व्यक्ति अपने मल-मूत्र के वेग को रोकता है, छींके रोकता है, तब मुख एवं नाक में धुआं घुस जाता है, जो हमारे अंदर के कण्ट्रोल रूम से उभरता है। जब व्यक्ति अत्यधिक परिश्रम करता है या परिश्रम बिल्कुल नहीं करता है, रूखा या हानिकारक खाद्य अथवा पेय ग्रहण करता है, तब भी प्राणवायु दूषित होती है। ऐसे में प्राणवायु, उदात्त वायु से मिलकर अकस्मात फूटे कांसे के समान शब्द करती हुई मुख के बाहर कफ या पित्त को साथ घसीटने का श्रम करते हुए बाहर आती है। इसी को कांस रोग या खांसी कहा जाता है।
वात, पित्त, कफ, क्षय और क्षत इन मेदों से पांच प्रकार के कांस रोग होते हैं। इनकी निरापद चिकित्सा न होने से ही व्यक्ति को यक्ष्मा (टीबी) की सौगात मिलती है।
हृदय, कनपटी, सिर, उदर और पसलियों में शूल की पीड़ा होना, बल, स्वर, पराक्रम का हीन होना, बार-बार तीव्रता से खांसना, सूखी खांसी होना वातज कांस के लक्षण हैं।
ऐसी अवस्था में मुख में लौंग या अदरक (भूनकर) डालकर चूसते रहें। बथुआ, मकोय और पंचमूली के क्वाथ में पीपल का चूर्ण मिलाकर लें। सम मात्रा में अदरक और प्याज का गुनगुना गर्म रस एक-दो चम्मच दिन में तीन बार लें।
पित्त की खांसी में छाती में दर्द या जलन, ज्वर, मुख में कड़वाहट आती है। प्यास भी नहीं लगती। पीला और कड़वा कफ आता है। इस प्रकार की खांसी होने पर मुलहैठी, खजूर, पीपल, काली मिर्च सम मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर एक-एक छोटा चम्मच चूर्ण शहद के साथ दिन में तीन बार लें और पूर्ण लाभ न होने तक नित्य इसका सेवन करते रहें।
अगर मुख में कफ लिपटा रहे और ऐसा लगे कि गले में भी कफ का प्रेशर है। व्याकुलता, सिरदर्द की स्थिति हो।
भोजन में अरूचि, शरीर में भारीपन और जड़ता हो। खांसी के साथ बार-बार कफ आए तो समझ लीजिए कि आप कब्ज कांस के शिकार है। ऐसे में आपको नवांग चूर्ण की जरूरत है। देवदास, शठी, रास्मा, धुत्ती, कचूर, रयसन तथा धमासा को पंसारी के यहाँ से सम मात्रा में लाएं और इनका चूर्ण बनाकर शहद के साथ दिन में तीन-चार बार लें। अवश्य लाभ मिलेगा।
क्षत कांस में पहले मनुष्य सूखा खांसता है, फिर रक्त आता है। सूई के समान छेदन-भेदन, हृदय के फटने की सी पीड़ा, संधियों में दर्द-फटन, ज्वर, तृष्णा, श्वास फूलना आदि अन्य लक्षण हैं। अति मैथुन करने, धूम्रपान, मदिरापान की हदें लांघने से मनुष्य की छाती में घाव होकर उसमें वायु जाकर खांसी उत्पन्न करती है। बलकारक, जीवनीय घृत, शमन व पित्त नाशक मधुर औषधियों द्वारा ही ऐसे रोगियों की चिकित्सा होनी चाहिए। यह नाजुक स्थिति है, अतः किसी योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही इसका इलाज लाजिमी है।
विषम एवं स्वभाव के विपरीत भोजन करने से, अधिक देर तक जागने, घृणा और ईर्ष्या से भरे रहने, अत्यधिक चिंता करने और अधिक वीर्य नाश करने से अग्नि मंद होती है। फलतः देह शूल, ज्वर, प्राणक्षय, सूखी खांसी, दुर्बलता, मांस क्षीणता के अलावा खांसी के साथ रक्त व राल आती है।
खांसी की इस अवस्था में आप अदरक के रस में समभाग मधु (शहद) मिलाकर सेवर करें। सौंठ व हरड़ का चूर्ण भी लाभप्रद है। पंचचोकल की औषधि भी दूध में गर्म करके पीएं और सन्निपात की चिकित्सा भी साथ-साथ जारी रखें।
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