकार पर विजय।
प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है, सत्य का प्रतीक है, नवीनता का प्रतीक है और सृजन का भी प्रतीक है। ज्योति की उपासक भारतीय संस्कृति में प्रार्थना की जाती है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। अर्थात हे ईश्वर! हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। आनन्द भी सत्य ही है। सत्य के बिना आनन्द की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब वातावरण में सत्य प्रवाहित होता है तो चारों ओर आनन्द की स्वर लहरियाँ गूंज उठती हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी सत्य हैं। रावण वध के पश्चात् उनके अयोध्या लौटने की स्थिति का तुलसीदास जी ने बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है-परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। अर्थात राम (सत्य) के आगमन की सूचना मात्र से शीतल-सुगन्धित-मन्द तीनों प्रकार की वायु चलने लगी।
समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। बाबा तुलसी ने आगे कहा है- प्रभु बिलोकि हरसे पुर बासी जनित बियोग बिपति सब नासी। अर्थात प्रभु श्रीराम को देखकर सब अयोध्यावासी प्रसन्न हो गए और वियोग से उत्पन्न सब कष्ट दूर हो गए। कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य और ज्ञान से शारीरिक और मानसिक सभी तरह का आनन्द मिलता है। दीपावली का पर्व भी हमें यही सन्देश देता है कि हम राष्ट्र और समाज से अज्ञान और असत्य रूपी तिमिर का नाश करें। यह पर्व हमें यह सन्देश भी देता है कि दरिद्रता को अपने जीवन से निकालकर ऐश्वर्य, समृद्धि, यश, उत्साह उल्लास को समाहित तो करें ही, साथ ही ईर्ष्या और द्वेष जैसे अन्धकार को भी अपने जीवन से तिरोहित कर दें।
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लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या समाज और राष्ट्र बुराइयों से मुक्त हैं? क्या जातिवाद, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, प्रान्तवाद, ऊंच-नीच, भेदभाव, अज्ञानता और घृणा रूपी अन्धकार मौजूद नहीं हैं? निश्चित ही देश और देशवासी इन बुराइयों से जूझ रहे हैं। सत्ता के लिए नेता जिन्हें समाज को नेतृत्व देना चाहिए, साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाकर लोगों को बांट रहे हैं। कम-से-कम ऐसे में तो दीपावली की सार्थकता नहीं हो सकती। इन बुराइयों का समूल नाश करके ही अमावस की काली रात को जगमगाया जा सकता है, अन्यथा दीपों के जलने और बुझने का कोई अर्थ नहीं है। हमें कवि की इन पंक्तियों को आत्मसात् करना होगा-
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना,
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दीपावली के दिन ही महान समाज सुधारक, वेदोद्धारक एवं आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती महानिर्वांण को प्राप्त हुए थे। महर्षि ने अपना पूरा जीवन राष्ट्र और समाज में व्याप्त अज्ञान के अन्धकार को दूर करने में लगा दियाथा। ऐसी महान विभूति को बारम्बार नमन एवं श्रद्धांजलि!
दीपावली पर्व के सन्दर्भ में कवि कम्बोज की पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं-
आदमी है आदमी तब, जब अन्धेरों से लड़े,
रोशनी बनकर सदा, सुनसान पथ पर भी बढे,
जब हम आगे बढेंगे, आस की बाती जलाकर,
तारों भरा आसमां, उतर आएगा धरा पर ।
इसी आशा के साथ ‘दिव्ययुग’ के सभी पाठकों, शुभचिन्तकों और सहयोगियों को दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ !! - वृजेन्द्रसिंह झाला (दिव्ययुग- नवंबर 2013)